कहानी- प्रतीक्षा 2 (Story Series- Praktisha 2)

नहीं, यह पूरी तरह ग़लत है सोनिया. जो चीज़ ग़लत है, उसे चाहे जिस तर्क के लिबास में लपेटा जाए, वह ग़लत ही रहेगी. दिमाग़ बोल रहा था.

कल क्या होगा? तुमने सोचा है कभी? क्या होगा?

जगहंसाई होगी. लोग तुम्हारे नाम पर, तुम्हारे खानदान पर इल्ज़ाम लगाएंगे, अनर्गल बातें करेंगे. कहेंगे- लड़की भाग गई. तुम्हारे लिए इस घर के दरवाज़े सदा के लिए बंद हो जाएंगे. सोनिया दिल से नहीं, दिमाग़ से काम लो. अभी भी व़क़्त है, मत जाओ. अभी घर की बात घर में है… मुझे अपना सिर भारी-सा लगने लगा. मन और दिमाग़ के इस सवाल-जवाब की फेहरिस्त से मैं परेशान होने लगी. मुझे लगा कि यदि और ज़्यादा देर तक सोचती रही, तो शायद फिर मैं कभी भी विभोर के साथ न जा सकूंगी.

अब फैसले की घड़ी नज़दीक आ चुकी थी. मैंने घड़ी को देखा, तो दो-पन्द्रह हो चुके थे. मैंने सोचा, अब चलना चाहिए.

धीरे से लैम्प बुझाया. बिना आवाज़ किए बाहर आंगन में आई तो नीले आसमान में तारे ही तारे छिटके हुए दिखाई दिए. आसमान, नाचते मोर के पंख जैसा लगा. ठंडी हवा का एक झोंका बदन से आकर टकराया. इस झोंके की परवाह न कर मैं आंगन पार कर घर का बंद मुख्य दरवाज़ा खोलनेवाली ही थी कि हृदय की गहराइयों से आवाज़ आई-

यह क्या कर रही हो सोनिया? क्या यही हमारे परिवार की परंपरा है? क्या होगा इस प्रतिष्ठित परिवार की इ़ज़्ज़त का?

कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है. यह दूसरी आवाज़ थी.

तुमने कभी अपने पिता को तो नहीं देखा, क्योंकि वे बचपन में ही चल बसे थे, लेकिन मां ने कैसे तुम्हें पाला, क्या यह भी तुझसे छिपा है?

नहीं, मुझे सब पता है. लेकिन यह भी सच है कि जब बच्चे समझदार हो जाते हैं, तो उन्हें इस तरह के क़दम उठाने का पूरा अधिकार होता है. शायद ऐसा ही विभोर भी सोचता है. इस विचार की पुष्टि में मेरा मन मेरे साथ खड़ा था.

अब ज़्यादा सोच-विचार की ज़रूरत नहीं है सोनिया. विभोर तुम्हारा इंतज़ार कर रहा होगा. चलो, जल्दी करो… मन के अंदर से आदेशात्मक आवाज़ आई.

नहीं, यह पूरी तरह ग़लत है सोनिया. जो चीज़ ग़लत है, उसे चाहे जिस तर्क के लिबास में लपेटा जाए, वह ग़लत ही रहेगी. दिमाग़ बोल रहा था.

कल क्या होगा? तुमने सोचा है कभी? क्या होगा?

यह भी पढ़ें: लघु उद्योग- चॉकलेट मेकिंग- छोटा इन्वेस्टमेंट बड़ा फायदा (Small Scale Industry- Chocolate Making- Small Investment Big Returns)

जगहंसाई होगी. लोग तुम्हारे नाम पर, तुम्हारे खानदान पर इल्ज़ाम लगाएंगे, अनर्गल बातें करेंगे. कहेंगे- लड़की भाग गई. तुम्हारे लिए इस घर के दरवाज़े सदा के लिए बंद हो जाएंगे. सोनिया दिल से नहीं, दिमाग़ से काम लो. अभी भी व़क़्त है, मत जाओ. अभी घर की बात घर में है… मुझे अपना सिर भारी-सा लगने लगा. मन और दिमाग़ के इस सवाल-जवाब की फेहरिस्त से मैं परेशान होने लगी. मुझे लगा कि यदि और ज़्यादा देर तक सोचती रही, तो शायद फिर मैं कभी भी विभोर के साथ न जा सकूंगी.

मैंने अपने सिर को ज़ोर से झटका देकर विचारों से मुक्त होने का असफल प्रयास किया और दरवाज़ा खोलकर घर से बाहर गली में आ गई. गली पूरी तरह सुनसान थी. मुख्य सड़क पर आई, तो एक ऑटोवाले ने मेरे हाथ में सूटकेस देखकर ऑटो रोक दिया.

मैं ऑटो में बैठी और उसे रेलवे स्टेशन चलने को कहा.

ऑटो ने ऱफ़्तार पकड़ी. धीरे-धीरे शहर छूट रहा था. शहर क्या छूट रहा था? मां छूट रही थी. मेरा अतीत छूट रहा था. वे गलियां छूट रही थीं, जहां मैंने अपना बचपन गुज़ारा था. मैंने आंखों से बहते हुए आंसुओं को रोकने का असफल प्रयास किया. मैं सोच के समंदर में डूबती-उतराती रही.

तभी रेलवे स्टेशन दिखाई देने लगा. ऑटो रुका, मैं उतरी. तभी अंधेरे से विभोर प्रकट हुआ, उसको देख मुझे ऐसा लगा कि वह काफ़ी देर से मेरा इंतज़ार कर रहा था. उसने ही ऑटो के पैसे दिए. मेरा सूटकेस हाथों में लेकर वह तेज़ चाल से प्लेटफॉर्म की ओर बढ़ा. मैं भी उसके पीछे-पीछे तेज़ क़दमों से चलने लगी.

प्लेटफॉर्म नंबर चार पर पहुंचकर उसने एक बेंच के पास सूटकेस रखकर कहा, “बैठो.” मैं ठीक से बैठ भी नहीं पाई थी कि उसने फिर कहा, “सब ठीक है?”

मैंने सहमति में सिर हिलाया.

वह कुछ देर तक चुप रहा. शायद उसका चुप रहना उसे ही असहनीय-सा महसूस हो रहा था. वह फिर बोला, “गाड़ी एक घंटा लेट है.”

मैं कुछ नहीं बोली, तो उसने कहा, “अभी आता हूं.”

वह दौड़कर दो कॉफी ले आया.

हम दोनों ने ख़ामोशी से कॉफी पी.

उसने धीरे-से स्नेह भरे लहजे में पूछा, “रुपए-जेवर तो साथ ले आई हो न?”

अचानक मां की अंतिम सलाह दिमाग़ में कौंधी.

सहसा मेरे मुंह से निकल पड़ा, “नहीं, विभोर. सब कुछ गड़बड़ हो गया था. मैं कुछ भी साथ नहीं ला सकी.”

“क्यों?”

“लॉकर की चाबी मां ने जाने कहां रखी थी, दिनभर ढूंढ़ती रही, मिली ही नहीं.”

उसका सांवला, गोल चेहरा ग़ुस्से से सुलग उठा.

अचानक वह बिफर उठा. उसका इस तरह बिफरना मेरे लिए अप्रत्याशित था.

     प्रभात दुबे

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES

Summary
Article Name
कहानी- प्रतीक्षा 2 (Story Series- Praktisha 2) | Hindi Kahaniya | Story in Hindi
Description
जगहंसाई होगी. लोग तुम्हारे नाम पर, तुम्हारे खानदान पर इल्ज़ाम लगाएंगे, अनर्गल बातें करेंगे. कहेंगे- लड़की भाग गई. तुम्हारे लिए इस घर के दरवाज़े सदा के लिए बंद हो जाएंगे. सोनिया दिल से नहीं, दिमाग़ से काम लो. अभी भी व़क़्त है, मत जाओ. अभी घर की बात घर में है... मुझे अपना सिर भारी-सा लगने लगा. मन और दिमाग़ के इस सवाल-जवाब की फेहरिस्त से मैं परेशान होने लगी. मुझे लगा कि यदि और ज़्यादा देर तक सोचती रही, तो शायद फिर मैं कभी भी विभोर के साथ न जा सकूंगी.
Author
Publisher Name
Pioneer Book Company Pvt Ltd
Publisher Logo
Usha Gupta

Share
Published by
Usha Gupta

Recent Posts

कहानी- इस्ला 4 (Story Series- Isla 4)

“इस्ला! इस्ला का क्या अर्थ है?” इस प्रश्न के बाद मिवान ने सभी को अपनी…

March 2, 2023

कहानी- इस्ला 3 (Story Series- Isla 3)

  "इस विषय में सच और मिथ्या के बीच एक झीनी दीवार है. इसे तुम…

March 1, 2023

कहानी- इस्ला 2 (Story Series- Isla 2)

  “रहमत भाई, मैं स्त्री को डायन घोषित कर उसे अपमानित करने के इस प्राचीन…

February 28, 2023

कहानी- इस्ला 1 (Story Series- Isla 1)

  प्यारे इसी जंगल के बारे में बताने लगा. बोला, “कहते हैं कि कुछ लोग…

February 27, 2023

कहानी- अपराजिता 5 (Story Series- Aparajita 5)

  नागाधिराज की अनुभवी आंखों ने भांप लिया था कि यह त्रुटि, त्रुटि न होकर…

February 10, 2023

कहानी- अपराजिता 4 (Story Series- Aparajita 4)

  ‘‘आचार्य, मेरे कारण आप पर इतनी बड़ी विपत्ति आई है. मैं अपराधिन हूं आपकी.…

February 9, 2023
© Merisaheli