कहानी- एक सपने का सच होना 1 (Story Series- Ek Sapne Ka Sach Hona 1)

“क्या मैं भी इस हंसी में शामिल हो सकता हूं?” अपने एकांत को किसी को भेदते देख वह चौंक उठी.

“नहीं-नहीं, घबराइये नहीं. आपको अकेला देखकर समय काटने के लिए सोचा, किसी का साथ भी क्या बुरा है.”

नज़रें घुमाकर उसने पीछे देखा, एक आदमी पेड़ की छांव में आराम से लेटा हुआ था. उसके चेहरे से लगता था कि वह अभी सोकर उठा है. अपनी तन्मयता में शायद अपने आस-पास देखना उसने मुनासिब ही नहीं समझा होगा, तभी नज़र नहीं पड़ी थी.

उसने एक लंबी सांस ली. नदी का शांत जल उसके चारों ओर फैला था. नदी का पानी भी कितनी तटस्थता से अपने कार्य का निर्वाह करता जाता है. अपने भीतर सारी गंदगी समेट कर अपने तट पर बैठे लोगों के जीवन की सुख-दुख की गाथा सुनता हुआ निर्विकार रूप से बहता रहता है. घास पर बैठते हुए उसने देखा, दो रंग-बिरंगी तितलियां हवा में तैर रही हैं. इतने क़रीब उसने तितलियों को पहले कभी नहीं महसूस किया था. इन छोटी-छोटी बातों के लिए समय निकालना भी बहुत कठिन हो जाता है कई बार. पानी पर पड़ती अपनी हिलती-डुलती परछाईं से कुछ सुनने की एक पागल-सी चाह मन में उठी. शायद वह कह सके कि यह चेहरा सुंदर है, आकर्षक है,  इसे देखते ही हाथों में भर प्यार करने को दिल करता है… पलभर को एक मुस्कान उसके होंठों को छू गई, पर अगले ही पल वह गहरी ख़ामोशी में डूब गई. अब कौन है जो ऐसा कहकर उसे बांहों में भर लेगा और उसकी छुअन नस-नस में जुंबिश पैदा कर देगी. नहीं, वह नहीं सोचेगी ये सब. उसका गंभीर रहना पसंद भी कहां था उसे. हमेशा हंसते-खिलखिलाते हुए देखना चाहता था वह उसे. इसी ख़याल से वह ज़ोर से खिलखिला उठी.

“क्या मैं भी इस हंसी में शामिल हो सकता हूं?” अपने एकांत को किसी को भेदते देख वह चौंक उठी.

“नहीं-नहीं, घबराइये नहीं. आपको अकेला देखकर समय काटने के लिए सोचा, किसी का साथ भी क्या बुरा है.”

नज़रें घुमाकर उसने पीछे देखा, एक आदमी पेड़ की छांव में आराम से लेटा हुआ था. उसके चेहरे से लगता था कि वह अभी सोकर उठा है. अपनी तन्मयता में शायद अपने आस-पास देखना उसने मुनासिब ही नहीं समझा होगा, तभी नज़र नहीं पड़ी थी. बदरंग जींस और लाल रंग की टी-शर्ट पर बहुत ही शानदार कैप लगा रखी थी और स्पोर्ट्स शूज़ पहने हुए थे.

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“नहीं, मैं घबरा नहीं रही हूं, लेकिन आप…”

“बस ऐसे ही थककर सो गया था.” उसकी आवाज़ की कंपन बता रही थी कि वह भूखा है.

“आप कुछ खाएंगे?” उसने बैग में से खाने का सामान निकालते हुए पूछा.

“नहीं, ठीक है.” संकोच था स्वर में.

“लीजिए.” उसने एक प्लेट में रोटी-सब्ज़ी निकालकर रख दी. वह एक-एक निवाला तोड़कर खाने लगा.

“नाम क्या है तुम्हारा?” उसने अपनेपन से पूछा.

“क्यों जानना चाहते हैं आप?”

“बस ऐसे ही.” वह अचकचा गया था. “किसी अपरिचित को पुकारने के लिए संबोधन या नाम की आवश्यकता तो होती ही है.” उसने स्पष्टीकरण दिया.

“लेकिन मैं आपसे परिचित नहीं होना चाहती और फिर क्या हर अनजान व्यक्ति परिचित बने यह ज़रूरी है?” अपने स्वर के ठंडेपन से वह वाकिफ़ थी.

“कमाल की लड़की हो, संवेदना भी है और रूखापन भी.”

   सुमन बाजपेयी

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