कहानी- एक और एक ग्यारह 3 (Story Series- Ek Aur Ek Gyarh 3)

इस तरह हुई पूर्वा की नीलम के भाई से पहली मुलाक़ात.
पूर्वा का गौर वर्ण, लम्बा क़द और तीखे नैन-नक़्श. कोई भी उसकी ओर आसानी से आकर्षित हो सकता था. यही चेहरा, तो उसके साथ घटे हादसे का मुख्य कारण भी था. पर अब उस चेहरे पर सदैव उदासी का लेप चढ़ा रहता था. वह कम ही बोलती और हंसी-मज़ाक़ होने पर भी ख़ामोश बैठी रहती. नवीन का कभी उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं गया. वह उसकी बहन की सहेली है, यही सोचकर चुप रहा.

 

 

 

 

… मनोविज्ञान की छात्रा नीलम को लगा कि पूर्वा के भय का कारण एक दु:स्वप्न मात्र नहीं, कहीं बहुत गहरा है. जानती थी कि बात करने से वह बेहतर महसूस करेगी, अत: उसने पूर्वा से कहा, “यदि चाहो तो तुम अपनी परेशानी मुझे बता सकती हो. बात कह देने से मन का बोझ उतर जाता है और अच्छा लगता है. कौन जाने कोई हल ही सूझ जाए… इस बात का विश्‍वास रखो कि तुम्हारी बात मेरे मुख से बाहर कभी नहीं निकलेगी.”
अपना दर्द अपने भीतर समेटे थक चुकी थी पूर्वा. इस कठोर और ज़ालिम दुनिया में स्वयं को एकदम अकेला महसूस कर रही थी. उसके भीतर क्रोध और दुख दोनों थे. मन में गहरा आघात, पर मुंह सिल कर रखने का हुकुम. ज़ुल्म उसके साथ हुआ है और दंड भी उसी को मिल रहा है. इस बात पर जैसे विश्‍वास करना कठिन था उसके लिए. जबकि अपराधी खुलेआम घूम रहा था. दंड की बात तो छोड़ो, उसके मुख पर तो शायद एक काला टीका भी किसी ने नहीं लगाया होगा.
विजयी योद्धा.
नीलम की आत्मीयता देख पूर्वा ने पूरी बात कह सुनाई.

 

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“सबसे बड़ा दुख इसी बात का है कि दुख की इस बेला में मैं अपनों द्वारा ही दूर कर दी गई, परिवारवाले जो मेरा सहारा बन सकते थे, उन्होंने ही मुझे घर से निष्कासित कर दिया था. मेरा दर्द बांटने की बजाय मेरा साथ छोड़ दिया.”
नीलम से विस्तारपूर्वक बात करते हुए एक बार फिर से उसी हादसे से गुज़री पूर्वा, पर कहकर मन हल्का ज़रूर हो गया. दुख बांट कर आधा न हुआ हो, कुछ कम तो अवश्य हो गया था.
नीलम ने अपनी सखी को उस खोल से जो उसने स्वयं ही अपने चारों ओर ओढ़ रखा था, उससे बाहर लाने का निर्णय लिया. यह हादसा तो किसी के साथ भी हो सकता है, तो क्या आज भी पिछली सदी की तरह लड़कियों को घर की चारदीवारी में क़ैद करके रखना होगा?
बातूनी और मिलनसार होने के कारण नीलम की सहेलियों का लंबा-चौड़ा दायरा था. कॉलेज में भी और हॉस्टल में भी. कभी वह उन्हें अपने कमरे में बुला लेती और कभी बहाने से पूर्वा को अपने संग उनके कमरे में ले जाती. कभी बाज़ार और कभी किसी सहेली के घर जाने का कार्यक्रम बनाए रखती. वह उसमें फिर से जीने का उत्साह जगाना चाहती थी. न वह अकेली बैठेगी और न ही पुरानी यादों में भटकेगी.
नीलम का बड़ा भाई नवीन मुंबई में ही मेडिकल करके अब एमडी कर रहा था. उसे जब समय मिलता, बहन से मिलने आ जाता. उनका वार्षिक उत्सव होनेवाला था, जिसमें वह भी वायलिन बजा रहा था. उसने अपनी बहन को निमन्त्रित किया, तो उसने पूर्वा को भी संग लाने की इच्छा जताई. उत्सव समाप्त होने तक दस बज गए. मुंबई में यद्यपि रात्रि में सुरक्षा की समस्या उतनी नहीं है, पर अपने कर्त्तव्यबोध से बंधा नवीन रात को देर होने पर अपनी बहन को स्वयं हॉस्टल पहुंचा कर आता था.
तो इस तरह हुई पूर्वा की नीलम के भाई से पहली मुलाक़ात.
पूर्वा का गौर वर्ण, लम्बा क़द और तीखे नैन-नक़्श. कोई भी उसकी ओर आसानी से आकर्षित हो सकता था. यही चेहरा, तो उसके साथ घटे हादसे का मुख्य कारण भी था. पर अब उस चेहरे पर सदैव उदासी का लेप चढ़ा रहता था. वह कम ही बोलती और हंसी-मज़ाक़ होने पर भी ख़ामोश बैठी रहती. नवीन का कभी उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं गया. वह उसकी बहन की सहेली है, यही सोचकर चुप रहा.

 

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एक बार नीलम ने पृथ्वी थियेटर पर लगे हास्य व्यंग्य नाटक देखने की फ़रमाइश की. नवीन का मन हुआ बहन से कहे, ‘उस मनहूस शक्लवाली को मत लाना.’ अच्छा हुआ कि कहा नहीं, क्योंकि पूर्वा के लिए ही तो नीलम ने यह कार्यक्रम बनाया था.
नाटक मज़ेदार था. सब ओर उन्मुक्त ठहाके लग रहे थे. हंसते हुए एक बार नवीन की निगाह पूर्वा की ओर उठी, तो उसने पाया एक दबी-सी मुस्कुराहट उसके चेहरे को अति सुन्दर बना रही है.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें

उषा वधवा

 

 

 

 

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Usha Gupta

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