कहानी- नई राह नई मंज़िल 2 (Story Series- Nayi Raah Nayi Manzil 2)

घर से तो निकल आई थी, अब कहां जाए, क्या करे, कुछ समझ नहीं आ रहा था. बस, निरुद्देश्य सड़क पर चलती जा रही थी. उसके क़दमों से भी तेज़ गति थी मस्तिष्क में उठ रहे विचारों के तूफ़ान की. कुछ तो उसे स्वयं के लिए निर्णय लेना ही होगा.

सड़क के किनारे घने छायादार वृक्ष थे. ठंडी हवा चल रही थी. काफ़ी दूर निकल आने के कारण संध्या को कुछ भय-सा लगने लगा था. कुछ थकान-सी भी महसूस हो रही थी. सड़क के किनारे बेंच दिखाई दी तो उस पर बैठ गई और आती-जाती कारों को देखने लगी.

महीनेभर में उन्होंने दिल्लीवाले घर को बेचा और उसे अपने साथ पूना ले आए. कुछ माह तक तो यहां पर भी उसका मन उचाट ही रहा. बेटा-बहू दोनों इंजीनियर थे. सुबह ऑफ़िस के लिए निकलते, तो शाम तक घर आते थे. सारा दिन वह अकेली पड़ी बोर हो जाती थी.

प्रिया ने कई बार कहा भी कि वह आसपासवालों से मेलजोल बढ़ाए, सुबह-शाम घूमने जाया करे, किंतु उसका दिल ही नहीं करता था अकेले कहीं जाने का. अपनी ओर से तो विनीत और प्रिया मां को प्रसन्न रखने का भरसक प्रयास करते. प्रिया उसके लिए पत्रिकाएं लाकर रखती. शनिवार या रविवार को तीनों कभी िफ़ल्म, तो कभी कहीं घूमने निकल जाते. अब तो उनके कलीग्स भी संध्या से काफ़ी घुल-मिल गए थे. कुल मिलाकर नए माहौल में वह रच-बस गई थी. ज़िंदगी की गाड़ी एक बार पुनः पटरी पर आ गई थी. बेटे-बहू के घर में वो सुख का अनुभव करने लगी थी, किंतु आज प्रिया के एक ही वाक्य ने उसके शांत हो चले जीवन में हलचल मचा दी थी. काश! जो कुछ भी उसने सुना, वो सच न होता. उसका मन विरक्ति से भर उठा. दुनिया में कुछ भी अपना नहीं है. नाते-रिश्ते सभी स्वार्थ की बुनियाद पर टिके हुए हैं.

अच्छा ही हुआ, जो उसका भ्रम टूट गया. कम से कम अब स्वयं को बेटे-बहू पर थोपेगी तो नहीं. न जाने कब तक वो विचारों के ताने-बाने में खोई रहती कि प्रिया ने दरवाज़ा खटखटाया. उसने आंसू पोंछे, मुंह धोया और दरवाज़ा खोल दिया. “ओह मम्मी, मैंने कितनी आवाज़ें दीं आपको. जल्दी से आइए, मैंने आपकी पसंद की खस्ता कचौरी मंगवाई है.” बोलते-बोलते यकायक रुक गई प्रिया. गौर से उसका चेहरा देखते हुए बोली, “मम्मी, आपकी तबियत ख़राब है क्या? आंखें लाल हो रही हैं.” उसकी बात को अनसुना करती हुई, वो अपने कमरे में चली गई. बुद्धि तो कह रही थी, उसे अपना व्यवहार सामान्य रखना चाहिए, ताकि बेटे-बहू को पता न चल सके कि उसने उनकी बातें सुन ली हैं, लेकिन मन साथ नहीं दे रहा था. यहां तक कि खाना भी वो ठीक से नहीं खा पाई.

सारा दिन अनमनी-सी रही. रह-रहकर जतिन याद आते रहे. काश! वो आज होते तो उसे यूं बेटे-बहू पर आश्रित न रहना पड़ता. शाम के छह बजनेवाले थे. मन में विचार कौंधा, फ़िल्म साथ जाने में प्रिया को ऐतराज़ है. हो सकता है उसका यूं उनके मित्रों के बीच बैठना भी उसे नागवार लगता हो. विनीत के कमरे में जाकर उसने कहा, “बेटे, कॉलोनी की एक परिचित महिला के साथ मैं घूमने जा रही हूं. देर से लौटूंगी. तुम लोग खाना खा लेना.”

“लेकिन मम्मी, आज अचानक? किसके साथ जा रही हो?” विनीत को आश्‍चर्य हुआ. संध्या की ओर से कोई जवाब न पाकर वो बोला, “मम्मी, कुछ देर में सभी मित्र आ जाएंगे. आप नहीं होंगी, तो किसी को अच्छा नहीं लगेगा.”

“तुम दोनों तो हो, एंजॉय करना.” कहते हुए वो कमरे से बाहर निकल गई. विनीत और प्रिया का चेहरा उतर गया. इतना तो वे दोनों भी समझ गए थे कि हो न हो मम्मी ने सुबह उनकी बातें अवश्य सुन ली हैं, तभी आज इतनी ख़ामोश और बदली-बदली लग रही हैं… और संध्या, उसका मन तो बेहद बेचैन था. घर से तो निकल आई थी, अब कहां जाए, क्या करे, कुछ समझ नहीं आ रहा था. बस, निरुद्देश्य सड़क पर चलती जा रही थी. उसके क़दमों से भी तेज़ गति थी मस्तिष्क में उठ रहे विचारों के तूफ़ान की. कुछ तो उसे स्वयं के लिए निर्णय लेना ही होगा.

यह भी पढ़ेक्या आप इमोशनली इंटेलिजेंट हैं? (How Emotionally Intelligent Are You?)

सड़क के किनारे घने छायादार वृक्ष थे. ठंडी हवा चल रही थी. काफ़ी दूर निकल आने के कारण संध्या को कुछ भय-सा लगने लगा था. कुछ थकान-सी भी महसूस हो रही थी. सड़क के किनारे बेंच दिखाई दी तो उस पर बैठ गई और आती-जाती कारों को देखने लगी. हिंजेवाड़ी रोड पर बहुत-सी आईटी कंपनियां हैं. रोज़ तो सुबह और शाम के समय यहां कारों और बसों की रेलपेल मची रहती है, किंतु आज रविवार होने के कारण सड़क पर ट्रैफिक बहुत कम था. यहां शांति से बैठकर अपने बारे में वो कुछ सोच सकती थी, लेकिन सोचे भी तो क्या? बच्चों की बातों में आकर मकान बेचने की भारी भूल वो कर बैठी थी. अब उसका ख़ामियाज़ा सारी ज़िंदगी उसे भुगतना पड़ेगा. उसने एक ठंडी सांस भरी, तभी एक पुरुष स्वर से अपना नाम सुन वो चौंक पड़ी. उसने गर्दन उठाकर देखा. पैंट-कमीज़ पहने हाथ में छड़ी थामे क़रीब पैंसठ वर्षीय पुरुष को पहचानने में उसे तनिक भी देर न लगी. “अरे मोहनजी आप?” आश्‍चर्य मिश्रित ख़ुशी उसके चेहरे पर फैल गई.

मोहनजी और उनकी पत्नी सविता के साथ अपने रिश्ते को क्या नाम दे संध्या. विवाह होकर इस घर में आई, जतिन और अपने आसपास ही पाया उसने मोहनजी और सविता भाभी को. जतिन के हृदय के तार उस परिवार से पूरी तरह जुड़े हुए थे. उस स्नेह बंधन को पल्लवित और पोषित करने में संध्या ने अपना भरपूर सहयोग दिया था. उसे आज भी याद है, कैसे उसकी हर समस्या का समाधान मोहनजी और सविता भाभी मिनटों में कर दिया करते थे. दसवीं क्लास में था विनीत जब मोहनजी ट्रांसफ़र होकर पूना आ गए थे, फिर भी उनसे संपर्क बना रहा. दो वर्ष पूर्व सविता भाभी के स्वर्गवास के समय जतिन पूना आए भी थे, किंतु फिर न जाने क्यों मोहनजी से संपर्क टूट गया.

         रेनू मंडल

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES

Usha Gupta

Share
Published by
Usha Gupta

Recent Posts

कहानी- इस्ला 4 (Story Series- Isla 4)

“इस्ला! इस्ला का क्या अर्थ है?” इस प्रश्न के बाद मिवान ने सभी को अपनी…

March 2, 2023

कहानी- इस्ला 3 (Story Series- Isla 3)

  "इस विषय में सच और मिथ्या के बीच एक झीनी दीवार है. इसे तुम…

March 1, 2023

कहानी- इस्ला 2 (Story Series- Isla 2)

  “रहमत भाई, मैं स्त्री को डायन घोषित कर उसे अपमानित करने के इस प्राचीन…

February 28, 2023

कहानी- इस्ला 1 (Story Series- Isla 1)

  प्यारे इसी जंगल के बारे में बताने लगा. बोला, “कहते हैं कि कुछ लोग…

February 27, 2023

कहानी- अपराजिता 5 (Story Series- Aparajita 5)

  नागाधिराज की अनुभवी आंखों ने भांप लिया था कि यह त्रुटि, त्रुटि न होकर…

February 10, 2023

कहानी- अपराजिता 4 (Story Series- Aparajita 4)

  ‘‘आचार्य, मेरे कारण आप पर इतनी बड़ी विपत्ति आई है. मैं अपराधिन हूं आपकी.…

February 9, 2023
© Merisaheli