… “बेटा, तुम्हें लड़की का रंग पसंद है?”
“हां.”
“लंबाई.”
“हां.”
“शकल?.. नौकरी.. स्वभाव…”
“हां… हां हां…”
“कहीं कोई और निगाह में… हालांकि ये पहले बताना चाहिए था पर…”
“नहीं.”
“फिर क्या बात है, बेटा? अपने ताऊजी को नहीं बताओगे कि तुम्हारे मन में क्या संशय है?” ताऊजी ने स्वर में ढेर सारा
प्यार घोला.
प्यार की तपिश पाकर सैंडी के मन पर रखा सख्त लोहा पिघल गया, “मैं उससे एक बार और मिलना चाहता हूं. कहीं मॉल में या ऐसी जगह तीन-चार घंटों के लिए जहां हम दोनों के अलावा घर का कोई और सदस्य न हो. जहां मैं कुछ मुद्दों पर खुलकर बात कर सकूं और वो भी अपना दिल खोलकर रखने के लिए स्वतंत्र हो.”
“बस, इतनी सी बात? बेटा, एक नहीं हज़ार बार मिलो, पर कोई रस्म हो जाने दो, फिर…”
“फिर क्या फ़ायदा ताऊजी, मैं तो बंधने से पहले उसे समझना और ख़ुद को उसे समझाना चाहता हूं.” अब ये पिघला लोहा उसूल पसंद ताऊजी के कानों में सीसा बनकर उतर गया. उनका स्वर सख्त हो गया, “तो कल क्यों नहीं कीं वो बातें? कल क्या कोई तुम्हारी ज़ुबान पकड़े बैठा था? तुम अकेले ही तो थे न उसके साथ कमरे में? ये तो कोई बात नहीं हुई कि किसी की लड़की के साथ इतना समय गुज़ारोगे, हंसो-बोलोगे, उसे उठा-बैठाकर, चला-फिराकर चेक करोगे, फोन नंबर लोगे, मिठाई खाओ-खिलाओगे, फोटो ऐप पर फोटोग्राफ्स का आदान-प्रदान करोगे. उसके बाद दूसरे दिन कहोगे कि मैं अभी श्योर नहीं हूं, एक बार और मिलना चाहता हूं.” ताऊजी का स्वर ताल ठोकनेवाले अनुभवी पहलवान की तरह स्थिर था.
सैंडी का स्वर भी चुनौती पाकर अखाड़े को आत्मसम्मान का प्रश्न बना लेनेवाले पहलवान की तरह अड़ियल हो गया, “अरे, आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे मैंने उससे उठने-बैठने चल-फिरकर दिखाने को कहा हो. अरे, वो तो स्वाभाविक रूप से जैसे वो, वैसे ही मैं उसके सामने उठा-बैठा, चला-फिरा… मिठाई आपके कहने पर खाई-खिलाई. और हां, मैंने तो गाना भी सुनाया, जो उसने नहीं सुनाया. अब मैं तो गाना सुनाकर प्रदर्शनी नहीं हो गया. न ही मैंने ये कहा कि लड़की को गाना नहीं आता, इसलिए मैं उससे शादी नहीं करूंगा?”
“हूं गाना, अरे हां. क्यों सुनाया इतना रूमानी गाना, जब उससे शादी नहीं करनी थी?”
“अरे, मैं कब कह रहा हूं कि मुझे उससे शादी नहीं करनी. और मुझे जो गाने आते हैं, वही तो सुनाऊंगा. उसके अभिभावकों ने कहा, तो मैंने एक बार में सुना दिया, जैसे कि मेरी आदत है.”
“तुम कह रहे हो कि तुम्हें शादी नहीं करनी. फिर सोचने का समय और दूसरी मुलाक़ात मांगने से तुम्हारा क्या मतलब है? और सिर्फ़ रूमानी गाने आते हैं तुम्हें? और अभी जो मोहल्ले के गणतंत्र दिवस में गाया था? कर चले हम फिदा.. वो गाना नहीं है?”
“हद करते हैं आप ताऊजी, अरे वो गाना…”
“लगता है, आप लोग मुद्दे से भटक रहे हैं.” दर्शक दीर्घा की तरह बैठे परिवार के बाकी सदस्यों में से पहली बार किसी ने मुंह खोला.
“और मुद्दा ये है कि तुम जो चाह रहे हो, उसकी इजाज़त मैं कतई दूंगा नहीं. क्या गारंटी है कि कल चार घंटों में जो तुम नहीं कह पाए, वो अगले चार घंटों में कह लोगे? साफ़-साफ़ बताओ, आख़िर चाहते क्या हो तुम?”
“बस, थोड़ा सा समय और एक और मुलाक़ात.”
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
भावना प्रकाश
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