कहानी- मेरे हिस्से का आकाश 4 (Story Series- Mere Hisse Ka Aakash 4 )

“बस केशव… मैं जानती हूं तुम बहुत ही सरल व समय के साथ बहनेवाले इंसान हो, लेकिन कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें शब्द नहीं दिए जा सकते… अक्षत अगर यहां जान-बूझकर आ रहा है, तो कहीं-न-कहीं उसे अपनी ग़लती का एहसास है… मेरे तप्त हृदय को इससे शांति अवश्य मिली, पर मैं उसे कभी हृदय से क्षमा नहीं कर पाऊंगी, इसलिए इस दिशा में तुम कभी कोशिश मत करना.” 

 

 

 

“लगता है आज तो घूर-घूर कर इस लैपटॉप को भेद ही डालोगी.” केशव सामने खड़ा न जाने कब से उसे देख रहा था.
”चलो कुछ खा लो, लंच टाइम हो गया.” केशव की सहलाती-सी आवाज़ सुनकर प्रज्ञा चौंक गई.
“चलो…” वह उठ खड़ी हुई. अपना लंच बॉक्स लेकर दोनों कैंटीन की तरफ़ चल दिए.
कैंटीन में एक तरफ़ बैठकर दोनों ने चाय ऑर्डर की और लंच बॉक्स खोल दिए. केशव उसका मूड बदलने के लिए इधर-उधर की बातें कर रहा था, पर प्रज्ञा के चेहरे पर तो जैसे उदासी का रंग चिपक कर रह गया था.
“प्रज्ञा…” एकाएक केशव गंभीर स्वर में बोला, “अक्षत को मालूम है कि तुम और मैं यहां काम करते हैं.”
“कैसे?” प्रज्ञा ने चौंककर सिर उठाया.
“जब मुझे पता चला कि आनेवाला अक्षत श्रीवास्तव अपना अक्षत ही है, तो मैंने उसके ऑफिस से उसका नंबर लेकर उसे कॉल किया था. सोचा यहां आकर सीन क्रिएट हो, इससे अच्छा है उसे पहले से सब पता हो.”
प्रज्ञा उसे आगे जानने के लिए उत्सुक हो देखती रही.
“मैंने तो सोचा था कि तुम्हारे यहां होने से शायद वह अपना इरादा ही बदल दे… पर उसने मुझसे ऐसे बात की कि बीच के चंद सालों की दूरी चंद मिनटों में ही तय हो गई… लगा जैसे तुमसे मिलने के लिए छटपटा रहा है… तुम्हें बहुत मिस किया है उसने.”
भावनाओं के अतिरेक से प्रज्ञा की आंखें एकाएक छलछला आईं, लेकिन ये आंसू न अक्षत के बिछोह के निकले थे और न ही उससे मिलन की उत्सुकता के साक्षी थे. बल्कि एक प्रज्ञा के आंसू थे जो न जाने उसने कब से अपने अंदर दबा रखे थे. एक मन भरा तनाव उसके संपूर्ण व्यक्तित्व पर बिखर रहा था.
“यह उसकी ख़ुद की मर्ज़ी है केशव… वह यहां आना चाहे या नहीं, चीज़ें हमेशा अक्षत की नज़रिए से सेट नहीं होंगी… मेरे अंदर अब उसके लिए कुछ नहीं बचा… पिछले दो सालों में मेरे सपनों की तरह सब कुछ बदरंग हो कर बह गया.” प्रज्ञा ने पहली बार मुंह खोला और खड़ी हो गई.

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“लेकिन?”
“बस केशव… मैं जानती हूं तुम बहुत ही सरल व समय के साथ बहनेवाले इंसान हो, लेकिन कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें शब्द नहीं दिए जा सकते… अक्षत अगर यहां जान-बूझकर आ रहा है, तो कहीं-न-कहीं उसे अपनी ग़लती का एहसास है… मेरे तप्त हृदय को इससे शांति अवश्य मिली, पर मैं उसे कभी हृदय से क्षमा नहीं कर पाऊंगी, इसलिए इस दिशा में तुम कभी कोशिश मत करना.” कहकर वह तेजी से ऑफिस की तरफ़ चली गई. केशव दिग्भ्रमित-सा उसे जाते देखता रह गया.
नियत दिन अक्षत ने ज्वाॅइन कर लिया. ड्यूटी ज्वाॅइन करते ही प्रज्ञा से सामना हो गया. स्वच्छ आकाश की पावन नीलिमा को जैसे स्याह बादल ढक लेते हैं, वैसे ही प्रज्ञा के बेपनाह सौंदर्य को उदासी के बादलों ने ढका हुआ था. लेकिन अपने अंतर्मन की घटाओं को समेटे वह अपने काम में मशगूल थी. चेहरा मास्क से ढका था, पर उन बड़ी-बड़ी झील-सी गहरी आंखों में कोई डूब जाए, तो उसे किनारा भी न मिल पाए.
अक्षत पर नज़र पड़ते ही लाख ख़ुद को तटस्थ रखने को कटिबद्व प्रज्ञा की आंखों की झीलों में घटाएं गहरी हो उमड़-घुमड़ कर बरसने को बेचैन हो उठी थी. पर मस्तिष्क में उड़ रही मान-अभिमान की आंधी ने उन्हें पल भर में उड़ा दिया. लेकिन पिछले दो सालों से हृदय पर पाषाण शिला रखे अक्षत, प्रज्ञा पर दृष्टि पड़ते ही पिघलने के लिए छटपटा उठा. उसकी बांहें उसे नेहबंधन में बांधने के लिए व्याकुल हो रही थी, लेकिन प्रज्ञा का मान क्या इतनी सरलता से टूट सकता था. फिर चोट उसके दिल को नहीं वजूद को लगी थी. आख़िर कब तक स्त्री पोषित करती रहेगी पुरुष के अहम को.
उस समय प्रज्ञा का उसी पद पर कंपनी द्वारा चयन हो जाना और अमेरिका जाने का मौक़ा प्रज्ञा के सहारे मिलना अक्षत को अंदर तक कचोट गया था. प्रियेसी की सफलता अनायास ही ईर्ष्या का कारण बन गई थी. लगा आज अगर उसने प्रज्ञा के सहारे की बेशाखी से सफलता की सीढ़ी पर पहला कदम रखा, तो कभी भी इस भार से मुक्त नहीं हो पाएगा. उसे अपने कारण अमेरिका जाने से रुकने के लिए कहना उसे ग़लत लग रहा था. तत्काल उचित-अनुचित का निर्णय लिए बिना वह केशव और प्रज्ञा को बिना कुछ कहे मुंबई चला गया था. लेकिन इन दो सालों ने प्रज्ञा का महत्व उसकी ज़िंदगी में क्या है उसे समझा दिया, पर किस मुंह से प्रज्ञा से वापस संपर्क करे. इसी संकोच में समय बीतता चला गया.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

सुधा जुगरान

 

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