कहानी- मोहभंग 2 (Story Series- Mohbhang 2)

विवाह तो धूमधाम से हुआ था, बस मेरे ही मन में कोई उत्साह नहीं था. कठपुतली बन सब रीति-रिवाज़ पूरे करती रही. छह माह बहुत मुश्किल से काटे मैंने अपने इस कथित घर में. उकता गई थी मैं इस बेरंग उबाऊ जीवन से. मुझे दिल्ली का अपना जीवन बहुत याद आता. ‘पापा, आप ग़लत थे, जो सोचते थे कि मैं मनोज के संग ख़ुश नहीं रह पाऊंगी. कैसा ख़ुशमिज़ाज था वह. उसके साथ बीता हर पल मेरी याद में बसा है. कैसे मस्ती से भरपूर थे वो दिन.’ मेरे भीतर विद्रोह पनप रहा था.

बीए ख़त्म हुआ, तो विवाह की चर्चा होने लगी. मां को मैंने मनोज के बारे में बताया और मां ने पापा को. पापा ने कहा, “ठीक है, उससे कहो अपने माता-पिता को हमारे घर ले आए, ताकि हम बड़े भी आपस में मिल लें.” समय, दिन सब तय हो गया. वह आया भी, परंतु साथ में अपने किसी मित्र को लेकर. “मम्मी-पापा बाहर गए हुए हैं.” उसने बताया. ढेर सारी बातें हुईं. उसने पापा को प्रभावित करने का पूरा प्रयत्न किया, पर पापा ने जब उससे कहा कि कुछ भी तय करने से पहले उसके मम्मी-पापा से मिलना आवश्यक है, तो उसने उत्तर दिया, “मेरे मम्मी-पापा ने मुझे अपना जीवनसाथी चुनने की पूरी छूट दे रखी है और मैंने आपकी बेटी को पसंद किया है, तो फिर अड़चन क्या है?”

मनोज को गए दो दिन बीत गए थे. पापा बहुत व्यस्त से तो दिखे, पर मुंह से कुछ न बोले. मैंने सोचा था कि पापा को उसने पूरी तरह से प्रभावित कर दिया है और वह सहर्ष हां कर देंगे. परंतु पापा की चुप्पी देख मेरे मन में धुकधुकी होती रही, बस उनसे कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी. तीसरे दिन कोर्ट से लौटकर पापा ने मुझे अपने कमरे में बुलाया और कहा, “क्या तुम्हें मुझ पर विश्‍वास है? यह विश्‍वास है कि मैं जो भी करूंगा, तुम्हारे हित की सोचकर ही करूंगा.” भय और असमंजस से भरी, मैने हां में सिर हिला दिया.

“मैंने दुनिया देखी है, व्यक्ति को पहचानने का अनुभव है मुझे. मनोज अच्छा व्यक्ति नहीं है, तुम उसका इरादा छोड़ दो. अभी तुम यह नहीं समझ पा रही हो, पर मेरा अनुभव यही कहता है. मैंने कुछ जांच-पड़ताल भी की है. वह तुम्हारे योग्य नहीं है.”

मां से कहा, तो उन्होंने भी पापा का पक्ष लिया. बोलीं, “पापा ने कुछ देख और सोचकर ही तो निर्णय लिया होगा.”

पापा ने निखिल से मेरा विवाह तय कर दिया. उसने कुछ वर्ष पूर्व वकालत की अपनी शुरुआती ट्रेनिंग पापा के अधीन ली थी. अब वह मेरठ में अपने पैतृक घर में मां के साथ रहते थे. पापा ने हमारी मुलाक़ात करवाई, बातचीत भी हुई, पर मैं अपने मन से यह बात कैसे निकालती कि मेरा विवाह मनोज से नहीं हो रहा था.

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और मैं ब्याहकर मेरठ आ गई. विवाह तो धूमधाम से हुआ था, बस मेरे ही मन में कोई उत्साह नहीं था. कठपुतली बन सब रीति-रिवाज़ पूरे करती रही. छह माह बहुत मुश्किल से काटे मैंने अपने इस कथित घर में. उकता गई थी मैं इस बेरंग उबाऊ जीवन से. मुझे दिल्ली का अपना जीवन बहुत याद आता. ‘पापा, आप ग़लत थे, जो सोचते थे कि मैं मनोज के संग ख़ुश नहीं रह पाऊंगी. कैसा ख़ुशमिज़ाज था वह. उसके साथ बीता हर पल मेरी याद में बसा है. कैसे मस्ती से भरपूर थे वो दिन.’ मेरे भीतर विद्रोह पनप रहा था. मेरी इच्छा के विपरीत आपने मेरा विवाह निखिल से कर तो दिया, परंतु आप मुझे इससे बंधे रहने को मजबूर नहीं कर सकते.’ मैं मन-ही-मन पापा से कहती.

मैंने दिल्ली जाने का निर्णय लिया. मैंने जब निखिल को अपने जाने की बात कही, तो वह बोले, “मां की तबीयत अभी ठीक नहीं चल रही है. अगले सप्ताह मेरी दो छुट्टी है, एक-दो और ले लूंगा, तब की टिकट ले लेता हूं.” मैंने निखिल पर एहसान जताते हुए उसकी बात मान ली. दरअसल, निखिल इस ग़लतफ़हमी में थे कि मैं दो-चार दिन के लिए जाना चाह रही हूं जबकि मैंने यह तय कर लिया था कि मैं लौटकर नहीं आऊंगी. और मैंने उसी हिसाब से अपना सामान तैयार कर लिया.

निखिल ने मम्मी-पापा को भी सूचित कर दिया था. ख़ूब ख़ुश हुए वह मुझे देखकर. उनके घर रौनक़ लौट आई थी. दिनभर आस-पड़ोस का, मेरी सखियों का तांता लगा रहा. मां ने तरह-तरह के व्यंजन बना रखे थे. सहेलियों के संग ख़ूब मस्ती की,

घूमने-फिरने का, फिल्म देखने का कार्यक्रम भी बना. तरस गई थी मैं इन सब चीज़ों के लिए. मन में निश्‍चय गहरा होता गया कि लौटकर निखिल के पास नहीं जाना है, परंतु मां से अभी कुछ नहीं कहा था.

अभी तो मैं मनोज से मिलने की युक्ति लगा रही थी. उसे मैंने धोखा दिया था. वह अवश्य ही मुझसे नाराज़ होगा. मुझे याद कर उदास होता होगा. मैंने सोचा और मेरे सामने किसी मजनू का सा चेहरा घूम गया.

       उषा वधवा

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Usha Gupta

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