कहानी- पराए घर की बेटियां 1 (Story Series- Paraye Ghar Ki Betiyaan 1)

“इसी तरह लुटाती रही तो सास-ननदें तुम्हें कंगाल बना देंगी. हां, कहे देती हूं. अभी सब नया-नया है, इसलिए तुम्हें सब हरा ही दिखाई देता है. जल्दी ही पता चलेगा सास-ननदें ज़हर की पोटली होती हैं.” सुमति हंस दी, “तब कहो अम्मा, मैं और तुम ज़हर की पोटली हैं. मैं भाभी की ननद, तुम सास.”

पता है मुस्कुरा कर ज़ुर्म कर रही है, लेकिन गोपी मुस्कुरा दी. अम्मा मुस्कुराहट  सह न सकी, “गोपी, सिर में न बैठी रहो. चाय बनाओ.”

“अच्छा अम्मा.”

गोपी चाय बनाने चली गई. इधर अम्मा सुमति को मंत्र देती रहीं कि वह ससुराल में ग़ुलाम बन कर नहीं, मालकिन बनकर रहना सीखे.

सुमति की विदाई कर थका हुआ घर.

अम्मा ख़ूब रोने के कारण भारी हो गए फटे सुर में कहती जा रही हैं, “सास-ननदें घाघ होती हैं. उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर सुमति कहीं उन लोगों को अपनी साड़ियां न दे दे. बुढ़िया (अम्मा की सास) ने मेरी पेटी ख़ाली करा ली थी. बहुत समझाया है सुमति को, पर वह आजकल की लड़कियों की तरह चतुर नहीं है.”

और अम्मा की दृष्टि गोपी पर. साफ़ मतलब है गोपी चतुर है. अम्मा की नज़र परख गोपी रसोई में जा छिपी. लंबी रसोई के दूर वाले कोने में दोनों बुआ बैठी थीं. अम्मा के शासन में इनकी यह दशा है. गोपी को आते देख बड़ी बुआ बोलीं, “तनिक सुस्ता लो. सुमति के ब्याह में तुमने ग़ज़ब काम किया.”

गोपी को थकान से हरारत हो रही थी, “बुआ, अम्मा कहती हैं, मैंने कुछ भी सही ढंग से नहीं किया.”

“भउजी के रंग-ढंग देखते हमारी उमर गुजर गई दुलहिन. उन्हें अपनी सास जल्लाद लगती थी. अब तुम चालबाज़ लगती हो. वह तो यही कहेंगी…”

इसी क्षण अम्मा अपना थुल-थुल शरीर संभाले रसोई में दाख़िल हुईं. गोपी और बुआओं को एक साथ देख तमक गईं “गोपी, यहां डटी हो? थकान से मेरा सिर फट रहा है. तेल मालिश कर दो, तनिक ठीक हो जाए.”

दोनों बुआ समझ गईर्ं, गोपी का उनके पास होना अम्मा को चालबाज़ी लगती है. गोपी अम्मा के पीछे चल दी. अम्मा बिस्तर पर छा गईं.

“वे सांप और बिच्छी क्या समझा रही थीं तुझे?”

बड़ी बुआ सांप, छोटी बुआ बिच्छू.

“नहीं तो.”

“ख़ूब समझती हूं. ननदें ज़हर की पोटली होती हैं. कल ही चलता कर दूंगी.”

अम्मा का संपर्क डेंजर ज़ोन होता है, तथापि गोपी थोड़ा मुस्कुरा दी कि अम्मा की तीनों बेटियां भी ज़हर की पोटली… गोपी की मुस्कान का अर्थ समझ अम्मा की चमड़ी चुनचुनाने लगी, “क्यों मुस्कुराई? तुम्हारी ननदें गऊ की तरह हैं.”

“हां अम्मा, गऊ.”

अम्मा को लगा गोपी के अनुमोदन में रहस्य छिपा है. गर्दन अकड़ाकर बोलीं, “मीरा और नीरा दोनों दो-चार दिन में चली जाएंगी. घर की आख़िरी शादी थी, दोनों को चेन देना है. दामादों को अंगूठी ठीक रहेगी.”

“बुआ को भी कुछ…”

अम्मा का चेहरा बागी दिखने लगा, “बिना लिए वे दोनों टलने वाली नहीं. नेग में बहुत साड़ियां आई हैं. उन्हीं में से दे देंगे.”

“यह ठीक न होगा अम्मा. यह उनका भी मायका है.”

“जब भाई की बेटियां बिदा होने लगें, तो मायका उनका हो जाता है.”

गोपी आगे न बोल सकी.

पखवाड़े बाद गोपी का पति विमल सुमति को लेने गया, पर ससुरालवालों ने नहीं भेजा. विमल सुमति को लिए बिना लौट आया.

“अम्मा, सुमति की बड़ी ननद कनाडा से आई है. वह सुमति के साथ थोड़ा रहना चाहती है. इतनी दूर से बार-बार आना नहीं हो पाता.”

अम्मा का सिर घूम गया, “ये कनाडा वाली तो बड़ी हठीली है. पहली बार गई है सुमति, अभी उसे ससुराल में अच्छा न लगता होगा. विमल तुम ले आते उसे.”

बाबूजी बोले, “सुमति अब उस परिवार की बहू है. वह हमारे अनुसार नहीं, ससुरालवालों के अनुसार चलेगी.”

“जैसे हमसे रिसता (रिश्ता) ख़तम हो गया.”

“गोपी को तुम नेक सलाह देती हो न. बहू को ससुरालवालों के हिसाब से चलना चाहिए.”

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अम्मा ने फटकार दिया, “सीधी बात को उलझाया न करो. और बहू का बहुत पक्ष न लो. सिर पर बैठेगी और बुढ़ापे में एक लोटिया पानी न देगी. बेटियां पूछ लें तो पूछ लें.”

मीरा जीजी और नीरा जीजी न अम्मा की सेवा करती हैं, न काम में मदद. उनके आने पर अम्मा ख़ास सतर्क हो जाती हैं. बेटियों की सुख-सुविधा में कमी न रहे. तब भी अम्मा को गुमान है बेटियां, बुढ़ापा पार कराएंगी.

सुमति अगले सप्ताह आ गई. अम्मा उसके बैगों की गुप्तचरी में लग गईं. तीन दामी साड़ियां नदारद.

“सुमति, साड़ियां सास ने हड़प लीं?”

“नहीं अम्मा, मैंने बड़ी ननद, जेठानी और माताजी को एक-एक दे दी.”

पुत्री की नादानी अम्मा को नागवार लगी, “इतना सिखाकर भेजा, पर तुझे अकल ही नहीं है.”

“अम्मा, भाभी जब पहली बार आई थीं तो तुमने उनकी तीन साड़ियां रख ली थीं. मीरा जीजी, नीरा जीजी और अपने लिए. मुझे लगा, माताजी जबरन रखें, इससे बेहतर है मैं अपनी इच्छा से ही उन्हें दे दूं. यह क्या कि माल भी जाए और नाम भी न हो.”

“इसी तरह लुटाती रही तो सास-ननदें तुम्हें कंगाल बना देंगी. हां, कहे देती हूं. अभी सब नया-नया है, इसलिए तुम्हें सब हरा ही दिखाई देता है. जल्दी ही पता चलेगा सास-ननदें ज़हर की पोटली होती हैं.” सुमति हंस दी, “तब कहो अम्मा, मैं और तुम ज़हर की पोटली हैं. मैं भाभी की ननद, तुम सास.”

पता है मुस्कुरा कर ज़ुर्म कर रही है, लेकिन गोपी मुस्कुरा दी. अम्मा मुस्कुराहट  सह न सकी, “गोपी, सिर में न बैठी रहो. चाय बनाओ.”

“अच्छा अम्मा.”

गोपी चाय बनाने चली गई. इधर अम्मा सुमति को मंत्र देती रहीं कि वह ससुराल में ग़ुलाम बन कर नहीं, मालकिन बनकर रहना सीखे. जबकि अम्मा ने गोपी को ग़ुलाम से अधिक कभी नहीं माना.

     सुषमा मुनीन्द्र

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