कहानी- धुंधलका 3 (Story Series- Dhundhlka 3)

चाय पीकर वह मेरे एकदम पास बैठ गई. उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और मेरे कंधे से सिर टिकाकर बैठ गयी. मैंने उसे अपनी बांहों में भर लिया. कभी उसका हाथ तो कभी बाल सहलाता रहा. तभी मैं उठने लगा तो वह लिपट गयी मुझसे. पिंजरे से छूटे परिंदे की तरह. एक अजीब-सी बेचैनी दोनों महसूस कर रहे थे. मैंने उसे हल्के से चूम लिया और घर आ गया. मैं बदल गया था क्या? सारी रात सुबह के इंतजार में काट दी.

“सुनो, मैंने स़िर्फ तुम्हें ही बुलाया है. मेरा मतलब ऑफ़िस में से. और एक नवनीता को. नवनीता को तो खैर आना ही है. वह नहीं तो बर्थ डे नहीं.” मेरी उत्सुकता चौकन्नी हो गयी थी. उसकी चमकती आंखों में क्या था, मेरे प्रति भरोसा या कुछ और? क्यों सिर्फ मुझे ही बुलाया है? उसे लेकर अतुल सिन्हा से झगड़ा भी कर बैठा.

“क्यों, पटा लिया तितली को?” कितने गंदे तरीके से कहा था उसने.

“किसकी और क्या बात कर रहे हो?”

“उसकी, जिससे आजकल बड़ी घुट-घुटकर बातें हो रही हैं. वही जिसने स़िर्फ तुम्हें दावत दी है. गज़ब की चीज़ है न?”

बस बात तो बढ़नी ही थी और अच्छे-खासे झगड़े में भी बदल गई थी. मैं यह सब न चाहता था, न ही कभी मेरे साथ यह सब हुआ था. ख़ुद पर ही शर्म आ रही थी मुझे. मैं सोचता रहा, हैरान होता रहा कि यह सब क्या हो गया. क्यों बुरा लगा मुझे? ख़ैर, इन सारी बातों के बावजूद मैं गया था. नवनीता की मदद से कोयल के लिए ड्रेस ख़रीदी थी. उसी ने बताया था कि इस जन्मदिन पर पंद्रह साल की हो जाएगी वह. मेरी आंखों के सामने मेरी बेटी का चेहरा आ गया. वह भी तो इसी उम्र की है.

मैंने देखा था कि कोयल के दोस्तों के अलावा मैं और नवनीता ही आमंत्रित थे. नवनीता को तो होना ही था, बस मैं ही था. अच्छा भी लगा और अजीब भी.थोड़ी देर बाद पूछा था मैंने, “कोयल के पापा कहां हैं?”

“हम अलग हो चुके हैं. उन्होंने दूसरी शादी भी कर ली है. मैं अपनी बिटिया के साथ रहती हूं.”

कायदे से, अपनी मानसिकता के हिसाब से तो मुझे यह सोचना चाहिए था कि तलाक़शुदा औरत और ऐसे रंग-ढंग? कहीं कोई दुख-तकलीफ़ नज़र नहीं आती. ऐसे रहा जाता है भला? जैसे कि तलाक़शुदा या विधवा होना कोई कसूर हो जाता है और ऐसी औरतों को रोते-बिसूरते ही रहना चाहिए. लेकिन यह जानकर पहली बात मेरे मन में आई थी कि तभी इतना कॉन्फ़ीडेंस है. आज के व़क़्त में अकेले रहते हुए अपनी बच्ची की इतनी सही परवरिश करना वाकई सराहनीय बात है. वह मुझे और ज़्यादा अच्छी लगने लगी, बल्कि इ़ज़्ज़त करने लगा मैं उसकी. एक और बात भी आई थी मन में कि ऐसी ख़ूबसूरत और अक्लमंद बीवी को छोड़ने की क्या वजह हो सकती है.

अब मैं उसके अंदर की अपर्णा तलाशने में लग गया. उसके जिस्म का आकर्षण ख़त्म तो नहीं हुआ था, पर मैं उसके मन से भी जुड़ने लगा था. मेरी आंखों की भूख, मेरे जिस्म की उत्तेजना पहले जैसी न रही. हम काफ़ी करीब आते गए थे. मैं उसके घर भी जाने लगा था कभी-कभार. उसने भी आना चाहा था, पर मैं टालता रहा. अब उसे लेकर मैं पहले की तरह नहीं सोचता था. मैं उसे समझना चाहता था.

एक शाम को कोयल का फ़ोन आया था, “अंकल, मां को बुखार है, नवनीता आंटी हैं नहीं शहर में. आप आ सकते हैं क्या?” चार-पांच दिन लग गए थे उसे ठीक होने में. मैं अच्छी तरह से उसकी देखभाल करता था और वह मना भी नहीं करती थी. हम दोनों को ही अच्छा लग रहा था. इस दौरान कितनी बार मैंने उसे छुआ. दवा पिलाई. सहारा देकर उठाया-बिठाया, लेकिन मन बिल्कुल शांत रहा.

उस दिन वह काफ़ी ठीक लग रही थी. मेरे आने पर उसी ने चाय बनाई. चाय पीकर वह मेरे एकदम पास बैठ गई. उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और मेरे कंधे से सिर टिकाकर बैठ गयी. मैंने उसे अपनी बांहों में भर लिया. कभी उसका हाथ तो कभी बाल सहलाता रहा. तभी मैं उठने लगा तो वह लिपट गयी मुझसे. पिंजरे से छूटे परिंदे की तरह. एक अजीब-सी बेचैनी दोनों महसूस कर रहे थे. मैंने उसे हल्के से चूम लिया और घर आ गया. मैं बदल गया था क्या? सारी रात सुबह के इंतजार में काट दी.

यह भी पढ़ेप्यार, सेक्स, कमिटमेंट… कितना बदला रिश्ता! (Love, Sex, Commitment- Changing Concepts Of Relationship)

सुबह अपर्णा ऑफ़िस आई थी. बदली-बदली-सी लगी वह. कुछ शर्माती-सी, कुछ ज़्यादा ही ख़ुश. उसके चेहरे की चमक मुझे बता रही थी कि उसके मन की ज़मीन को छू लिया है मैंने. मुझे समझ में आ रही थी यह बात, यह बदलाव. अपर्णा से मिलकर मैंने यह भी जाना था कि कोई भी रिश्ता मन की ज़मीन पर ही जन्म लेता है और पनपता है. स़िर्फ देह का देह से रिश्ता रोज़ जन्म लेता है और रोज़ दफ़न भी हो जाता है. रोज़ दफनाने के बाद रोज़ कब्र से से कोई कब तक निकालेगा उसे. इसलिए जल्दी ही ख़त्म हो जाता है यह… कितनी ठीक थी यह बात. मैं ख़ुद ही मुग्ध था अपनी इस खोज से.

फिर मन से जुड़ा रिश्ता देह तक भी पहुंचा था. कब तक काबू रखता मैं ख़ुद पर. अब तो वह भी चाहती थी शायद. उसका बदन तो जैसे बिजलियों से भर गया था. अधखुली आंखें, तेज़ सांसें, कभी मुझसे लिपट जाती, तो कभी मुझे लिपटा लेती. यहां-वहां से कसकर पकड़ती अपर्णा जैसे आंधी हो कोई, या कि बादलों से बिजली लपकी हो और बादलों ने झरोखा बंद कर लिया अपना, आज़ाद कर दिया बिजली को. कैसे आज़ाद हुई थी देह उसकी. कोई सीपी खुल गयी हो जैसे और उसका चमकता मोती पहली बार सूरज की रोशनी देख रहा हो.

– अनिता सभरवाल

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