कहानी- समय चक्र 3 (Story Series- Samay Chakra 3)

‘‘पायल, मैंने तुमसे विवाह किया है, इसका अर्थ यह नहीं कि अपने मां-पिता के प्रति मेरे कर्तव्य, मेरी संवेदनाएं समाप्त हो चुकी हैं. किसी एक रिश्ते में बंधने का अर्थ यह नहीं होता कि बाकी रिश्तों को दरकिनार कर दिया जाए.’’ सचिन की इस बात पर मैं निरुत्तर हो गई. इससे पहले कि मुझे उनके क्रोध का शिकार होना पड़ता, मां के आगमन ने विषय समाप्त कर दिया.

 

 

 

… मां ने आते ही रसोई सम्भाल ली, तो मैं और भी स्वतंत्र हो गई. सचिन मां की मदद करने के लिए बोलते, किंतु मैं अनसुना कर जाती. दुपहर में कभी सहेली के घर तो कभी शाॅपिंग के बहाने से घर से निकल पड़ती और लंच बाहर करके लौटती. प्रारम्भ में मां ख़ामोश रही, फिर अक्सर समझाने लगीं, ‘‘पायल, रोज़-रोज़ बाहर का खाना, जंक फूड अच्छा नहीं. सेहत तो ख़राब होती ही है, फिज़ूलख़र्ची भी बढ़ती है.’’ कभी फ्रिज में पिछले दिन की रखी सब्ज़ी फेंक देती, तो टोक देतीं, ‘‘बची हुई सब्ज़ियों को अगले दिन भरवां परांठे या सैंडविच बनाने में उपयोग कर लिया करो. कितने ऐसे लोग हैं, जिन्हें दो वक़्त का खाना नसीब नहीं होता. अभी से बचत की आदत डालोगी, तो कल ये पैसा तुम्हारे ही काम आएगा.’’
मां के दिए उपदेश मुझे नश्तर से चुभते थे. इस बात को लेकर सचिन से मेरी कहासुनी होने लगी थी. उन्हें इस बात का भी मलाल था कि मैं मां-पापा का बिल्कुल ख़्याल नहीं रख रही थी. एक शाम पापा ने सचिन से कहा, ‘‘बेटा, हमें यहां आए दो माह बीत चुके हैं. अब वापस जाना चाहते हैं.’’
‘‘आप जाने की बात कर रहे हैं और मैं आपको अपने पास रखने की सोच रहा हूं.’’
‘‘नहीं बेटा, ऐसा कैसे सम्भव है? रुड़की में अपना घर छोड़कर यहां कैसे चले आए?’’
‘‘क्या यह घर आपका नहीं? पापा, इस उम्र में आप दोनों का अकेले रहना ठीक नहीं. मुझे सदैव आपकी चिन्ता लगी रहती है.’’ सचिन भावुक हो उठे. पापा कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘पायल से सलाह ली क्या तुमने? वह तुम्हारी पत्नी है. उसकी सहमति आवश्यक है. हम नहीं चाहते, हमारी वजह से तुम्हारा आपस में झगड़ा हो.’’
‘‘पापा, आप पायल की चिन्ता मत कीजिए. उसमें अभी बचपना है. साथ में रहेगी, तो उसे भी रिश्तों की अहमियत समझ में आ जाएगी.’’ सचिन के शब्दों की तपिश मुझे बेडरूम में भी झुलसा रही थी.

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मां को काॅफी बनाने के लिए कहकर सचिन मेरे पास आए. कुछ पल वह ख़ामोश रहे. शायद मुझसे बात करने के लिए उचित शब्दों की तलाश हो उन्हें फिर बोले, ‘‘पायल, मैं चाहता हूं, मां-पापा अब यही रहें हमारे साथ. कल को हमारा बच्चा होगा, उसे भी दादा-दादी का प्यार मिलेगा.’’ मेरे चेहरे पर व्यंगात्मक भाव तैर गए. ‘दादा दादी का ही क्यों, नाना नानी का क्यों नहीं…’ मन ही मन मैंने सोचा. तभी मुझे बेडरूम के दरवाज़े पर एक परछाई दिखाई दी. अवश्य ही वह मां थीं. उन्हें सुनाने के लिए मैंने तनिक ऊंची आवाज़ में कहा, ‘‘पापा से कुछ भी कहने से पहले तुमने मुझसे पूछना भी आवश्यक नहीं समझा. तुमने यह सोच भी कैसे लिया कि मैं साथ रहने पर सहमत हो जाऊंगी.’’ ‘‘पायल, मैंने तुमसे विवाह किया है, इसका अर्थ यह नहीं कि अपने मां-पिता के प्रति मेरे कर्तव्य, मेरी संवेदनाएं समाप्त हो चुकी हैं. किसी एक रिश्ते में बंधने का अर्थ यह नहीं होता कि बाकी रिश्तों को दरकिनार कर दिया जाए.’’ सचिन की इस बात पर मैं निरुत्तर हो गई. इससे पहले कि मुझे उनके क्रोध का शिकार होना पड़ता, मां के आगमन ने विषय समाप्त कर दिया. ‘‘काॅफी तैयार है बच्चों, बाहर आ जाओ.’’
दो दिन बाद मां-पापा वापस लौट गए. मन ही मन मैं प्रसन्न थी और सचिन आहत. कई दिनों तक मेरे और उनके बीच अबोलेपन की स्थिति रही, जिसे सामान्य करने के लिए मैं उनका अधिक से अधिक ख़्याल रख रही थी. धीरे धीरे उन्होंने परिस्थिति से समझौता कर लिया. मैं अपनी जीत पर प्रसन्न थी. कहां जानती थी कि अनहोनी दबे पांव मेरी ओर बढ़ रही है…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

 


रेनू मंडल

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