एक दिन मुझे मेरी इस तड़प का हल मिल ही गया और पापा के हाथ में संगीत नाटक अकादमी का फार्म रख दिया मैंने, “मुझे डांसर बनना है.”
“डांसर?” पापा अचकचा गए.
“हां बेटा, एक हॉबी तो ऐसी होनी ही चाहिए कि इंसान का मनोरंजन भी हो और व्यायाम भी, पर इसे बनना नहीं कहते.” उन्होंने पुचकारा.
“मुझे डांसर ही बनना है. सहजा देवी की तरह.”
“ये सहजा देवी कौन हैं?”
रास्ते के दोनों ओर नीम और गुलमोहर के विशाल छतनार वृक्ष मस्ती में झूम रहे थे. शायद बहुत तेज़ हवा चल रही थी. मेरा मन जो हमेशा बोंसाई बन कर जिया था, उसकी डालियां भी अतीत के आसमान पर लहराने को आकुल हो उठी थीं.
क़रीब पांच साल की रही होंऊंगी मैं. सकठ के व्रत में लइया की बनी सुंदर आकृति देखकर मेरे कौतूहल सीमा न रही थी.
“ये छगड़ा है. इसे भइया काटेगा.” दादी ने मुझे दुलराते हुए बताया था.
“भैया क्यों? मैं क्यों नहीं? इसे तो मैं काटूंगी.” कहकर लपक कर चाकू हाथ में उठा लिया था मेरी मासूम ज़िद ने. इस पर दादी झल्ला गई थीं.
“सुबह से निर्जल व्रत हैं, गला सूख रहा है, तंग मत करो.” कहकर उन्होंने चाकू मेरे हाथ से छीनकर भैया को थमा दिया था. बस फिर क्या था? मेरी आंखों से मोटे-मोटे आंसू क्या छलके पापा की दुनिया में बाढ़ से बड़ी प्रलय आ गई.
“तुमने एक रस्म के लिए उसे रुला दिया? वही काट देगी, तो क्या हो जाएगा?” कहकर बड़े प्यार से मेरे आंसू पोछते हुए वे बोले थे.
“अब से मेरी परी ही ये रस्म निभाएगी.”
सब चकित थे, क्योंकि इससे पहले किसी ने कभी पापा को दादी की बात काटना, तो दूर बात टालते भी नहीं देखा था. मेरे आंसुओं की छोटी-सी गोल बूंद परंपरागत रस्में ही नहीं, दादी की बात न काटने की स्वतः निर्मित रस्म को तोड़ने की ताकत रखती थी. इस अनुभूति से फूल कर जाने कितने दिन कुप्पा रही थी मैं. पता नहीं मेरी याददाश्त इतनी अच्छी थी कि मुझे उस उम्र की घटना याद थी या दादी के हज़ारों बार बताने से याद हो गई थी.
पापा की परी, बड़े भाई की बॉर्बी डॉल, मम्मी की बेस्ट फ्रेंड और दादी की लाडो. मेरे कई नामों के बीच मेरी पहचान क्या थी? क्या यही वो अनुत्तरित प्रश्न था, जो तूफ़ान बनकर मेरे मन को मथता था? पर कब से? कब पहचाना था मैंने इस प्रश्न को?
क़रीब आठ साल की थी, जब निवेदिता आंटी ने मुझे डांस ड्रामा के लिए सेलेक्ट किया. ये मेरे लिए सेलिब्रेशन बन गया था. निवेदिता आंटी डांस के हॉबी क्लासेज़ चलाती थीं. वो बरसों विभिन्न देशों में रहकर आई थीं और लगभग सारे विदेशी डांस जानती थीं. उन्होंने ऑफिसर्स क्लब के ही एक हिस्से को चिल्ड्रेन्स क्लब में तब्दील कर दिया था और हर उत्सव पर एक दिन वो केवल कॉलोनी के बच्चों के कार्यक्रमों के लिए रखती थीं.
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ड्रामे में सब मेरा नृत्य और अभिनय देखकर हैरान रह गए. फिर तो मैं चिल्ड्रेन्स क्लब और निवेदिता आंटी के डांस स्कूल की स्थाई नायिका बन गई. कुछ ही सालोँ में मैंने सारे विदेशी डांसों में महारथ हासिल कर ली, लेकिन शास्त्रीय नृत्यों का आकर्षण मुझे हमेशा अपनी कला के अधूरेपन का एहसास कराता रहता. अक्सर टेलिविज़न पर किसी शास्त्रीय नृत्य को देखकर उसकी हूबहू नकल करके दिखाती और आंटी का सिर खाती कि वो ये नृत्य क्यों नहीं सिखातीं.
एक दिन मुझे मेरी इस तड़प का हल मिल ही गया और पापा के हाथ में संगीत नाटक अकादमी का फार्म रख दिया मैंने, “मुझे डांसर बनना है.”
“डांसर?” पापा अचकचा गए.
“हां बेटा, एक हॉबी तो ऐसी होनी ही चाहिए कि इंसान का मनोरंजन भी हो और व्यायाम भी, पर इसे बनना नहीं कहते.” उन्होंने पुचकारा.
“मुझे डांसर ही बनना है. सहजा देवी की तरह.”
“ये सहजा देवी कौन हैं?”
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
भावना प्रकाश
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