कहानी- परिवार 1 (Story Series- Pariwaar 1)

दीप्ति की आंखें भर आईं. ठीक इसी तरह एक दिन मांजी ने शगुन देकर दीपक के लिए उसे स्वीकारा था. तब मन में कितनी उमंगें थीं, नए जीवन में प्रवेश की ख़ुशी थी, नए परिवार के साथ बंधने की प्रसन्नता थी. और आज वही सब दोहराया जा रहा है, लेकिन मन में कोई ख़ुशी व उत्साह नहीं है, उल्टे दुखी और बुझा-बुझा-सा है मन.

रात में अंकुर ने दीप्ति के गले में बांहें डालकर बड़े लाड़ से पूछा, “मम्मी, वो अंकल और दादा-दादी कौन थे?”

“वो तुम्हारे दादाजी के दोस्त और उनका परिवार था बेटा.” दीप्ति ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरकर कहा. अंकुर उससे चिपककर जल्दी ही सो गया, पर दीप्ति को देर रात तक नींद नहीं आई.

आज दिनभर दुकान पर दीप्ति का मन उचाट-सा रहा. दिमाग़ में उथल-पुथल मची रही. सुबह घर से निकलते समय ही मांजी यानी दीप्ति की सास ने धीमे स्वर में कह दिया था कि बेटी शाम को जल्दी घर आ जाना और उनके जल्दी घर आ जाने का अर्थ वह भली-भांति समझती थी. इसलिए अनमनी-सी रही वह दिनभर. बगलवाली बेला ने भी उसे दो-तीन बार टोका, “क्या बात है दीप्ति? आज इतनी उदास क्यों लग रही हो?”

दीप्ति मुस्कुरा भर दी. पांच बजे बेला और सामनेवाली प्रज्ञा को दुकान का ख़्याल रखने का कहकर घर चली गई. जाते ही अंकुर उसके पैरों से लिपट गया. मांजी ने उसे चाय दी और तैयार होने को कहा. चाय पीकर दीप्ति ने हाथ-मुंह धोया और कपड़े बदल तैयार हो गई. मांजी ने ज़बरदस्ती उसके गले में चेन पहना दी और माथे पर बिंदी लगा दी. नियत समय पर विनय और उसके माता-पिता दीप्ति को देखने आ गए. दीप्ति को तो वे लोग फ़ोटो देखकर ही पसंद कर चुके थे. आज तो एक तरह से बात पक्की कर विवाह का मुहूर्त निकालने आए थे. विनय की माताजी ने शगुन देकर दीप्ति को एक तरह से अपनी बहू बना लिया.

दीप्ति की आंखें भर आईं. ठीक इसी तरह एक दिन मांजी ने शगुन देकर दीपक के लिए उसे स्वीकारा था. तब मन में कितनी उमंगें थीं, नए जीवन में प्रवेश की ख़ुशी थी, नए परिवार के साथ बंधने की प्रसन्नता थी. और आज वही सब दोहराया जा रहा है, लेकिन मन में कोई ख़ुशी व उत्साह नहीं है, उल्टे दुखी और बुझा-बुझा-सा है मन.

रात में अंकुर ने दीप्ति के गले में बांहें डालकर बड़े लाड़ से पूछा, “मम्मी, वो अंकल और दादा-दादी कौन थे?”

“वो तुम्हारे दादाजी के दोस्त और उनका परिवार था बेटा.” दीप्ति ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरकर कहा. अंकुर उससे चिपककर जल्दी ही सो गया, पर दीप्ति को देर रात तक नींद नहीं आई.

छह साल पहले ही तो दीपक से विवाह हुआ था दीप्ति का. प्यार करनेवाला पति, दिनभर स्नेह बरसानेवाले सास-ससुर पाकर दीप्ति को मानो दोनों जहां की ख़ुशियां मिल गई थीं. बचपन में ही दीप्ति के माता-पिता की मृत्यु हो गई थी. वह मामा-मामी के यहां पली-बढ़ी.  उन्होंने उसे बहुत अच्छे से रखा, फिर भी दीप्ति का मन किसी को मां-पिताजी कहने को तरसता रहता. शादी के बाद दीपक के माता-पिता ने उसे भरपूर प्यार दिया. दीपक उनका इकलौता बेटा था. दीप्ति के रूप में उन्हें बेटी भी मिल गई.

सालभर के अंदर ही अंकुर का जन्म हुआ. दीप्ति और दीपक के प्यार का अंकुर. दीपक बेटी चाहता था, फिर भी वह बेटे के जन्म पर ख़ुश हुआ. उसी ने बहुत लाड़ से उसका नाम अंकुर रखा. अपने नए परिवार में दीप्ति बहुत संतुष्ट और प्रसन्न थी.

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सबके प्यार व अंकुर के लालन-पालन में वह अपने बचपन के अभावों और माता-पिता की असमय हुर्ई मृत्यु के हादसे को भूल गई थी. अब जीवन से दीप्ति को कोई शिकायत नहीं थी. हर तरह से सुख, समृद्ध और संतुष्ट थी वह.

लेकिन क्रूर होनी को दीप्ति का यह सुख रास नहीं आया. मामूली से बुख़ार में एक दवाई के रिएक्शन से दीपक की हालत ऐसी बिगड़ी कि मात्र तीन दिनों में ही वह चल बसा. दीप्ति का मस्तिष्क शून्य हो गया. चार दिन पहले का हंसता-खिलखिलाता दीपक यूं अचानक ही चला गया कि आज दुनिया में कहीं उसका नामोनिशान तक बाकी न रहा. दीप्ति की दुनिया उजड़ गई. नन्हें अंकुर का रोना भी उसको सुनाई नहीं देता था. मात्र ढाई साल का ही तो था वह और उसके सिर से पिता का साया उठ गया.

दीपक के माता-पिता ने अपने दिल पर पत्थर रखकर इस हादसे को बर्दाश्त किया और अंकुर व दीप्ति को संभालने में अपना ग़म भुलाने लगे. महीनों बाद दीप्ति थोड़ी संभली और अंकुर की देखभाल में अपना समय काटने लगी. उनके घर के पास ही एक छोटा बाज़ार था, जहां ऊपर वाली मंज़िल पर महिला मार्केट था. वहां बहुत सारी गृहिणियां अपना व्यवसाय चलाती थीं. कोई पार्लर-बुटीक, तो कोई सिलाई-पेंटिंग क्लास. घरेलू काम से निवृत्त होकर औरतें अपनी-अपनी दुकानों पर आ जातीं. सब सहेलियां बैठी रहतीं, आपस में दुख-सुख भी बांट लेतीं और कुछ रचनात्मक काम भी हो जाता. दीप्ति के ससुरजी ने भी उसे वहां एक दुकान दिलवा दी. दीप्ति नियम से अंकुर को स्कूल भेजकर दुकान पर आ जाती. दिनभर ग्राहकों में और आसपास की औरतों से बातें करने में बीत जाता. बेला और प्रज्ञा से तो उसकी अच्छी घनिष्ठता हो गई थी. अब वह फिर से सामान्य होने लगी थी. लेकिन मां और पिताजी को उसके भविष्य की चिंता सताने लगी थी. वे उसके पुनर्विवाह के लिए लड़का ढूंढ़ने लगे. उनकी चिंता भी स्वाभाविक ही थी, क्योंकि वह मात्र छब्बीस साल की ही तो थी अभी. पहाड़-सी ज़िंदगी वह अकेले कैसे काटती?

डॉ. विनीता राहुरीकर

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