‘नित्या भी नहीं है…’ यामिनी की कही अधूरी बात मन ही मन पूरी की, तो एक कसक उभर आई.
पहला मौक़ा था जब नित्या होली में नहीं है… पिछले साल तो वह शादी के बाद की पहली होली मनाने आ गई थी. होली का त्योहार बेटी हर साल ही मायके में मनाए ऐसा कोई रिवाज़ या सामाजिक बंदिश क्यों नहीं है…
… “देखा… की न साहित्यकारोंवाली बात… कौन सोच सकता है कि हर साल होली में कोई न कोई लेख-विचार, कविता-कहानी लिखनेवाले पापा को रंगों से एलर्जी है…” नित्या के छेड़ने पर नैतिक हंसे और फिर रसोईं में झांका, तो देखा यामिनी गुझिया तल रही थी.
“नित्या का फोन है…”
“अरे, अभी नहीं बात कर सकती… उससे बोलो करती हूं थोड़ी देर में…”
नैतिक नित्या से कुछ कहते उससे पहले ही वह बोली, “हां-हां सुन लिया… मैं इंतज़ार करूंगी…”
कहते हुए उसने फोन काट दिया.
“सुनो, जरा एक पैकेट गुलाल ले आना…”
“सिर्फ़ एक पैकेट…” नैतिक ने विस्मय से पूछा.
“और क्या… ज़्यादा लेकर क्या करेंगे… इस बार तो…”
‘नित्या भी नहीं है…’ यामिनी की कही अधूरी बात मन ही मन पूरी की, तो एक कसक उभर आई.
पहला मौक़ा था जब नित्या होली में नहीं है… पिछले साल तो वह शादी के बाद की पहली होली मनाने आ गई थी. होली का त्योहार बेटी हर साल ही मायके में मनाए ऐसा कोई रिवाज़ या सामाजिक बंदिश क्यों नहीं है… सोच-विचार में डूबे नैतिक गुलाल लेने छोटे चौराहे के पास आए. आस-पास अबीर-गुलाल की ढेरी और ऊपर टंगी पिचकारियां देखकर नित्या की याद आ गई… छोटी थी तब एक पिचकारी के लिए पूरा बाज़ार घुमा देती थी. पिचकारियां समय के साथ कितनी बदली है. टंकीवाली पिचकारी देखकर नित्या की याद आई. जितनी बड़ी वह ख़ुद नहीं थी, उतनी बड़ी टंकी लेकर घूमती थी.
नित्या की याद से मन अकुला गया… “क्या दूं साब?”
यादों में खोए नैतिक को दुकानदार ने यूं ही चुपचाप खड़े देख टोका, तो वह बोले, “एक पैकेट गुलाल देना…”
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“कौन सा रंग?” दुकानदार ने पूछा.
रंग तो यामिनी से पूछा ही नहीं था… पर अक्सर वह गुलाबी रंग का टीका लगाती थी, तो नैतिक ने गुलाबी रंग की ओर इशारा कर दिया.
“बस एक…” उसने फिर टोका. चटक हरा…नीला… पीला… और लाल… सभी रंग साहित्य के पन्नों से निकलकर दुकानों में सजे दिखे, तो बेसाख्ता मुंह से निकला… “सभी दे दो…”
पैकेट में ढेर सारे रंग देखकर यामिनी झुंझलाती हुई बोली, “इतने सारे क्यों उठा लाए. एक मंगवाया था, पांच-पांच पैकेट क्या करूंगी…”
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