कहानी- काठ की गुड़िया 1 (Story Series- Kath Ki Gudiya 1)

कितना अस्थिर हो सकता है मानव मन! एक दिन यही देवव्रत मेरे प्यार में इतने बावले थे कि मुझे अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं करने दी. एक संबंधी के घर विवाह में देव ने मुझे देखा, तो अपने अभिभावकों को हमारे घर मेरा रिश्ता मांगने ही भेज दिया. मैं तब बीए के अंतिम वर्ष में थी. पापा कहते थे कि मेरे पास अपने पैरों पर खड़ा होने लायक डिग्री अवश्य होनी चाहिए. वह भी नहीं तो कम से कम मैं अपना बीए तो पूरा कर ही लूं, लेकिन देव उतना भी रुकने को तैयार नहीं थे.

साक्षात भूकंप का अनुभव किया है अभी? कहते हैं, जब भूकंप आता है, तब धरती कांपती है, इमारतें टूटती हैं और बस्तियां की बस्तियां वीरान हो जाती हैं. मेरे निजी जीवन में भी ऐसा भूकंप आया था, जिसमें मेरा घर उजड़ा था, मन टूटा था और सपने तहस-नहस हो गए थे, लेकिन चारों ओर पूर्ववत् शांति बनी रही. आसपास किसी को न तो कुछ दिखाई दिया और न उन्होंने कोई आवाज़ ही सुनी.
एक बात और- भूकंप के गुज़र जाने के पश्‍चात् कई हाथ सहायतार्थ आगे बढ़ आते हैं, जबकि मैं तो नितांत अकेली खड़ी रह गई थी- अतीत के खंडहरों पर.सात वर्ष के ख़ुशहाल विवाह के बाद देवव्रत ने अचानक ऐलान कर दिया कि वह दूसरा विवाह कर रहे हैं. यूं उन्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं थी, उन्हें एक बेटा चाहिए था बस. और पांच वर्ष पूर्व पारुल के जन्म के समय डॉक्टर ने आगाह कर दिया था कि मैं अब दोबारा मां नहीं बन पाऊंगी. अभी तक तो मजबूरन ख़ामोश रहे देव, पर अब उन्हें अपनी एक पुरानी सहपाठिन मिल गई थी- समीरा, जिसने अपना करियर बनाने के जुनून में अब तक विवाह नहीं किया था और अब करना चाहती थी.
कितना अस्थिर हो सकता है मानव मन! एक दिन यही देवव्रत मेरे प्यार में इतने बावले थे कि मुझे अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं करने दी. एक संबंधी के घर विवाह में देव ने मुझे देखा, तो अपने अभिभावकों को हमारे घर मेरा रिश्ता मांगने ही भेज दिया. मैं तब बीए के अंतिम वर्ष में थी. पापा कहते थे कि मेरे पास अपने पैरों पर खड़ा होने लायक डिग्री अवश्य होनी चाहिए. वह भी नहीं तो कम से कम मैं अपना बीए तो पूरा कर ही लूं, लेकिन देव उतना भी रुकने को तैयार नहीं थे.
“मेरा अपना कारोबार है, मुझे कौन-सा इससे नौकरी करवानी है, जो डिग्री की आवश्यकता पड़े.” उनका तर्क था. मैं भी तो बह गई थी उनके प्यार में. ऐसा तो मैंने अब तक कहानियों में ही प़ढ़ा था और रजत पटल पर ही देखा था. वही सब अब मेरे जीवन में घट रहा था और मैं उस बयार में बिना पंख उड़ने लगी थी.

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दुल्हन बन इस घर में आई, तो प्रिय का ढेर सारा अनुराग मिला मुझे. वह सब झूठ था क्या? बस, इतनी-सी ही होती है प्यार की वास्तविक उम्र? हम इन्हीं रिश्तों को जन्म-जन्मांतर तक निभाने की बात करते हैं! प्यार में पूर्ण समर्पण ही करती है स्त्री. बिना संदेह, बिना किसी प्रश्‍न के तन से, मन से और यदि संभव हो, तो शायद आत्मा से भी. मेरी जगह यदि देव होते तो? वही किसी कारणवश पिता बनने में अक्षम हो गए होते, तो क्या मैं उन्हें छोड़ जाती? कदापि नहीं. मेरे मन में तो शायद उनके प्रति क्रोध भी न उपजता और कितनी निष्ठुरता से मुंह मोड़ लिया था देव ने!
यूं तो पुरुष चाहता है कि स्त्री कोमलांगी छुईमुई-सी केवल उसी को समर्पित रहे, पर वह जब चाहे उसे सड़क पर खड़ा कर सकता है- अकेली और असहाय!
निष्ठा और प्रतिबद्धता क्या स़िर्फ स्त्रियों के लिए ही होती है?
मेरे भीतर सवालों का एक बवंडर उमड़ रहा था.
अपने ऊंचे सिंहासन पर बैठ देव ने इतनी कृपा अवश्य की थी कि मुझे घर छोड़ने को नहीं कहा था. मैं और पारुल ऊपर की मंज़िल पर शिफ्ट कर दिए गए थे. दूसरे ही दिन देवव्रत मंदिर में समीरा को ब्याह घर भी ले आए. पत्थर के देवता सब देखते रहे और मुस्कुराते रहे. मंदिर के पुजारी, जो मुझे अच्छी तरह से पहचानते थे, उन्होंने भी कोई आपत्ति नहीं की फेरे डलवाने में. अपने धनी यजमान को नाख़ुश कैसे कर देते?
बड़ा-सा घर था हमारा और बीच में चौक. सो नीचे की गतिविधियां ऊपर दिखाई देती थीं. क्या लगता था देव को? मैं कोई काठ की गुड़िया हूं कि उन्हें किसी अन्य स्त्री के साथ देख बुरा नहीं लगेगा मुझे? अपमानित महसूस नहीं करूंगी मैं? क़ानूनन तो मैं देव पर दूसरा विवाह करने पर मुक़दमा भी चला सकती थी, पर न तो मुझमें इतना मनोबल था, न ही धन. अपनी रोज़ाना की ज़रूरतों के लिए भी मैं व पारुल उन्हीं पर निर्भर थे और यह कटु सत्य जानते थे देवव्रत.
कहते हैं कि जब हमारे लिए कोई किवाड़ बंद कर दिया जाता है, तो कहीं न कहीं कोई खिड़की अवश्य खुल जाती है. मेरे लिए तो बहुत अनपेक्षित जगह पर खुली थी यह खिड़की.

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देवव्रत ने शायद मेरठ रहती अपनी मां एवं विवाहिता छोटी बहन मिताली को अपने नए विवाह की ख़बर कर दी थी. अगले दिन सुबह ही मैंने देव के साथ उन दोनों को नीचे आंगन में चाय पीते देखा. मां तो बहुत प्रसन्न लग रही थीं. उनकी बरसों से पोता पाने की संभावना जो बन गई थी. पोते के बिना उनका वंश कैसे चलेगा और श्राद्ध कौन करेगा? इस बात की उन्हें सदैव चिंता रहती थी, जो क्रोध बनकर अक्सर मुझ पर निकलती थी. मिताली अपने बड़े भाई का बहुत सम्मान करती थी. बचपन में ही अपने पिता को खो देने से उन्हें पितृतुल्य ही मानती थी. मैंने उसे कभी भाई के साथ ऊंची आवाज़ में बात करते नहीं सुना था. किंतु आज बातें समझ न आने पर भी उसकी भाई के साथ विवाद करने की आवाज़ स्पष्ट आ रही थी.

 

      उषा वधवा

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