कहानी- गुलमोहर और बोगनवेलिया 2 (Story Series- Gulmohar Aur Boganveliya 2)

“मुझे नहीं बंधना किसी बंधन में…”

“बंधन में नहीं बंधना मतलब? हे भगवान! कहीं तुम लिव इन… तो नहीं सोच रही.” मां की आंखें फैल गईं.

“अरे नहीं मां, आप भी क्या सोचने लगीं. इतने कच्चे नहीं हैं आपके दिए संस्कार कि आपकी बेटी लिव इन रिलेशन-विलेशन के चक्कर में पड़ जाए. मैं पुरुष के साथ किसी बंधन में ही नहीं बंधना चाहती.” वीथी ने बात स्पष्ट की.

“ऐसा क्यों? लेकिन ये फैसला कैसे लिया तुमने अचानक?” मां आशंकित हो गईं, “कहीं किसी पुरुष ने…”

“अचानक नहीं मां बहुत बचपन से ही तय कर रखा है आपकी स्थिति देखकर.” वीथी झिझकते हुए बोली.

चमकते सूरज को मिटाकर जैसे किसी ने ज़िंदगी के कैनवास पर स्याह रंग पोत दिया हो और वही स्याही वरुण के चेहरे पर उतर आई थी. वीथी पहले की तरह ही खुले मन से बातें कर रही थी, किंतु वरुण का मन क्लांत हो गया था. आज तक जो अपना होकर इतना निकट था, आज इस पल अचानक ही पराया-सा होकर दूर छिटक गया था.

अगले कई दिन वरुण अनमना ही रहा. ऊपर से सारे काम, सबसे मिलना-जुलना, ऑफिस सब कुछ पूर्ववत् सुचारु रूप से चलता रहा, लेकिन मन को भीतर से एक दर्द सालता रहता था. घरवाले निरंतर विवाह की बात कह रहे थे और वह उस तरफ़ से उदासीन हो चुका था. वीथी उसकी

मनःस्थिति समझ रही थी, पर अपने जीवन के अनुभवों की वजह से इस बंधन में न बंधने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध थी. बहुत कच्ची उम्र में ही इस बंधन के प्रति उसके मन में एक उपेक्षा, अनचाहा-सा भाव घर कर चुका था, अपनी मां का जीवन देखकर.

पिता का शासनात्मक रवैया देखकर समस्त पुरुषों की एक वैसी ही छवि उसके कोमल मन पर अंकित हो चुकी थी. पुरुष स़िर्फ शासन करना जानता है, साथ देना नहीं.

और वह किसी के अधीन नहीं रह सकती. विरक्त थी इस ओर से और ख़ुद में ही मगन रहना चाहती थी. भरसक वह पुराने दिनों की तरह वरुण के साथ वही सरल-सहज दोस्ती निभा रही थी. कुछ दिन बीते कि एक सुबह मां का फोन आया, पिताजी की तबीयत ख़राब है, अस्पताल में एडमिट किया है. पिता के लिए उतना नहीं, लेकिन मां अकेली कैसे मैनेज करेगी सोचकर ही वीथी का दिल भर आया. और फिर सच यह भी था कि पिताजी मां के साथ चाहे जैसे भी रहे हों, लेकिन वीथी को तो भरपूर स्नेह-दुलार देकर सिर-माथे रखा है उन्होंने. उसकी हर इच्छा पूरी की है. वीथी चिंतित हो गई. वरुण ने फ़टाफ़ट फ्लाइट की टिकट बुक करवाकर उसे एयरपोर्ट पहुंचाया. रात के साढ़े नौ बजे वह अस्पताल में थी, मां के साथ. पिताजी आईसीयू में थे. हार्ट अटैक आया था, हालत नाज़ुक नहीं थी, लेकिन भविष्य में सावधानी रखना ज़रूरी था. 5-6 दिनों में ही पिताजी घर आ गए. उनकी देखभाल में ही दिन कट जाता. दस-बारह दिनों में उनकी हालत काफ़ी कुछ सुधर गई थी.

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एक दिन दोपहर में जब पिताजी सो रहे थे, तो मां-बेटी बाहर के बरामदे में ़फुर्सत से बातें करने बैठीं. बड़ा खुला-खुला मौसम था. नीली आसमानी चादर पर कढ़े स़फेद रुई से बादल और हरी-भरी डालियों के बेल-बूटों के बीच में उड़ती रंग-बिरंगी तितलियां और मुस्कुराते फूल. आत्मीय बातचीत के बीच ही मां ने आत्मीय-सा विषय छेड़ दिया.

“बुआ ने अपने रिश्ते में एक बहुत अच्छा लड़का देखा है तेरे लिए, फ़िलहाल सिंगापुर में जॉब कर रहा है. फोटो भेजी है. तू भी देख लेना. पसंद हो, तो बुआ को ख़बर करूं आगे बात करने को. मुझे और तेरे पापा को तो अच्छा लगा है.” मां ने बताया.

“कोई ज़रूरत नहीं है और वैसे भी मुझे नहीं करनी शादी. मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊंगी.” वीथी ने ठुनकते हुए कहा.

“ऐसा कहने से तो काम नहीं चलेगा. अकेले तो जीवन काटा नहीं जा सकता. जब मैं नहीं रहूंगी, तब क्या करोगी. ये लड़का पसंद नहीं आया, तो दूसरा सही.” मां ने कहा.

“मुझे नहीं बंधना किसी बंधन में…”

“बंधन में नहीं बंधना मतलब? हे भगवान! कहीं तुम लिव इन… तो नहीं सोच रही.” मां की आंखें फैल गईं.

“अरे नहीं मां, आप भी क्या सोचने लगीं. इतने कच्चे नहीं हैं आपके दिए संस्कार कि आपकी बेटी लिव इन रिलेशन-विलेशन के चक्कर में पड़ जाए. मैं पुरुष के साथ किसी बंधन में ही नहीं बंधना चाहती.” वीथी ने बात स्पष्ट की.

“ऐसा क्यों? लेकिन ये फैसला कैसे लिया तुमने अचानक?” मां आशंकित हो गईं, “कहीं किसी पुरुष ने…”

“अचानक नहीं मां बहुत बचपन से ही तय कर रखा है आपकी स्थिति देखकर.” वीथी झिझकते हुए बोली.

“मेरी स्थिति देखकर? मुझे ऐसा क्या दुख है?” मां बहुत बुरी तरह से चौंक गईं.

“दुख क्या? मैंने क्या देखा नहीं, पापा कितने डिमांडिंग रहे हैं शुरू से. आपकी तो पूरी उम्र उनके पीछे नाचते ही गुज़र गई.” वीथी ने अपने मन की सारी बातें आज खुलकर कह सुनाईं, जो वह बचपन से देखती आई थी.

सुनकर पहले तो मां चकित हुईं, फिर देर तक हंसती रहीं.

डॉ. विनीता राहुरीकर

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