कहानी- धुंधलका 1 (Story Series- Dhundhlka 1)

इन दो सालों में तुमने बहुत कुछ किया है मेरे लिए… तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता. तुम समझ सकते हो मुझे कैसा लग रहा होगा… तुम भी ऐसे उदास हो जाओगे तो मैं कैसे जा पाऊंगी भला?”

उसके चेहरे पर उदासी छा गई. कितनी जल्दी रंग बदलती है उसके चेहरे की धूप. रंग ही बदलती है, साथ नहीं छोड़ती. अन्धेरे को नहीं आने देती अपनी जगह.

अपर्णा आज रात की फ्लाइट से बोस्टन जा रही है. पता नहीं, अब कब मिलेगी, मिलेगी भी या नहीं. मैं नहीं चाहता कि वह जाए. मुझे पक्का यक़ीन है कि वह भी नहीं चाहती, लेकिन अपनी बेटी की वजह से जाना ही है उसे. अपर्णा ने कहा था, “सौरभ, अकेले पैरेंट की यही समस्या होती है. फिर कोयल तो मेरी इकलौती बेटी है. एक-दूसरे के बिना हम नहीं रह सकते. एक व़क़्त के बाद शायद वह अकेले रहना सीख जाए, पर मैं तो बिल्कुल नहीं एडजस्ट कर सकती. इधर वह कुछ ज़्यादा ही इन्सिक्योर फील करने लगी है. पिछले दो-तीन साल में उसमें बहुत बदलाव आया है. यह बदलाव उम्र का भी है. फिर भी मैं नहीं चाहती कि वह कुछ ऐसा सोचे या समझे, जो हम तीनों के लिए तकलीफ़देह हो.”

मैं उसे देखता रहा. पिछले दो साल से उसमें बदलाव आया है यानी कि जब से मैं अपर्णा से मिला हूं. हो सकता है कि उसकी बात का मतलब यह न हो, पर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा-दुख हुआ.

अपर्णा ने मेरा चेहरा पढ़ लिया था, “सौरभ, तुम्हें छोड़कर जाने का दुख मुझे भी है. दरअसल कोयल वहीं पढ़ना चाहती है. कुछ साल पहले जब उसकी कज़िन वहां से आई थी तभी से उसने मन बना लिया था. अब मेरे लिए अपना नहीं कोयल का करियर ज़्यादा ज़रूरी है.”

“कोयल हॉस्टल में भी रह सकती है… तुम्हारा जाना ज़रूरी है?” मैंने अपर्णा का हाथ पकड़ते हुए कहा था. उसकी पनीली आंखें देखकर मुझे ख़ुद पर ग़ुस्सा आ गया. मैं कितना स्वार्थी हो गया हूं. वैसे भी मैं उसे किस हक़ से रोक सकता हूं? सब कुछ होते हुए भी वह मेरी क्या है, आज समझ में आ रहा है. हम दोनों की एक-दूसरे की ज़िन्दगी में क्या जगह है? दोनों के रिश्ते का दुनिया की नज़र में कोई नाम भी नहीं है. अगर मेरे सामने यही हालात होते तो? मेरी बीवी की कोई समस्या या मेरी ही बेटी को जाना होता पढ़ने तो? क्या मैं भेज देता झट से उसे बोस्टन या किसी भी हॉस्टल में? मैं आसपास के शहर में भी नहीं भेज पाता. मुझे चुप देखकर अपर्णा ने भरे और नर्म स्वर में कहा था, “हमें अच्छे और प्यारे दोस्तों की तरह अलग होना चाहिए. इन दो सालों में तुमने बहुत कुछ किया है मेरे लिए… तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता. तुम समझ सकते हो मुझे कैसा लग रहा होगा… तुम भी ऐसे उदास हो जाओगे तो मैं कैसे जा पाऊंगी भला?”

उसके चेहरे पर उदासी छा गई. कितनी जल्दी रंग बदलती है उसके चेहरे की धूप. रंग ही बदलती है, साथ नहीं छोड़ती. अन्धेरे को नहीं आने देती अपनी जगह.

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मैं उसे उदास नहीं देख सकता. मुस्कुराते हुए कहा था, “दरअसल बहुत प्यार करता हूं न तुम्हें, इसीलिए पजेसिव हो गया हूं और कुछ नहीं. तुमने बिल्कुल ठीक फैसला किया है. मैं तुम्हें जाने से रोक नहीं रहा, पर इस फैसले से ख़ुश भी कैसे हो सकता हूं.” यह कहकर मैं एकदम उठकर अपने चैम्बर में आ गया. अपने इस बर्ताव पर मुझे ख़ुद पर बहुत ग़ुस्सा आया. मुझे उसे दुखी नहीं करना चाहिए.

यह वही अपर्णा तो है, जिसने पिछली बार अपना प्रमोशन स़िर्फ इसीलिए छोड़ दिया था, क्योंकि उसे दूसरे शहर जाना पड़ता और वह मुझे छोड़कर जाना नहीं चाहती थी. तब मैं उसे जाने के लिए कहता रहा था.

“तुम्हें कहां पाऊंगी वहां?” उसकी आंखें घने बादलों से ढंकी शाम हो गई थीं जैसे.

जब मैं अपनी कम्पनी की इस ब्रांच में नया-नया आया था, अच्छा-भला था. अपने काम और परिवार में मस्त. घर में सारी सुख-सुविधाएं थीं. बीवी और दो बच्चों का वह परिवार जो अमूमन सुखी कहलाता है, सुखी ही था. हां, मेरी कस्बाई तौर-तरीक़ोंवाली बीवी मुझे कभी-कभी निराश कर देती थी. और वह शादी के बाद से ही ख़ुद को बदलने में लगी है. पता नहीं यह प्रक्रिया कब ख़त्म होगी. शायद कभी नहीं.

बच्चे हर लिहाज़ से एक उच्च अधिकारी के बच्चे दिखते हैं. मानसिकता तो मेरी भी न पूरी तरह महानगरीय है, न ही कस्बाई पूर्वाग्रहों से पीछा छूटता है मेरा. मेरा टूटा-फूटा घर और गांव-कस्बा हमेशा मुझ पर हावी रहा. कुछ मामलों में अभी तक यहीं आकर अटक जाता था. वह तो मेरे छोटे-से कस्बे की तारी़फें और वहां के माहौल की बातें सुनकर अपर्णा ने मुझे काफ़ी हद तक बदल दिया था. उसने कहा था, “तुम्हारे जैसे लोग पढ़ने-लिखने बड़े शहरों के कॉलेज और हॉस्टल में आते हैं. नौकरी उससे भी बड़े शहर में ढूंढ़ते हैं. इन शहरों में पैसा कमाते हैं, ऐश करते हैं, लेकिन बातें टूटे-फूटे घरों, फटे कपड़ों और गिरवी पड़े खेतों की ही करते हैं. तुम भी वैसे ही हो. यहां रहकर यहां की कितनी बुराइयां करते हो. अरे, हम लोग तुम्हारे गांव-कस्बों की पैरवी नहीं करते तो गालियां भी तो नहीं देते. यहां रहकर अमीरों को कोसने से अच्छा है कि उन ग़रीबों के लिए वाकई कुछ करो, जिनकी स़िर्फ बातें ही करते हो.”

मैं उसका मुंह देखता रह गया. मैंने तो बड़े जोश से बोलना शुरू किया था, उसे इम्प्रेस करने के लिए. वह ठीक ही तो कह रही थी. आगे से मैंने ऐसी बातें करना बंद कर दिया था. अब उन लोगों से भी झगड़ा हो जाता था, जो ऐसी भाषणबाजी करते थे.

– अनिता सभरवाल

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