कहानी- समय चक्र 4 (Story Series- Samay Chakra 4)

‘‘पायल, सचिन को दूसरी जाॅब पता नहीं कब मिले. इतने दिनों तक मायके में रहना ठीक नहीं होता बेटा. अंकुर और तनु की नई-नई शादी हुई है. उन्हें भी अच्छा नहीं लगेगा. अरे, तुम रुड़की अपनी ससुराल क्यों नहीं चली जातीं. वहां इतना बड़ा तुम्हारा घर है. उस पर तुम्हारा ही तो अधिकार है.’’ सन्न रह गई थी मैं उनकी बात सुनकर. क्या यह वही मम्मी हैं जिन्होंने ससुरालवालों से दूरी बनाकर चलने की सलाह दी थी मुझे.

 

 

 

 

… एक दिन सचिन ने बताया कि घाटे में चल रही उनकी कंपनी को दूसरी कंपनी टेकओवर कर रही है. उन्हें अपनी जाॅब जाने का भय था, जबकि मैं आश्वस्त थी. इतनी बड़ी पोस्ट पर बैठे व्यक्ति को टच करना सहज नहीं होता, किंतु मैं गलत थी. दो माह बाद सचिन से इस्तीफा मांग लिया गया और इसी के साथ फ्लैट खाली करने का नोटिस भी मिल गया. मेरे पांव के नीचे से ज़मीन ही निकल गई.
काश! मैंने अपनी सास की बातों को गम्भीरता से लेते हुए कुछ बचत की होती. दूसरी जाॅब मिलने में कितना वक़्त लगेगा क्या कहा जा सकता था? उस पर किराए का घर… सचिन और मैं बेहद तनाव में थे. आज ख़्याल आया क्यों न मम्मी को अपनी परेशानी बताऊं. सुनते ही वह हमें गाजियाबाद बुला लेंगी. डांट लगाएंगी सो अलग कि अभी तक मैं ख़ामोश क्यों रही? इस ख़्याल मात्र से ही राहत महसूस हुई मुझे. फोन पर सारी बात बताकर मैं बोली, ‘‘मम्मी, जब तक सचिन को दूसरी जाॅब नहीं मिल जाती, मैं आपके पास आ रही हूं.’’
मम्मी तुरंत बोलीं, ‘‘पायल, सचिन को दूसरी जाॅब पता नहीं कब मिले. इतने दिनों तक मायके में रहना ठीक नहीं होता बेटा. अंकुर और तनु की नई-नई शादी हुई है. उन्हें भी अच्छा नहीं लगेगा. अरे, तुम रुड़की अपनी ससुराल क्यों नहीं चली जातीं. वहां इतना बड़ा तुम्हारा घर है. उस पर तुम्हारा ही तो अधिकार है.’’ सन्न रह गई थी मैं उनकी बात सुनकर. क्या यह वही मम्मी हैं जिन्होंने ससुरालवालों से दूरी बनाकर चलने की सलाह दी थी मुझे. जो कहा करती थीं, दुख-तकलीफ में मायकेवाले ही काम आते हैं, ससुरालवाले नहीं और अब मेरी ज़रुरत पर मुझे ससुराल जाने की सलाह दे रही हैं. काफ़ी देर तक मैं कर्तव्यविमूढ़-सी बैठी रही. फिर एक गहरी निःश्वास लेकर खिड़की से बाहर देखा. सर्दी के कारण शीशों पर धुंध जम गई थी और बाहर का दृश्य स्पष्ट नज़र नहीं आ रहा था, किंतु मेरे मन की आंखों पर पड़ा मोह का परदा हट चुका था. स्पष्ट देख पा रही थी मैं रिश्तों पर पड़ी स्वार्थ की धुंध को.
तभी सचिन के फोन की घंटी बजी.
‘‘हैलो.’’
‘‘फोन स्पीकर पर रखो. मुझे तुम दोनों से बात करनी है.’’ पापा की आवाज़ सुनकर मैं कमरे में आ गई. पापा बोले, ‘‘सचिन, अभी मेरे मित्र मनोहर ने मुझे बताया कि एक माह हुआ तुम्हारी जाॅब चली गई. इतनी बड़ी बात तुमने हमें बताना ज़रुरी नहीं समझा. मां-बाप क्या अब इतने पराए हो गए?”
‘‘पापा, मैं आप दोनों को परेशान नहीं करना चाहता था.’’

यह भी पढ़ें: सास-बहू के रिश्तों को मिल रही है नई परिभाषा… (Daughter-In-Law And Mother-In-Law: Then Vs Now…)

‘‘बच्चे अपने दुख-तकलीफ़ मां-बाप को नहीं बताएंगे, तो किसे बताएंगे? सचिन, हम लोगों में किसी विषय पर मतभेद हो सकते हैं, किंतु मनभेद तो नहीं हैं न.’’ तभी मां की आवाज़ आई, ‘‘पायल, तुम्हें यह फ्लैट भी खाली करना होगा. अपना घर होते हुए किराए का घर लेना और सेविंग्स से ख़र्चा करना क्या समझदारी होगी. तुम्हारे पापा की अच्छी-खासी पेंशन आती है. हम चारों का आराम से ख़र्चा चलेगा.’’ मेरे मन में कितना कुछ उमड़ने-घुमड़ने लगा. गले में कांटे से चुभ रहे थे. निःस्वार्थ स्नेह में डूबे मां और पापा के शब्दों की सरिता के प्रवाह में मेरे मन में दबे समस्त पूर्वाग्रह बह गए. रुंधे स्वर में मेरे मुख से निकला, ‘‘मां मैं आपसे…’’ आगे के शब्द मेरे आंसुओं में डूब गए.
‘‘कुछ मत कह मेरी बच्ची. बस, जल्दी यहां आ जाओ…’’ मां का गला भी भर आया और उन्होंने फोन रख दिया.
सचिन निर्निमेश मुझे कुछ पल देखते रहे. आंखों से बह रहे पश्चाताप के आंसू सचिन के हृदय को भिगो गए. उन्होंने आगे बढ़ मुझे गले लगा लिया. तन की हदों से पार मन का यह समर्पण हम दोनों को अलौकिक सुख प्रदान कर रहा था.

रेनू मंडल

 

 

 

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Usha Gupta

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