कहानी- प्यार जैसा कुछ नहीं, लेकिन… 5 (Story Series- Pyar Jaisa Kuch Bhi Nahi, Lekin… 5)

आज भी जब मैं आईना देखती हूं, तो अपनी पलकों के खूंटे में टंगी उसकी नज़र, झांकती हुई मिल जाती है.
मैं! मैं तो ठीक ही थी, ठीक ही रही और आज भी ठीक ही हूं. उसकी याद! वो क्यों आएगी. नहीं, नहीं, कभी नहीं आती मुझे उसकी याद! बस, जब उस गली से गुज़रती हूं… बस, जब अपने हाथों की मेहंदी में श्लोक के नाम का S देखती हूं… बस, जब बरसात होती है… बस, जब किसी को हाथ में प्लास्टर चढ़ाए देखती हूं… तब; तब गीली आंखों के पीछे मुस्कुरा देती हूं. प्यार! उससे! अरे, कभी भी नहीं! मुझे प्यार जैसा कुछ नहीं है और ना ही कभी था, लेकिन…

 

 

 

 

 

इस सवाल पर उसने अपना टूटा हाथ ऐसे उठाया मानो वो हाथ न होकर कोई शील्ड हो जिसे जनाब ने अभी-अभी जीता है. जितना गर्व उसे ख़ुद पर होगा, उस सभी को बटोर कर उसने इस सवाल का जवाब दिया.
“वहां दिल नहीं लगता था. यहां की याद आती थी.” थोड़ी देर रुककर मुझे ऐसे देखा जैसे मेरे चेहरे पर कुछ तलाश रहा हो, लेकिन मेरा चेहरा पहले की तरह भावशून्य ही रहा. पर बंदे में ग़जब का आत्मविश्वास और बेशर्मी थी, अभी भी मुस्कुरा रहा था.
बोला, “अब यह बात पापाजी को बताई, तो उन्होंने डांट लगा दी. यू नो ना, ये बड़े लोग तो बस पढ़ाई-नौकरी के अलावा कुछ सोचते ही नहीं. इस पढ़ाई और नौकरी की दौड़ में एक बेचारा दिल पीछे रह जाता है. हां, तो जब हमारी बुद्धि की टांग टूटी, तो हम दिल के सहारे खड़े हो गए. यहां आने के लिए कई तिकड़म लगाए, पर कुछ नहीं हुआ. तो बस यह उपाय कर लिया. अभी कुछ महीने तो यही हूं, बाद की बाद में सोचेंगे.”

 

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“तू तो पूरा पागल है.” यह कहकर गरिमा तो हंसने लगी, लेकिन मुझे उसकी इस मूर्खता पर हंसी नहीं, ग़ुस्सा आया. मैंने कनखियों से देखा, तो पाया कि वह मेरे चेहरे को ही पढ़ने की कोशिश में लगा हुआ है. शायद मेरे मन के गीले कोने को तलाश रहा था. लेकिन जिस मरुस्थल को बड़ी मेहनत और जतन से सींचा गया हो, वहां तरलता खोजना मूर्खता थी. इसलिए गरिमा ने जब पहले कंधा मारकर और फिर भौंहें उचकाकर कुछ कहने को कहा, तो मैंने अपने आवाज़ की सख़्ती को दबाने का प्रयास भी नहीं किया.
बोली, “पागल नहीं मूर्ख! किसी एक के मन की बात को दूसरे के दिल तक पहुंचने के लिए भावनाओं से होकर गुज़रना पड़ता है. यह नहीं कि खड़े हो गए और घूर रहे हैं. सामनेवाला नापसंदगी बता रहा है, लेकिन हम तो अव्वल दर्जे के बेशर्म ठहरे, अंत तक लगे रहेंगे. जिस रास्ते पर नो एंट्री का बोर्ड लगा हुआ है, उसी रास्ते पर मुड़ेंगे. ऐसी हालत में दुर्घटना हो जाने पर भी ख़ुद को नहीं, रास्ते को ही दोष देंगे. जहां इनके लिए अमावस है, वहां चांदनी को पीने का ख़्वाब देखेंगे. वाह! अरे, अगर ख़ुद के भीतर कभी न हार मानने का गुण है, तो उसका इस्तेमाल अपनी ज़िंदगी बनाने में करो. लेकिन नहीं, इन्हें तो ना को हां में बदलना है. चाहे कोई परेशान होता है तो हो! दूसरे को परेशान करना ही इनकी नौकरी और पढ़ाई है. इनकी जवानी तो गुज़र जाएगी यूं ही नुक्कड़ पर बैठकर और आगे का जीवन बीतेगा नसीब को कोसकर. ऐसे मूर्ख जो अपना भला-बुरा नहीं समझ पाते, उनसे ख़तरनाक कोई नहीं होता.”
वैसे तो मैंने यह सब गरिमा से कहा, लेकिन कहा किसके लिए था, यह समझ पाना इतना मुश्किल भी नहीं रहा. उसका चेहरा सफ़ेद पड़ गया. उसने वो भी सुना जो मैंने कहा और वो भी जो मैंने नहीं कहा. फिर भी उसने कुछ नहीं कहा, एक चुप के साथ मुझे देखता रहा. उसकी आंखों में न तो क्रोध था, और न ही अपमान. वहां केवल दर्द था.
अपने चुप के साथ वह चला गया, उस गली से, उस शहर से, मेरे जीवन से. उसकी नज़रों का इंतज़ार, फिर कभी नहीं दिखा. दिखता भी कैसे, अब वे कहीं नहीं थीं, कहीं भी नहीं. उन्हें तो वो मेरे चेहरे पर टांग गया है.

 

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आज भी जब मैं आईना देखती हूं, तो अपनी पलकों के खूंटे में टंगी उसकी नज़र, झांकती हुई मिल जाती है.
मैं! मैं तो ठीक ही थी, ठीक ही रही और आज भी ठीक ही हूं. उसकी याद! वो क्यों आएगी. नहीं, नहीं, कभी नहीं आती मुझे उसकी याद! बस, जब उस गली से गुज़रती हूं… बस, जब अपने हाथों की मेहंदी में श्लोक के नाम का S देखती हूं… बस, जब बरसात होती है… बस, जब किसी को हाथ में प्लास्टर चढ़ाए देखती हूं… तब; तब गीली आंखों के पीछे मुस्कुरा देती हूं. प्यार! उससे! अरे, कभी भी नहीं! मुझे प्यार जैसा कुछ नहीं है और ना ही कभी था, लेकिन…

पल्लवी पुंडीर

 

 

 

 

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