कहानी- जीने की नई राह 2 (Story Series- Jeene Ki Nai Raah 2)

अकेले पुरुष के कम-से-कम पुरुष मित्र तो बन जाते हैं, पर अकेली औरत पुरुष मित्र तो क्या स्त्री मित्र भी नहीं बना पाती… ख़ासतौर पर उसकी तरह ऊंचे ओहदे पर बैठी स्त्रियां… स्वयं को श्रेष्ठ समझने के कारण वे आम स्त्रियों से मित्रता कर ही नहीं पातीं. यदि किसी के साथ मित्रता करना भी चाहती हैं तो उक्त स्त्री के अंदर पनपी ईर्ष्या या अपने पति को खोने का डर मित्रता पनपने ही नहीं देता….

अकेले पुरुष के कम-से-कम पुरुष मित्र तो बन जाते हैं, पर अकेली औरत पुरुष मित्र तो क्या स्त्री मित्र भी नहीं बना पाती… ख़ासतौर पर उसकी तरह ऊंचे ओहदे पर बैठी स्त्रियां… स्वयं को श्रेष्ठ समझने के कारण वे आम स्त्रियों से मित्रता कर ही नहीं पातीं. यदि किसी के साथ मित्रता करना भी चाहती हैं तो उक्त स्त्री के अंदर पनपी ईर्ष्या या अपने पति को खोने का डर मित्रता पनपने ही नहीं देता….

आरती उसे इन सबसे अलग लगी… राज से उसे बात करते देखकर न तो उसके अंदर ईर्ष्या जागृत हुई और न ही कभी मन में कोई कड़वाहट जगी. राज भी सहजता से उससे बातें करता था. कभी ऑफ़िस की तो कभी कॉलेज के दिनों की.. वह भी सदा उनकी हंसी में शामिल होती थी. शायद यही कारण था कि ऑफ़िस से आने के बाद वह कभी बताये या बिना बताये उनके घर पहुंच जाती…. दोनों ही स्थितियों में उसका खुलकर स्वागत होता.

जब उसे पता चला कि आरती सी.ए. है तो उसने उससे कैरियर के बारे में पूछा, तब उसने कहा था, “दीदी, विवाह से पूर्व मैं एक प्राइवेट कंपनी में एकाउन्ट ऑफ़िसर थी, लेकिन राज यहां और मैं वहां… क्या फ़ायदा ऐसी नौकरी से, जब अलग-अलग रहना पड़े… इसलिए मैंने नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लिया…. और आज मुझे अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं है… अभी मेरे लिये अपने कैरियर से ज़्यादा बच्चों की उचित देखभाल एवं परवरिश ज़रूरी है. लेकिन अभी भी आवश्यकता पड़ने पर या राज के बाहर रहने पर ऑफ़िस मैं ही संभालती हूं. काम छोड़ा नहीं है, हां दायित्यों के कारण कुछ कमी अवश्य आई है.”

पति-पत्नी के बीच प्यार विश्‍वास और पारदर्शिता पर निर्भर है. राज ने उसे न केवल अपने अतीत के बारे में सब कुछ बता दिया था वरन् वर्तमान में भी उसके साथ पूरी तरह समर्पित था, तभी उनमें न कोई कुंठा थी और न ही कोई डर.

उसे वह दिन याद आया जब वह राज से मिली थी. इस शहर में आये कुछ ही दिन हुए थे कि उसे अपने सहयोगी पाठक के पुत्र के विवाह के स्वागत समारोह में जाना पड़ा. पार्टी पूरे जोश पर थी. वर-वधू को आशीर्वाद देने के पश्‍चात् खाना खा ही रही थी कि एक जोड़ा उसके सामने आकर खड़ा हो गया. वह कुछ सोच पाती, उससे पहले ही वह व्यक्ति अभिवादन करते हुए बोला, “क्या आपने मुझे पहचाना? मैं आपका सहपाठी…. राज सक्सेना…”

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“ओह, राज…. बहुत बदल गये हो… कैसे हो? क्या कर रहे हो आजकल?” अचानक फ्लैश की तरह सब कुछ सामने आ गया था. राज उसका सहपाठी था… स्कूल से दोनों का साथ रहा. उसकी इच्छा सिविल सेवा में जाने की थी, वहीं राज सी.ए. कर अपनी एक अलग कंपनी खोलना चाहता था, क्योंकि उसे लगता था सिविल सेवाओं में आज योग्यता की नहीं वरन् चापलूसी करने वाले व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो स्थितियों के अनुकूल गिरगिट की तरह रंग बदलते रहें… जबकि वह सोचती थी कि अगर व्यक्ति में योग्यता है, आंतरिक शक्ति है, कुछ कर गुज़रने की क्षमता है तो वह दूसरों से अपनी बात मनवा सकता है, कायर लोग ही दूसरों के सामने घुटने टेकते हैं.

मंज़िलें अलग-अलग थीं, अतः अलग हो गये थे… फिर भी जब भी समय मिलता, अवश्य मिलते. अपनी ख़ुशी, अपने ग़म एक-दूसरे के साथ बांटते… अपनी मंज़िल पाने के पश्‍चात् उसने अपने प्यार का इज़हार करते हुए विवाह का पैग़ाम उसके पास भेजा था. उसके मन के किसी कोने में भी उसके लिये सॉ़फ़्ट कॉर्नर था, पर विवाहरूपी बंधन में बंधकर वह अपना कैरियर नष्ट नहीं करना चाहती थी. उसका तटस्थ व्यवहार देखकर राज ने भी उसके द्वारा निर्मित लक्ष्मण-रेखा को कभी पार करने की चेष्टा नहीं की थी और वह स्वयं भी सिविल सेवाओं की कोचिंग के लिये दिल्ली चली गई थी, जिसके कारण उनका संपर्क भी टूट गया था.

“मैं तो ठीक हूं.. वही- वैसा ही, पर आप वैसी नहीं रहीं…?” उसने उसी ज़िंदादिली से अपनी बात कही.

“मैं वैसी नहीं रही…?” उसकी बात सुनकर अतीत से वर्तमान में आते हुए आश्‍चर्य से प्रियंका ने पूछा.

“मेरे कहने का मतलब था- अब आप पहले वाली प्रियंका नहीं रहीं. अब तो मेरे लिये प्रियंका गिल हो, एक जानी-मानी हस्ती, हमारे शहर की कमिश्‍नर…” एक बार फिर स्वर में ख़ुशी झलक उठी थी.

उसकी बात सुनकर चेहरे पर अनायास ही मुस्कान आ गई थी. इतने दिनों में पहली बार उसे सहज और स्वाभाविक स्वर सुनने को मिला था, वरना ‘यस मेम, आपने बिल्कुल ठीक कहा….’ जैसे शब्द ही सुनने को मिलते थे.

वह कुछ कहती, इससे पहले उसने एक स्त्री से उसे मिलवाते हुए कहा, “इनसे मिलो… यह हैं मिसेज़ आरती सक्सेना…. मेरी धर्मपत्नी.” प्यार से अपनी पत्नी की ओर देखते हुए राज ने कहा.

“इन्होंने देखते ही आपको पहचान लिया और मुझे आपसे मिलवाने ले आए.” आरती ने उसका अभिवादन करते हुए कहा.

कहीं कोई ईर्ष्या या द्वेष की भावना उसके स्वर या आंखों में नहीं झलकी जैसा कि आम औरतों की निगाहों में उसने देखा था जब वह उनके पतियों से बातें कर रही होती थी. आरती उसे बेहद आकर्षक एवं सुलझी हुई लगी.

वह कुछ उत्तर दे पाती कि वह पुनः बोली, “दीदी, यदि आपको कोई आपत्ति न हो तो कल का डिनर हमारे यहां करें. ये आपको लेने पहुंच जाएंगे.”

“लेकिन…” प्रियंका समझ नहीं पा रही थी कि  वह उनका आतिथ्य स्वीकार करे या न करे.

– सुधा आदेश

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