“स्कूल के साथ? तुम जानती हो कि मेरा मानना है कि लड़कियां माता-पिता के अतिरिक्त किसी की निगरानी में सुरक्षित नहीं हैं. उस पर ऐसी जगह भेजना, जहां मोबाइल नेटवर्क भी न हो. इसी बात पर मैंने सख़्ती से मना किया था. बच्चा मुसीबत में हो और अभिभावकों को बता भी ना पाए. सारी ग़लती मेरी है. मुझे तुम लोगों की इमोशनल ब्लैकमेलिंग में आना ही नहीं चाहिए था.” पति के स्वर में दुख, संशय और झल्लाहट थी.
मैं तीव्र गति से भागती कार में बैठी थी, पर मन में उससे कई गुना तीव्र तूफ़ान उमड़ रहा था. कहा गया है कि दुनिया की हर लड़ाई पहले मन में लड़ी जाती है. ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’.. एक मन कह रहा था कि बस कोई छोटी-मोटी बात होगी. दूसरा मन हमेशा की तरह जाने क्या-क्या धमकियां दिए जा रहा था. रह-रहकर फिर वही प्रश्न चक्रवात की तरह दिमाग़ में घूमने लगा था, जिसने कैशोर्य से आज तक मुझे कभी चैन से बैठने नहीं दिया. मेरे जीवन का यक्ष प्रश्न! ‘सुरक्षित ग़ुलामी या ख़तरे भरी आज़ादी?’
पर क्या सचमुच कोई भीषण आपदा थी भी? और यदि थी, तो क्या सचमुच मैं ही इसके लिए ज़िम्मेदार थी? और क्या उसे टाल देना ही मेरा अंतिम दायित्व था?..
अभी कल ही तो जीवन में पहली बार अपने चूहे से मन से शेर जैसा फ़ैसला लिया था मैंने. अपनी बेटी को पति से झगड़कर ऐडवेंचर ट्रिप पर भेजा था. उसे अलविदा करके जब मुड़ी थी, तो यों लगा था जैसे दिल पर सालों से रखी कोई शिला हट गई हो. जैसे बरसों की चढ़ाई के बाद मैं किसी पहाड़ की चोटी पर पहुंच गई हूं, जिससे सब कुछ साफ़ नज़र आने लगा है.
मगर हल्कापन शायद मेरी किस्मत में नहीं था. जिस डर से लड़ने के लिए मैंने सारा जीवन स्वयं को मज़बूत करने का प्रयास किया, उससे जीतना इतना आसान न था. आज यानी एक दिन बाद ही बेटी का सुबकते हुए फोन आया. इससे पहले कि वह कुछ बता पाती, फोन कट गया.
बस! फिर तो जलजला आना ही था. कुछ ही मिनटों में कार बेटी के कैम्प की ओर दौड़ने लगी थी.
“तुम फोन लगातार ट्राई कर रही हो न?” पति ने ड्राइव करते हुए ही मेरी ओर देखा, तो उनकी आंखों में आंसू देखकर मेरा दिल दहल गया.
“हां, लेकिन अध्यापकों ने स्पष्ट कर दिया था कि जिस क्षेत्र में कैम्प लगा है, वहां नेटवर्क की समस्या है. आप इतने परेशान क्यों हैं? स्कूल की ओर से अध्यापकों के साथ है वो. वैसे उनके पास डॉक्टर वगैरह…”
“स्कूल के साथ? तुम जानती हो कि मेरा मानना है कि लड़कियां माता-पिता के अतिरिक्त किसी की निगरानी में सुरक्षित नहीं हैं. उस पर ऐसी जगह भेजना, जहां मोबाइल नेटवर्क भी न हो. इसी बात पर मैंने सख़्ती से मना किया था. बच्चा मुसीबत में हो और अभिभावकों को बता भी ना पाए. सारी ग़लती मेरी है. मुझे तुम लोगों की इमोशनल ब्लैकमेलिंग में आना ही नहीं चाहिए था.” पति के स्वर में दुख, संशय और झल्लाहट थी.
ऐसी हालत में उनका ड्राइव करना ठीक नहीं था, पर और कोई चारा भी तो नहीं था. पति को इस समय कोई सांत्वना नहीं दी जा सकती थी. उनकी ‘परी’ संकट में थी. उनकी ‘दुनिया’, नहीं उनका ‘ब्रम्हांड’ संकट में था.
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इन्हें देखकर प्रायः ये प्रश्न मन को मथने लगता है कि इसी दुनिया में समाचारों के आंकड़ोंवाले पिता भी होते हैं, जो कोख में बेटी की हत्या करवाते हैं या उसे भेदभाव की सूली पर चढ़ाते हैं? यहीं मिलते हैं भेदभाववाले वो घर, जिनके बारे में अक्सर प्रख्यात शख्सियतें बताते हुए बड़े गर्व से कहती हैं कि उनकी दी हुई बाधाओं ने ही मुझे संघर्ष का हौसला दिया? यहीं मिलते हैं, वो पुरुष जिनका पुरुषत्व स्त्री को सता कर तृप्त होता है? मेरे जीवन में तो बचपन की पहली याद से लेकर आज तक माधुर्य ही रहा है। पिता, भाई, पति, ससुर सभी के लिए पुरुषत्व की कसौटी थी स्त्री को दी जानेवाली देखभाल और सुरक्षा. लेकिन यही माधुर्य मेरे जीवन की सबसे बड़ी विडंबना था. उस मिठास की तरह जो मधुमेह का रोगी बना देती है. ज़मीन की जगह गमले में रोप कर किए गए उस नेहसिक्त रखरखाव की तरह, जो एक विशाल और छतनार वृक्ष बनने की क्षमता रखनेवाले पौधे को बोंसाई बना देती है.
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
भावना प्रकाश
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