कहानी- मेघा की शादी 1 (Story Series- Megha Ki Shadi… 1)

 

मेघा से मिलते ही लगा, जैसे मन का कोई बंद कमरा खट् से खुल गया था. कितने दिनों बाद मैं और मेघा पहले की तरह मेरे घर के आंगन में थे. आंगन में लगा अमरूद का पेड़ अभी भी हमें वैसे ही चुपचाप देख रहा था, जैसे पहले देखता था! इसी पेड़ के नीचे बैठकर ना जाने कितने पन्ने फाड़कर नावें बनाई गईं, घर के बाहर बहते पानी में तैरने को छोड़ी गईं. मुझे याद है मेघा के शहर से जाने के बाद मैंने कुछ दिनों तक इस पेड़ के नीचे बैठना छोड़ दिया था, लगता था मुझसे मेरे साथी का पता पूछता रहता था.

 

 

 

 

 

बचपन को याद करें तो गर्मी की छुट्टियां सबसे पहले याद आती हैं. कभी कैरमबोर्ड, कभी लूडो खेलते-खेलते जब हम लोग ऊब जाते, तो घर-घर खेलने लगते… लड़कियां दौड़कर अपनी मम्मी के दुपट्टे ले आतीं और लड़के स्केचपेन से अपनी मूंछें बना लेते! मैं और पड़ोसवाली मेघा भी यही सब करते थे. पहले हमारी शादी होती थी, फिर हम घर-घर खेलने में पति-पत्नी बनकर अपने क़िरदार में डूब जाते थे… लड़ाइयां भी ख़ूब होती थीं! वो मुझसे कहती, “जाओ आशीष, सब्ज़ी ले आओ.”
मैं कहता, “तुम जाओ मेघा… वाइफ लोग जाती हैं.”
वो चीखकर कहती, “ग़लत-ग़लत, एकदम ग़लत… मेरे पापा जाते हैं.”
मैं पैर पटककर कहता, “लेकिन मेरे घर में तो मेरी मम्मी जाती हैं.”
लड़ाई बढ़ जाती, बाल तक नोच-खसोट लिए जाते. बाकी बच्चे बीच-बचाव में उतरते! मैं क़सम खाकर कहता, “आइंदा नहीं खेलूंगा इस लड़ाका के साथ.”
और वो अपनी सहेलियों का हाथ पकड़कर तमतमाती हुई कहीं दूसरे कोने में जाकर बैठ जाती. गर्मियों के वो दिन लंबे थे और क़समें छोटी… अगले दिन फिर हम साथ खेलने लगते. बचपन तो किसी रॉकेट पर बैठकर पता नहीं कहां चला गया, लेकिन यादों को वहीं छोड़ गया… मन के किसी बंद कमरे में… और आज मेघा की शादी का कार्ड देखते ही सब कुछ आंखों के सामने नाच गया. सुनहरे रंग से लिखा हुआ- ‘मेघा संग विनीत’ पढ़कर मां का पहला सवाल आया, “ये आजकल वेड्स नहीं लिखते क्या दूल्हा-दुल्हन के नाम के बीच?”
“कुछ भी लिखें… वही बात हुई.” मैंने मां से कहते हुए शादी का कार्ड गौर से पढ़ा, मुझे हैरत हुई.

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“लेकिन मां, ये लोग यहां आकर क्यों शादी कर रहे हैं?”
“अरे उनका पुश्तैनी घर है यहां, यहीं आसपास रिश्तेदार हैं सारे और फिर लड़केवाले भी यहीं के हैं.”
मां मुझे और भी बहुत कुछ बताती जा रही थीं, लेकिन मेरा मन उन्हीं पुराने दिनों में लौटने लगा था. जब अंकल का ट्रांसफर दिल्ली हुआ, उसके बाद कुछ दिनों तक होली, दीवाली, न्यू ईयर के ग्रीटिंग कार्ड इधर से उधर जाते रहे. कभी-कभार फोन होते रहे. फिर धीरे-धीरे सब बंद हो गया था. हमारे पैरेंट्स के आपस में संबंध पहले जैसे ही रहे, लेकिन हमारा साथ छूट गया था. उसकी कुछ तस्वीरें थीं मेरे पास, एक होली की और एक मेरे बर्थडे की, जिनमें दो चोटी बनाए वो केक को घूर रही थी… मैं मुस्कुरा दिया. दो चोटीवाली वो लड़की अब लहंगा पहने दुल्हन बनने जा रही थी.
उस शाम जब मैं ऑफिस से आया, तो बाहर आंगन में ख़ासी चहल-पहल थी. अंकल-आंटी और मेघा आ चुके थे. कहने को वो लंबी भले ही हो गई थी, लेकिन चेहरे पर अभी भी बचपनवाली मासूमियत गई नहीं थी.
“हाय!” मैं उसे देखकर मुस्कुरा दिया.
“हैलो…” चाय का कप लेकर वो हड़बड़ाकर खड़ी हो गई. मेघा से मिलते ही लगा, जैसे मन का कोई बंद कमरा खट् से खुल गया था. कितने दिनों बाद मैं और मेघा पहले की तरह मेरे घर के आंगन में थे. आंगन में लगा अमरूद का पेड़ अभी भी हमें वैसे ही चुपचाप देख रहा था, जैसे पहले देखता था! इसी पेड़ के नीचे बैठकर ना जाने कितने पन्ने फाड़कर नावें बनाई गईं, घर के बाहर बहते पानी में तैरने को छोड़ी गईं. मुझे याद है मेघा के शहर से जाने के बाद मैंने कुछ दिनों तक इस पेड़ के नीचे बैठना छोड़ दिया था, लगता था मुझसे मेरे साथी का पता पूछता रहता था.

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“कब आए आप लोग?” अंकल-आंटी के पैर छूते हुए मैंने पूछा.
आंटी सफ़र की परेशानियां बताने लग गई थीं, मैंने उनकी बातें सुनते हुए मेघा की ओर फिर देखा… कौन कह सकता था कि बचपनवाली वो झल्ली लड़की, बड़ी होकर इतनी सुंदर दिखने लगेगी? चिकनकारी का सफेद कुर्ता और उस पर सतरंगी दुपट्टा ओढ़े हुए मेघा चुपचाप चाय पीती जा रही थी. मैंने एकाध बार बात करने की कोशिश की, लेकिन जितना पूछा गया, बस उतना ही जवाब आया. मैं उसको देखकर थोड़ा उदासीन हो गया था. पटरियां पास भी लाती हैं, दूर भी कर देती हैं.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

 

लकी राजीव

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Usha Gupta

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