मुझे बहुत ग़ुस्सा आ रहा था, इस ज़रा-सी घटना को इतना तूल क्यों दिया जा रहा था? मैंने सिंदूर समझकर तो डाला नहीं था. चलो, सिर में ग़लती से पड़ भी गया, तो ये एक एक्सिडेंट था, इसको शादी थोड़ी मान लेंगे!
थोड़ी देर दिमाग़ में उठा-पटक चलती रही, फिर मैंने भाभी से कह दिया, “मेरे मन में इस तरह की रत्तीभर भी फीलिंग नहीं है भाभी. इस बात को यहीं ख़त्म कीजिए.”
… वो एक पल ठहरकर, तेजी से बाहर भाग गई थी.
मुझे लगा वो भी शायद पलटकर मुझे रंग लगाएगी, लेकिन वो दिखी ही नहीं. सामने ही नहीं पड़ी. तब भी नहीं सामने आई, जब हम लोग उस शाम वहां से निकल रहे थे. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि रंग लगाने से वो इतना क्यों चिढ़ गई थी? मेरे इस सवाल का जवाब मुझे उस दिन तो नहीं मिला, लेकिन दो दिन बाद मिल गया था. मैं कोचिंग से वापस आया, तो भाभी बहुत गुस्से में थीं, मुझे बहाने से रसोई में बुलाया और बिफर पड़ीं, “जो गांव में हुआ होली पर, हमको आज मालूम हुआ विनीता से. तुम पहले नहीं बता सकते थे?”
मैं सोच में पड़ गया था, क्या हुआ था? क्या पहले नहीं बताया? मैंने उनसे ही पूछा, “ऐसा क्या हुआ था? अच्छा, वो जो रंग लगा दिया था, वो ग़ुस्सा है ना इस बात पर?”
भाभी मुझे घूरते हुए बोलीं, “तुम पगला गए हो क्या? वो रंग नहीं था, सिंदूर था.”
भाभी की बात सुनकर मुझे जैसे करंट लग गया था! ये हो ही नहीं सकता… वो तो रंग था, मतलब रंग जैसा कुछ… मुझे घबराहट होने लगी थी, मतलब वो रंग जैसा कुछ सिंदूर था? ये मैं कभी सोच भी नहीं सकता था! अगर भाभी के मायके में ये बात किसी को पता चल गई, तो मेरे हाथ-पैर बांधकर मेरी शादी वहां करवा दी जाएगी, मुझे पता था. विनीता से मुझे बात करना अच्छा लगता था. अच्छी लगती थी मुझे, लेकिन शादी तक नहीं सोचा था. थोड़ी देर चुप रहने के बाद मैंने हिम्मत बटोर कर कहा, “प्लीज़ भाभी, ये बात हम दोनों तक ही रहे तो ठीक है, दोनों घरों में न पता चले. मेरी तरफ़ से आप विनीता को सॉरी बोल दीजिएगा.”
भाभी इस बात से थोड़ी और नाराज़ हो गई थीं, “घर में नहीं पता है, लेकिन तुम अभी भी बात को समझ नहीं रहे हो क्या अनूप? वो सीरियस हो गई है इस रिश्ते को लेकर!”
भाभी का चेहरा देखकर मुझे लगा, विनीता भले ना हुई हो ये ज़रूर सीरियस हो गई थीं इस बात को लेकर!
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मुझे बहुत ग़ुस्सा आ रहा था, इस ज़रा-सी घटना को इतना तूल क्यों दिया जा रहा था? मैंने सिंदूर समझकर तो डाला नहीं था. चलो, सिर में ग़लती से पड़ भी गया, तो ये एक एक्सिडेंट था, इसको शादी थोड़ी मान लेंगे!
थोड़ी देर दिमाग़ में उठा-पटक चलती रही, फिर मैंने भाभी से कह दिया, “मेरे मन में इस तरह की रत्तीभर भी फीलिंग नहीं है भाभी. इस बात को यहीं ख़त्म कीजिए.”
कुछ दिन बीत चुके थे, मुझसे कोई इस बारे में बात नहीं कर रहा था. मेरे लिए तो वो बात ख़त्म ही हो चुकी थी, लेकिन अपनी मौजूदगी कहीं न कहीं छोड़ गई थी. कभी मां-पापा भाभी के गांव का ज़िक्र छेड़ देते या विनीता के बारे में भाभी से कुछ पूछने लगते, तो मेरे मन का चोर चौकन्ना हो जाता और हर आहट पर चौंक जाता… जैसे उस दिन मां और भाभी की बात सुनकर मैं ठिठक गया था, विनीता यहां आ रही थी कोई एग्ज़ाम देने. मां भाभी पर नाराज़ हो रही थीं,
“सहेली के यहां काहे रुकेगी विनीता? यहीं बुलाओ चुपचाप. बताओ, घर होते हुए बहन को सहेली के यहां रुकवा रही हो.”…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
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