कहानी- दूसरा वर 3 (Story Series- Dusara Var 3)

“अम्मा से तुम जो बातें कर रही थीं, सुनकर शादी से मेरा विश्‍वास उठ गया. शादी के समय तुम्हारे मन में जो भी था, पर भइया के इतने अपनेपन को देखकर तुम्हारी धारणा में बदलाव नहीं आना चाहिए था? अधेड़, बदसूरत… भइया में इतने गुण हैं, पर तुम इस मामूली बात पर अटकी हो कि वे ख़ूबसूरत नहीं हैं? तुम तो बहुत ख़ूबसूरत हो, पर दिल साफ़ नहीं है, तो ख़ूबसूरती किस काम की? कपट तो हम लोगों के साथ हुआ है. सोचता था तुमने भइया का जीवन परिपूर्ण कर दिया है. उनकी भावनाओं को समझती हो. सब ढोंग. भैया हमेशा मुझसे कहते हैं कि मुझे फुर्सत नहीं मिलती, संयम तुम अपनी भाभी का ख़्याल रखा करो. मैंने तुम्हें इतना मान-सम्मान दिया, ख़्याल रखा…’’

अब तक का सबसे भीषण सदमा. इस तरह चीखकर अभद्रता दिखाते हुए जानकी पहली बार बोल रही है, “पागल हुए हो?”

“उसी दिन पागल हो गया था, जब मैथिली को पहली बार देखा था.”

“मैथिली प्रेम-वेम पसंद नहीं करती.”

“उसका समर्थन है. कह रही थी तुम्हारा सामना नहीं कर सकेगी, इसलिए जब वह करारी चली जाए, तब मैं तुमसे बात करूं.”

जानकी रो देगी.

“देखती हूं संयम तुम्हारे भइया क्या कहते हैं?”

जानकी आत्मयंत्रणा से गुज़र रही है. जिसे पहली नज़र में दिल दे दिया, वह मैथिली के नाम की लौ जलाए बैठा है. मैथिली कितनी घाघ है. मेरी स्थिति जानती है, फिर भी… ज़रूर अम्मा ने भेजा होगा कि संयम पर मोहिनी डाले. एक और लड़की के हाथ सस्ते में पीले हो जाएं. मैथिली ने ऐसी मोहिनी डाली… नहीं, मुझे मनचाहा नहीं मिला, मैं मैथिली को मनचाहा नहीं पाने दूंगी.

जानकी को रातभर नींद नहीं आई. ख़ुद को असहाय, उपेक्षित पा रही है. संभव की संगत नहीं चाहती, पर वे अपनी भलमनसाहत में उसके समीप आना चाहते हैं. संयम की संगत चाहती है, पर वह पकड़ से छूटता जा रहा है. अब उसके व्यवहार में रोमांच नहीं कपट का आभास होता है. पहले दिन से ही मैथिली को पाने की योजना बना रहा था. योजना सफल हो, इसलिए भाभी… भाभी… कहकर उसकी ख़ुशामद करता रहा.

जानकी निराशा, ईर्ष्या, क्रोध, बौखलाहट से गुज़र रही थी. अम्मा का फोन बौखलाहट को पराकाष्ठा पर ले आया.

“जानकी, मैथिली ने सब समाचार बताया. तुमको लेकर वह बड़े संकोच में है, पर संयम उससे शादी करना चाहता है. हमारे तो भाग्य जाग गए. दोनों बहनें मिल-जुल कर रहोगी. बाबूजी इतवार को डॉक्टर साहब से बात करने आएंगे.”

जानकी बौखलाहट में ललकारने लगी, “अम्मा, तुमने मैथिली को जान-बूझकर पढ़ने के बहाने मेरे घर भेजा कि संयम पर मोहिनी डाले. संयम, मोहिनी की चाल में फंस गया. क्षीण बुद्धि डॉक्टर साहब को क्या कहूं? संयम उनके दिमाग़ में इतना घुस गया है कि उसकी ख़ुशी के अलावा इन्हें कुछ नहीं सूझता.”

“नहीं…”

“मैं बोलूंगी अम्मा. तुम्हें मैथिली का बड़ा ख़्याल है. मुझे धोखे में रखकर अधेड़, बदसूरत के साथ बांधा, तब मेरा ख़्याल नहीं आया था? जब ये दोनों भाई मुझे देखने आए थे, मैंने डॉक्टर साहब को चाचा, संयम को डॉक्टर साहब समझ लिया था. तुम जानती थी असलियत क्या है, लेकिन मुझे नहीं बताया. मेरे साथ कपट किया.”

“नहीं बेटी…”

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“मैं बोलूंगी अम्मा. मैं अब भी सदमे से उबर नहीं पाई हूं. अच्छी चाल चली तुम लोगों ने. मेरा दिमाग़ ख़राब है. इस विषय में मुझसे बात न करना.”

जानकी ने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया. ठीक इसी क्षण स्वर उभरा, “भाभी…”

जानकी के कान बज रहे हैं या संयम कचहरी से लौट आया है?

बैठक में बैठी, तेज़ आवाज़ में अम्मा को ललकार रही जानकी को आभास नहीं था कि ज़रूरी फाइल लेने के लिए अचानक आ पहुंचा संयम उसकी कटुता सुनकर बैठक से लगे बाहरी खुले बरामदे में ठिठका खड़ा है. इसके आने की आहट नहीं मिली या दबी चाप से बैठक में दाख़िल हुआ है.

“संयम तुम? जल्दी आ गए.”

“फाइल भूल गया था.”

“पानी पियोगे?”

“हां.”

जानकी को राहत मिली कि संयम ने फोन पर की गई उसकी बातचीत नहीं सुनी. सुनता तो प्रतिक्रिया ज़रूर देता.

लेकिन जानकी महसूस करने लगी है कि संयम बहुत बदल गया है. कुटनी मैथिली करारी क्या गई, संयम की हंसी ले गई.”

“संयम, मैथिली की याद आ रही है?”

“उससे मेरा कोई वास्ता नहीं.”

“शादी नहीं करोगे?”

“नहीं.”

“क्यों?”

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“अम्मा से तुम जो बातें कर रही थीं, सुनकर शादी से मेरा विश्‍वास उठ गया. शादी के समय तुम्हारे मन में जो भी था, पर भइया के इतने अपनेपन को देखकर तुम्हारी धारणा में बदलाव नहीं आना चाहिए था? अधेड़, बदसूरत… भइया में इतने गुण हैं, पर तुम इस मामूली बात पर अटकी हो कि वे ख़ूबसूरत नहीं हैं? तुम तो बहुत ख़ूबसूरत हो, पर दिल साफ़ नहीं है, तो ख़ूबसूरती किस काम की? कपट तो हम लोगों के साथ हुआ है. सोचता था तुमने भइया का जीवन परिपूर्ण कर दिया है. उनकी भावनाओं को समझती हो. सब ढोंग. भैया हमेशा मुझसे कहते हैं कि मुझे फुर्सत नहीं मिलती, संयम तुम अपनी भाभी का ख़्याल रखा करो. मैंने तुम्हें इतना मान-सम्मान दिया, ख़्याल रखा…

छी… छी…”

“संयम सुनो तो…”

“तुम सुनो. मिस मैच होगा सोचकर भइया शादी का मन नहीं बना रहे थे. मैं अड़ गया, मुझे तुम बहुत अच्छी लगी हो. अफ़सोस, मैं ग़लत था.”

“सुनो तो…”

“तुम सुनो. मैं मानता हूं कि भइया जैसे इंसान के लिए जो अच्छे विचार नहीं रखता, वह अच्छा नहीं हो सकता. भइया मेरे लिए क्या हैं, तुम नहीं समझोगी… मेरे लिए उनसे बढ़कर कुछ नहीं है. न तुम, न मैथिली.”

“संयम…”

“मैंने तुम्हारे भीतर का कालापन देख लिया, पर भइया को मत दिखाना. वे तुम पर विश्‍वास करते हैं. उन्हें तकलीफ़ होगी. उनके सामने मेरे साथ सहज व्यवहार करती रहना. मैं भी नाटक करता रहूंगा. नहीं करूंगा, तो भइया को कारण क्या बताऊंगा.”

संयम वहां से चला गया.

जानकी आत्मयंत्रणा से गुज़र रही है. संयम की आंखें सुलग रही थीं. शब्द लड़खड़ा रहे थे. कितना अपमानजनक है भाभी… भौजाई… रटनेवाले जिस देवर ने एक दिन दूसरा वर होने जैसी बात की थी. आज उसे भाभी कहने से भरपूर बच रहा था.

    सुषमा मुनीन्द्र

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