कहानी- सुख 1 (Story Series- Sukh 1)

आज सुबह से ये शांति मुझे बेचैन कर रही थी. सब कुछ करके देख लिया; तेज़ म्यूज़िक सुना, ध्यान, योगा सब कर लिया.. लेकिन कहीं कोई हलचल नहीं. दीपक ऑफिस निकलनेवाले थे. मैंने कमरे में जाकर फिर कहा,

“पांच घंटे से ज़्यादा हो गए… सोच रही हूं, एक बार डॉक्टर को दिखा आऊं.”
दीपक ने लगभग घूरते हुए जवाब दिया, “तुम यार.. फिर पैनिक होने लगी.. मतलब बच्चा ज़्यादा मूव करे, तो दिक्कत, कम करे, तो दिक्कत! वही टिपिकल आदतें…”

 

 

 

घड़ी की ओर नज़र घूमते ही मन के कैलकुलेटर ने हिसाब लगाकर पांच कहा.. पूरे पांच घंटे हो चुके थे, लेकिन दिनभर मेरे पेट में उछल-कूद मचानेवाले बच्चे ने इतनी देर में एक भी हरकत नहीं की थी. इससे पहले तो ऐसा नहीं हुआ था, चौथा महीना लगते ही पेट में तैरती मछली जैसी सरसराहट हुई, जो अगले महीने तक कूद-फांद में तब्दील हो चुकी थी. कभी-कभी तो मैं झेंप जाती, जब सास हैरत से कहतीं,
“ओहो.. बड़ा शैतान बच्चा है. देखो तो पेट के ऊपर से ही मूवमेंट साफ़-साफ़ दिख रही है.” और जब रात में मैं चौंककर उठ बैठती और दीपक को जगाती, “देखिए ना.. बेबी बहुत तेज़ किक मार रहा है. डॉक्टर को कॉल करें?”
दीपक मेरा पेट थपथपाते हुए गर्वित हो उठते, “जिसका पापा फुटबॉल का चैंपियन रहा हो, वो किक नहीं मारेगा?”
ये तो करवट बदलकर सो जाते, लेकिन मैं उस कल्पना में डूबती-उतरती पूरी रात काट देती. छोटा-सा बेटा टी-शर्ट निकर पहने फुटबॉल लिए पूरे घर में घूम रहा हो या गुड़िया जैसी बिटिया, दो चोटियों में रिबन लगाए घर के लॉन में फुटबॉल के पीछे-पीछे भाग रही हो… इन्हीं नीले-गुलाबी सपनों में सात महीने तो पलक झपकते बीत गए. लेकिन आज सुबह से ये शांति मुझे बेचैन कर रही थी. सब कुछ करके देख लिया; तेज़ म्यूज़िक सुना, ध्यान, योगा सब कर लिया.. लेकिन कहीं कोई हलचल नहीं. दीपक ऑफिस निकलनेवाले थे. मैंने कमरे में जाकर फिर कहा,
“पांच घंटे से ज़्यादा हो गए… सोच रही हूं, एक बार डॉक्टर को दिखा आऊं.”

 

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दीपक ने लगभग घूरते हुए जवाब दिया, “तुम यार.. फिर पैनिक होने लगी.. मतलब बच्चा ज़्यादा मूव करे, तो दिक्कत, कम करे, तो दिक्कत! वही टिपिकल आदतें…”
बिना बात पूरी किए दीपक कमरे से बाहर निकल गए, लेकिन मैंने पूरी बात समझ ली थी.
“वही टिपिकल मिडिल क्लास आदतें…”
ये पहली बार तो हुआ नहीं था, जो मुझे समझ न आता. शादी के पिछले दो सालों में अपने नाम से ज़्यादा तो मैंने ये शब्द ‘मिडिल क्लास’ सुना था. कभी दीपक के मुंह से, कभी सास से! पता नहीं किस बात पर फ़िदा होकर इन लोगों ने रिश्ता जोड़ा था, मेरी सूरत पर रीझकर या उस नियम के चलते कि “लड़की हमेशा अपने से उन्नीस घर की लानी चाहिए”, कारण जो भी रहा हो.. मेरे लिए अच्छा नहीं हुआ था. शादी में मायके से लाई साड़ियों को देखकर सासू मां भिनक जातीं, “कितना चमकीला पीला है.. बाप रे.. वो पहन लो ना पेस्टल यलो, जो सगाई में मैंने दी थी, क्लास दिखता है उसमें.”

 

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तब मैंने जाना कि पीला रंग भी इंसानों की तरह विभिन्न वर्गों में बंटा होता है… और उसके बाद मैं बहुत कुछ जानती-समझती चली गई, जो नहीं समझी.. समझाया गया.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

 

 

 

 

 

 

 

लकी राजीव

 

 

 

 

 

 

 

 

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Usha Gupta

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