कहानी- मेरे हिस्से का आकाश 3 (Story Series- Mere Hisse Ka Aakash 3)

क्या अक्षत जैसे पुरुष पर उसे अपना स्वत्व, नारीत्व निछावर करना चाहिए? यह सवाल न चाहते हुए भी उसे भेद गया था. अक्षत चला गया. वह उसे मिलने भी नहीं गई. न ही उसे बधाई दी. इम्तिहानों के बाद सबने अपनी राह पकड़ी, पर प्रज्ञा अमेरिका नहीं जा पाई.

 

 

 

… केशव ने समझाया, “अरे तुम्हें मिली या प्रज्ञा को, एक ही बात तो है… यह तेरा मेरा क्या लगा रखी है… प्रज्ञा जैसी योग्य लड़की को अपनाने का फ़ैसला किया है, तो विचार भी बदलने होंगे.”
“तुम मेरी जगह होते तो क्या करते?”
“पल्ला पकड़ कर पीछे-पीछे चला जाता.” केशव ठहाका मार कर हंस पड़ा, “अरे भई, अपन को तो देश में ही रहना है. नौकरी भी बंगलुरू में ही मिल गई. माता-पिता, बहनों का आना-जाना लगा रहेगा. इसलिए पहले से ही सोच लिया था कि किसी ऐसी लड़की से शादी करूंगा, जिसके लिए नौकरी ही सब कुछ न हो… मतलब कि इंजीनियर डॉक्टर नहीं चलेगी… किसी स्कूल की बहनजी के बारे में सोचूंगा.”
“तू तो हर बात को हवा में उड़ा देता है.” अक्षत रोष में बोला.
“हवा में नहीं उडा़ता, बल्कि अपनी सोच पर कायम रहता हूं, हमें ज़िंदगी में क्या करना है और उसे किस रास्ते पर मोड़ना है… इस बात में बहुत क्लियरिटी होनी चाहिए. तेरी तरह ढुलमुल रवैया मैं पसंद नहीं करता.” केशव एकाएक गंभीर हो गया.
लेकिन केशव की बात का अक्षत पर कोई असर नहीं पड़ा. उसने चुपचाप दूसरी कंपनी की जॉब स्वीकार कर ली और मुबई चला गया. जब प्रज्ञा को इस बात का पता चला, तो वह हतप्रभ रह गई. वह तो उसके साथ हर जगह जाने के लिए तैयार थी. बिना जॉब के अमेरिका भी और मुंबई भी.
लेकिन अक्षत के सामने तो मान-अभिमान का इतना बड़ा प्रश्न खड़ा हो गया. एक बार उससे दिल की बात कही तो होती. वह उसकी हताशा महसूस कर जाती. लेकिन पुरुष होने का इतना दंभ… इतना आत्माभिमान!

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क्या अक्षत जैसे पुरुष पर उसे अपना स्वत्व, नारीत्व निछावर करना चाहिए? यह सवाल न चाहते हुए भी उसे भेद गया था. अक्षत चला गया. वह उसे मिलने भी नहीं गई. न ही उसे बधाई दी. इम्तिहानों के बाद सबने अपनी राह पकड़ी, पर प्रज्ञा अमेरिका नहीं जा पाई.
उसका हृदय इतना टूट चुका था कि जुड़ ही नहीं पा रहा था. वह अपने घर चंडीगढ़ आ गई और वहीं से जॉब के लिए ट्राई करती रही. एक कंपनी में जॉब लेकर वह दिल्ली आ गई, लेकिन अपने जॉब से संतुष्ट नहीं थी. केशव ने उसे अपनी कंपनी में सीवी भेजने के लिए कहा.
इस तरह से उसकी जॉब भी बैंगलूरू में लग गई. वह और केशव साथ काम करने लगे. केशव जैसा सरल हृदय दोस्त प्रज्ञा को हमेशा से प्रिय था. उसकी खींचाई वह भले ही करती थी, पर दिल में उसके लिए अगाध स्नेह व आदर रखती थी. केशव उसको पहलेवाले रूप में लाने की बहुत कोशिश करता, पर प्रज्ञा तो जैसे खिलखिलाना ही भूल गई थी.

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और अब अक्षत वापस आ रहा था उनके बीच, उनका सीनियर बन कर. उनकी तिगड़ी पूरी होनेवाली थी. पर अक्षत की महत्वाकांक्षाओं के आसमान तले, प्रज्ञा के बुझे अरमानों की चिता की राख पर, केशव के ठहाको व मृदुल सरलता के आडबंर को ओढ़े हुए… तीनों ही अपनी स्वाभाविकता खो चुके होंगे. न अब वह रिश्ता रहेगा, न वह भाव. क्या होगा? कैसा होगा? यह सब अब भविष्य के गर्भ में था. प्रज्ञा की उंगलियां की बोर्ड पर चल रही थीं. दृष्टि स्क्रीन पर गड़ी थी, लेकिन स्मृतियां अतीत के जंगल में स्वछंद विचर रही थीं.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

सुधा जुगरान

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Usha Gupta

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