कहानी- एक महानगर की होली 5 (Story Series- Ek Mahanagar Ki Holi 5)

“चलो भई, आज की होली सफल हुई और हमें सीखा गई कि अगर हम साल में एक दिन सामनेवाले का बैकग्राउंड, जाति-धर्म, स्टेटस भूलकर एक रंग में रंग सकते हैं, सबके साथ मिलकर ख़ुशियां मना सकते हैं, तो रोज़ क्यों नहीं…”

 

… “भई बुरा मत मानना शाहनवाज भाई, सोसायटी में एक-दो पुरानी मुस्लिम फैमिली हैं, जिनके यहां हम शुरु-शुरु में होली के लिए बुलाने गए, मगर उन्होंने हमें ऐसे दुत्कारा जैसे हमने कोई बड़ा गुनाह कर दिया हो, उसी इंप्रेशन में शायद…” शर्माजी ने अपना पक्ष रखा.
“यही तो गौर करनेवाली बात है शर्माजी, एक-दो के व्यवहार से हम पूरी कौम के बारे में एक पुख्ता राय कायम कर लेते हैं. हम जान-पहचान के लोगों के साथ तो इतने इफ एंड बट, इतने शको-शुबाह के साथ पेश आते हैं, मगर अनजानों से बड़ी सहजता से खेल लेते हैं. अगर आज आप सब मुझे पहले ही पहचान लेते, तो मेरे साथ इस रंग में यूं शामिल न होते.. या मुझे अपने साथ शामिल होने का मौक़ा न देते… कहीं न कहीं मेरा मजहब आड़े आ ही जाता…” इस बात पर सभी चुप होकर गंभीर हो गए.
“यह तो सही कह रहे हो तुम…” शाहनवाज का हमउम्र नेक्सट डोर नेबर संदीप भोसले बोला, “इंसान के पहनावे या सरनेम को देखकर और कुछ सुनी-सुनाई बातों के आधार पर हम अपने मन में उसकी एक इमेज बना लेते हैं और फिर जब भी वह इंसान सामने आता है, तो उसे देखने की बजाय हमेशा उसी इमेज को देखते हैं. हमारा सारा व्यवहार उस इमेज के साथ चलता है, उस इंसान के साथ नहीं… मेरे मन में भी कुछ ऐसा ही था. दिवाली पर मैंने बार-बार सोचा, सबको मिठाई बांटी है तुम्हारे घर पर भी दूं, मगर पता नहीं क्यों कदम नहीं बढ़े… सोचा, पता नहीं तुम्हारा कैसा रेस्पांस हो, पर अब आगे से ऐसा नहीं होगा.”
शाहनवाज हंसा, “जी शुक्रिया, मैं इंतज़ार करूंगा… दरअसल, हिचक दोनों ओर से ही होती है. ऐसे में यदि कोई एक भी कदम बढ़ा दे, तो दूरियां कम हो जाती हैं. आज मैंने यही कदम बढ़ाया है… वैसे गुडीपडवा पर आपके घर से बड़ी अच्छी ख़ुशबू आ रही थी, मैं और मेरी बेगम कयास लगा रहे थे कि क्या बना होगा..?” सुनकर सब हंसने लगे, तो भोसले शरमा गया.
“महक तो हमें भी हर रविवार आती है, बिरयानी की… इतनी कि लार टपकने को तैयार हो जाती है.. बीवी से कई बार कहा, ज़रा रेसिपी पता करो.. मगर वो सुनती ही नहीं..”
“उसकी ज़रूरत नहीं है, इस रविवार आप हमारे यहां बिरयानी की दावत पर आइए और ख़ूब खाइए.” शाहनवाज का न्यौता पाकर भोंसले की आंखें चमक गई.

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“चलो भई, आज की होली सफल हुई और हमें सीखा गई कि अगर हम साल में एक दिन सामनेवाले का बैकग्राउंड, जाति-धर्म, स्टेटस भूलकर एक रंग में रंग सकते हैं, सबके साथ मिलकर ख़ुशियां मना सकते हैं, तो रोज़ क्यों नहीं…”
“सही पकड़े हैं, शर्माजी…”, मालती आंटी ने जिस अंदाज़ में कमेंट किया, उसे सुनकर सबके बरबस ठहाके निकल पड़े. उन ठहाकों के साथ आज सोसायटी का गार्डन भी खिलखिला उठा, उसका आंगन आज पहली बार फगुआ के असली रंग में जो रंगा गया था.


दीप्ति मित्तल

 

 

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Usha Gupta

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