नैतिक ने आंखें बंद की पर नींद नहीं आई. सहसा याद आया कि कल के ब्लॉग के लिए कुछ लिखा नहीं…
और कल तो होली है. विषय विशेष पर लिखना तो ज़रूरी था. नैतिक धीरे से उठे तो यामिनी ने टोका, “क्या हुआ?”
“कल होली है और मैंने ब्लॉग के लिए कुछ लिखा ही नहीं…”
… कोई कुछ भी कहे पर वह होली के रंगों से दूरी बनाए ही रहता. हां, गुलाल का टीका लगवाने का अनुबंध सदा कायम रहा. नैतिक ने यामिनी की ओर करवट ली, तो लगा वो कुछ सोच रही है… शायद नित्या के बारे में… या अपने बारे में… या फिर शायद उसके बारे में…
नैतिक ने आंखें बंद की पर नींद नहीं आई. सहसा याद आया कि कल के ब्लॉग के लिए कुछ लिखा नहीं…
और कल तो होली है. विषय विशेष पर लिखना तो ज़रूरी था. नैतिक धीरे से उठे तो यामिनी ने टोका, “क्या हुआ?”
“कल होली है और मैंने ब्लॉग के लिए कुछ लिखा ही नहीं…”
यह सुनकर यामिनी के चेहरे पर एक अजीब-सी हंसी आई. वो हंसी ही थी या कुछ और… उस ख़्याल को वहीं झटककर नैतिक स्टडीरूम में आ गए. काग़ज़-कलम उठाया… बेतरतीब आतें विचारों को काग़ज़ पर उतारकर टाइप करना उनकी आदत थी. देर तक कलम-काग़ज़ थामें कुर्सी पर सिर टिकाए. कुछ भाव मन में पैदा करने का प्रयास करते रहे, पर सफलता नहीं मिली… जाने क्यों यामिनी की हंसी मन को अकुलाने लगी… मन भटकने लगा… घर में नित्या की अनुपस्थिति और यामिनी का बुझा-बुझा सा चेहरा तिस पर उसकी अजीब-सी हंसी न चाहकर भी उन्हें कुछ ऐसे प्रश्नों की ओर ले जा रहा था, जिन्हें उठाना कभी अच्छा नहीं लगा. ध्यान फिर लेख पर केन्द्रित किया… फाग-टेशू-पलाश… गुलाल… गुलाल से यामिनी का झुंझलाना याद आया… “क्यों उठा लाए इतने सारे पैकेट.. कौन खेलेगा…” यक्ष प्रश्न… नित्या नहीं है और वह होली खेलते नहीं… क्यों नहीं खेलता है वह होली… होली खेलने में कौन-सी रॉकेट साइंस है… सारे प्रश्न एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था से हो गए… नैतिक ने आंखें मूंद ली… नित्या की अनुपस्थिति में यामिनी का बुझा चेहरा उसको अपने मनोविज्ञान को समझने के लिए उद्द्वेलित कर रहा था… बहुत से लोगों को होली खेलना पसंद नहीं, उसे भी नहीं है… ज़रूरी तो नहीं कि इसका कोई मनोवैज्ञानिक कारण ही हो… पर इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कोई मनोवैज्ञानिक कारण हो भी… रंगों के प्रति उनकी विरक्ति का उद्गम कहां से हुआ… इसकी खोज में वह बचपन में पहुंच गए… जब कभी होली के रंग संगी-साथियों की हुडदंग और टोली उसे आकर्षित करती, तो अम्मा कहती, “जा खेल आ होली…”
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“तुम भी तो चलो खेलने…” वह अम्मा से कहते और वह कोई बहाना खोज लेती. अपनी अम्मा को उन्होंने कभी रंग खेलते नहीं देखा उनकी अम्मा को न केवल होली, बल्कि सभी तरह के रंगों से परहेज़ था… एक अकेली स्त्री स्वेच्छा से रंगों से दूर नहीं होती, पर समाज का दबाव और नियम-कायदे ऐसा करने पर मजबूर करते है…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
मीनू त्रिपाठी
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