कहानी- मुक्ति 2 (Story Series- Mukti 2)

इंसान की सभी कामनाएं पूर्ण हो जाएं, तब भी क्या वह मरना चाहेगा? मौत सिरहाने खड़ी हो, तो कौन जीवट आत्मा होगी, जो ख़ुशी से हाथ आगे बढ़ा देगी. जबकि सच्चाई यही है कि मौत शाश्वत सत्य है. इस संसार में जो आया है, वह जाएगा भी. इस मूलमंत्र को इंसान समझ ले, तो मन में कोई भय या छटपटाहट नहीं रहती है. सहज भाव से वह हर परिस्थिति को स्वीकार करता जाता है. कुछ ऐसा ही भाव उत्पन्न हो रहा है मेरे मन में भी. किंतु चित्त फिर भी शांत नहीं है.

 

 

लंग्स में कैंसर अपनी जड़ें जमा चुका था. मैं स्तब्ध थी नियति के इस क्रूर मज़ाक पर. यह भी भला कोई उम्र है जाने की? नहीं… नहीं… इतनी शीघ्र मैं इस संसार से, अपने बच्चों से दूर होना नहीं चाहती. तमाम उम्र तो ज़िम्मेदारियां पूरी करने में गुज़र गई. अभी तो जीवन में सुख भोगने का, अपने शौक पूरे करने का समय आया है. न जाने कितनी अतृप्त आकांक्षाएं नागफनी के दंश के समान ह्वदय को कचोटती रहती हैं, जिनके पूर्ण होने की अब कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही है.
कहां तो यूरोप के टूर की तैयारियां थीं और कहां हाॅस्पिटल के रात-दिन चक्कर लग रहे हैं.
लंदन से बेटी आन्या और दामाद निखिल भी आ गए हैं. इससे पूर्व जब-जब पूरा परिवार एकत्रित हुआ है, बच्चों की किलकारियों और हंसी-ठहाकों से घर गुंजायमान हो जाता है, लेकिन इन दिनों घर में एक अजीब-सी ख़ामोशी छाई रहती है. मन-ही-मन हर कोई भयभीत है, आनेवाले कल से, किंतु प्रकट में सभी मुझमें एक आशा, एक उम्मीद जगाए रखना चाह रहे हैं. जबकि अपने गिरते स्वास्थ्य और काले पड़ते जा रहे शरीर ने मुझे यथार्थ का बोध करा दिया है.
ज्यों-ज्यों समय गुज़र रहा है. शारीरिक दुर्बलता के साथ-साथ मन भी हारता जा रहा है.
आज दूसरी बार हुई कीमो थेरेपी की पीड़ा ने मुझे तोड़कर रख दिया है. असहनीय दर्द की एक तीखी लहर सारे शरीर को बीध रही है. मैं तड़प रही हूं और किसी भी तरह इस दर्द से निजात पाना चाह रही हूं. बिस्तर पर निढाल पड़ी सोच रही हूं आखि़र क्यों इतना मोह है इस जीवन से? इंसान की सभी कामनाएं पूर्ण हो जाएं, तब भी क्या वह मरना चाहेगा? मौत सिरहाने खड़ी हो, तो कौन जीवट आत्मा होगी, जो ख़ुशी से हाथ आगे बढ़ा देगी. जबकि सच्चाई यही है कि मौत शाश्वत सत्य है. इस संसार में जो आया है, वह जाएगा भी. इस मूलमंत्र को इंसान समझ ले, तो मन में कोई भय या छटपटाहट नहीं रहती है. सहज भाव से वह हर परिस्थिति को स्वीकार करता जाता है. कुछ ऐसा ही भाव उत्पन्न हो रहा है मेरे मन में भी. किंतु चित्त फिर भी शांत नहीं है. अर्धरात्रि की बेला में एक हल्की-सी झपकी लगी ही थी कि बगल के कमरे से कुछ अस्फुट से स्वर उभरे और नींद उचाट हो गई.

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‘‘धीरज रखिए पापा. आप ही टूट जाएंगे, तो हमारा क्या होगा?” आन्या की रुंधी आवाज़ पर अनुराग का क्रंदन, ‘‘मैं ख़ुद को बिल्कुल असहाय महसूस कर रहा हूं. कभी सोचा नहीं था कि इतनी जल्दी यह सब? कैसे रहूंगा संध्या के बिना?” अनुराग बिलख रहे हैं. उनके भीगे स्वर से मन धुआं-धुआं-सा हो रहा है. काश! मेरे होंठों से एक सिसकारी निकली. इस समय शारीरिक पीड़ा अधिक थी या मानसिक कुछ कह नहीं सकती.
तभी मैंने अनुराग को कमरे में आते देखा. मुझे जगा देख वह मेरे क़रीब लेट गए.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…


रेनू मंडल

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