… “हो गया, बस आई. हेलो दीदी कैसी हो? रक्षाबंधन पर आने का पक्का रखना. हम इंतज़ार करेंगें.” सान्या आ गई थी.
“ठीक याद दिलाया. अमेय से टिकट का कहती हूं. फिर महंगे हो जाएंगे. अच्छा बाय. अब किचन संभालूं. जाने क्या चल रहा होगा.”
“किंशु, तुम्हारा होमवर्क मटीरियल अभी पूरा नहीं हुआ?” सान्या ने प्यार से बेटे के गाल खींचे.
“बस ममा! आपका अनुभव आना बाकी है. फिर लिखू़ंगा.”
“वाह! इसे कहते हैं सेर को सवा सेर!” राहुल ने चुटकी ली. सबको अपने अनुभव सुनने के लिए बेताब देख सान्या मुस्कुरा दी.
“हमारा तो तब और भी बड़ा परिवार था. हम दादा-दादी के साथ रहते थे.”
“जैसे हम रहते हैं?” किंशु बीच में ही बोल पड़ा.
“हां, बिल्कुल ऐसे ही! दादा-दादी देवी के परम भक्त थे. और आपको याद हो, तो उन्हीं दिनों नवरात्र आरंभ हो गए थे. पूरे नौ दिन हमारे यहां सामिष निरामिष आहार, मिठाई, मद्य आदि का भोग लगता था. मांस-मदिरा पर तो उन दिनों प्रतिबंध लग गया था. और घर पर प्रतिदिन मिठाई, चार सब्ज़ियां, पूरी, कचौड़ी, रायता आदि बनाना मां की ड्यूटी थी, पर बाइयां न आने से मां पर वैसे ही ढेर सारा कार्यभार था. इधर उन्हें थोड़ी छींकें क्या आ गईं सब घरवालों के कान खड़े हो गए और हाथ-पांव फूल गए. क्योंकि ऐसे कोई भी लक्षण नज़र आने पर घर के उस सदस्य को क्वारंटाइन यानी एकांतवास में भेज देने की हिदायत थी. बस, सारे घरवाले मां की तीमारदारी में लग गए. उन्हें ज़ुकाम की दवा दी गई.
दो दिन मैंने दादी के साथ किचन संभाली. दादा और पापा ने घर की साफ़-सफाई का ज़िम्मा उठाया. इतने में ही हम सबको आटे-दाल के भाव पता चल गए. मां का ज़ुकाम तो ठीक हो गया. लेकिन दादा-दादी ने पूजा विधि को काफ़ी लचीला बना दिया. भोग बनाने से पूर्व नहाने का नियम हटा दिया. चूंकि सीमित संसाधनों में कई दिन गुज़ारने थे, इसलिए निर्णय लिया गया कि खाने में विविधता कम की जाएगी. एक सब्ज़ी, पूरी, रायता ही भोग हेतु पर्याप्त होगा. फूलों की माला की बजाय घर के बगीचे का एक पुष्प ही पूजा हेतु पर्याप्त होगा.
“घर की देवी को बीमार, परेशान या आहत करने से मंदिर की देवी कभी प्रसन्न नहीं हो सकती.” दादाजी की इस उक्ति को हम सब घरवालों ने हमेशा-हमेशा के लिए गांठ बांध लिया था.”
“बहुत ख़ूब बेटी! तुम्हारे दादाजी की बात से मैं भी सहमत हूं. वाक़ई उस आपात अवस्था ने हम सबको एक-दूसरे के बहुत समीप ला दिया था.” दादाजी ने सहमति दर्शाई.
“हूं लेख तो मैं अब लिख लूंगा, पर मैं यह निष्कर्ष नहीं निकाल पा रहा हूं कि कोरोना त्रासदी का आना अच्छा रहा या बुरा?” किंशु ने नादान-सा प्रश्न किया, तो उसके भोलेपन पर सब खुलकर हंस पड़े. दादाजी ने प्यार से उसे गोद में खींच लिया.
“त्रासदी का आना हमेशा बुरा ही होता है, इसलिए उससे बचने का पूरा-पूरा प्रयास करना चाहिए…”
“यस! मैडम कहती हैं प्रींवेशन इज़ बेटर देन क्योर.” किंशु सहमत था.
“पर अगर त्रासदी आ जाए, तो उससे घबराना नहीं वरन…”
“डटकर मुक़ाबला करना है.” किंशु के जोशीले जवाब पर सबने तालियां बजाकर उसका उत्साहवर्धन किया.
संगीता माथुर
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