निर्णय यही रहा कि इतना बड़ा नहीं था मेरा मन कि उसमें एक के रहते दूसरा प्रवेश पा सके.
इसी बीच विश्वभर में कोविड की महामारी फैल गई. जो जहां था, वहीं का होकर रह गया. लगभग छह माह बीत चुके थे मुझे घर गए. मां मुझे लेकर बहुत चिंतित थीं. घर के बाकी सदस्य सब साथ थे, बस मैं ही अकेली पड़ गई थी.
… बुआ के कुछ रिश्तेदार हमारे घर भी रुके हुए थे. उनके जाने के बाद मैंने घर समेटा, ताकि बारात से लौटकर मेहमानों के सोने का प्रबंध किया. और जब बारात चल पड़ी, तो मैं भी अपना सामान बैग में डाल लौटने को तैयार हो गई. किसी को बताया नहीं था, पर मैं उस दिन की वापसी का टिकट लेकर ही आई थी. जाते समय मां को समझा दिया कि कल ही मेरा मुंबई पहुंचना बहुत आवश्यक है. उन्होंने एक गहरी नज़र मुझ पर डाली- क्या वह समझ गई थीं मेरे मन का द्वंद्व?
पर अब बहुत देर हो चुकी थी.
पढ़ाई पूरी करते ही मैंने मुंबई में ही नौकरी ढूंढ़ ली. मैं घर जाने से कतराने लगी थी. भैया-भाभी को ही मुंबई बुलवा लिया यह कहकर कि इसी बहाने मुंबई भी घूम जाएंगे. मां ने कितनी बार बताया कि सुधा तुम्हें बहुत याद कर रही है. मां चाहती थीं कि मैं भी विवाह के लिए मान जाऊं, पर मैं किसी न किसी बहाने टालती रही. आगे पढ़ने की योजना बना ली. सुना आयुष का बेटा हुआ है. नहीं जानती कि ख़ुश हुई थी या नहीं? शायद उसे खो देने का एहसास दुगना हो गया था यह सोचकर कि वह बेटा मेरा हो सकता था.
बचपन में कोई बात होने पर सीधे मां की शरण जाती थी. हर समस्या का हल होता था उनके पास, पर आज यह भी संभव नहीं था.
आज फ़ैसला मुझे स्वयं करना था. मैं अपने लिए एक साथी तलाश लूं अथवा एक बंद हो चुके दरवाज़े को तमाम उम्र निहारती रहूं?
अकेली ही खड़ी थी एक दोराहे पर, अपने ठिकाने से भी अनभिज्ञ.
निर्णय यही रहा कि इतना बड़ा नहीं था मेरा मन कि उसमें एक के रहते दूसरा प्रवेश पा सके.
इसी बीच विश्वभर में कोविड की महामारी फैल गई. जो जहां था, वहीं का होकर रह गया. लगभग छह माह बीत चुके थे मुझे घर गए. मां मुझे लेकर बहुत चिंतित थीं. घर के बाकी सदस्य सब साथ थे, बस मैं ही अकेली पड़ गई थी. दफ़्तर का काम तो यूं भी अब घर से हो रहा था, अतः हवाई यात्रा के खुलते ही मैंने घर जाने की ठानी और सही सलामत पहुंच भी गई. क्या तो सुखद एहसास था इतने दिनों बाद सब अपनों से मिलकर. इस बीच ऐसे-ऐसे समाचार मिलते रहे थे कि घर में सब को सलामत देखकर ख़ुशी के आंसू निकल आए. स्वयं के लिए भी सुरक्षा की भावना आ गई. बहुत कुछ बताना था, बहुत कुछ पूछना था. दूर-पास की कुछ अनपेक्षित दुखद ख़बरें भी थीं और शायद इसलिए सबके चेहरों से मुस्कुराहट ग़ायब थी कि किसी बात पर भाभी ने कहा, “यह तो आयुषजी के जाने से पहले की बात है..?”
और मैंने यूं ही पूछ लिया, “कहां गए हैं यह लोग?”
जो सुना उसका तो अंदाज़ा ही नहीं था.
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आयुष की कारोना से मृत्यु हुए एक माह बीत चुका था. तब मुझे ध्यान आया कि मुंबई से मैं जब भी बातचीत करती, तो सुधा बुआ का नाम आने पर मां चुप-सी हो जातीं और बात करने लगतीं.
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