… जाॅब लगते ही रात दिन उठते बैठते मम्मी का मेरे विवाह का ज़िक्र करते रहना मुझमें खीज पैदा करता था. अभी तो ज़िंदगी को अपनी मर्ज़ी से जीने का वक़्त आया था. उस शाम ऑफिस से लौटते ही चाय का कप हाथ में देकर मम्मी बोली थीं, ‘‘अनु, मीनू ने तुम्हारे लिए एक लड़के का प्रस्ताव भेजा है.’’
‘‘ओह मम्मी, प्लीज़, मैं अभी शादी नहीं करना चाहती और अरेंज मैरिज तो बिल्कुल भी नहीं. एक अंजान व्यक्ति के साथ ज़िंदगी व्यतीत करने का फ़ैसला लोग कैसे ले लेते हैं, मेरी समझ से परे है.’’
‘‘इसका मतलब तुम्हारी ज़िंदगी में कोई है? बताओ, मैं पापा से बात करुं.”
‘‘मैंने ऐसा कब कहा कि मेरी ज़िंदगी में कोई है. मम्मी, मैं नियति में विश्वास रखती हूं. इतनी बड़ी दुनिया में नियति ने मेरे लिए कोई तो बनाया ही होगा और देखना, कुछ तो ऐसे संयोग बनेंगे कि वह स्वयं चलकर मेरे पास आएगा.’’
तो क्या यही वह संयोग था, जो मेरा भविष्य तय करने वाला था? मुंबई में दीदी के मकान का मुहूर्त होना, मम्मी-पापा की जाने में असमर्थता सो मेरा मुंबई पहुंचना, क्या यह सब नियति द्वारा पूर्व निर्धारित था?
क्या राहुल ही वह इंसान था, जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी? आज सोच रही हूं, काश! मेरी चेतना इतनी जाग्रत होती कि मुझसे कोई भूल न हुई होती.
एयरपोर्ट पहुंचते ही दीदी का फोन आया था. उन्होंने अपने देवर को मुझे रिसीव करने भेजा था. मैं तो उसे पहचानती तक नहीं थी, क्योंकि दीदी की शादी के समय वह लंदन में था. मैं असमंजस में थी, तभी एक स्मार्ट-सा युवक क़रीब आकर बोला, ‘‘एक्सक्यूज़ मी, आप ही अनु हैं.’’
‘‘जी हां,’’ मैंने उसे गौर से देखा.
‘‘मैं डा. राहुल, आपकी मीनू दीदी का फेवरेट देवर. भाभी ने आपको लिवा लाने भेजा है.’’ वह मुस्कुराया और मेरे हाथ से अटैची लेकर चलने के लिए मुड़ा, किंतु मैं वहीं ठिठकी खड़ी रही.
मेरी हिचकिचाहट भांप वह बोला, ‘‘आपको शायद मेरे साथ चलने में डर लग रहा है.’’
‘‘जी कतई नहीं.’’ मैंने बोल्ड बनने का प्रयास किया. कार में बैठते हुए धीरे से पूछा, ‘‘यहां से घर कितनी दूर है?”
‘‘अगर साथी अच्छा हो, तो बस चंद मिनटों का फ़ासला वरना मीलों दूर.’’ राहुल मुस्कुरा रहा था. मैं चाहकर भी नहीं पूछ पाई कि आज का यह फ़ासला कुछ मिनटों का था या मीलों दूर का…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
रेनू मंडल
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