… बस उसके आगे तो बात ख़त्म हो गई ना! दीपक और उनकी मम्मा के आगे कौन टिक पाया है आज तक, जो मैं अपनी बात साबित कर पाऊंगी? माला का यहां आना बंद हुआ. मैं किस मुंह से और कितनी बार उसके यहां जाती रहती.. धीरे-धीरे वो साथ भी छूट गया. होली, दिवाली, जन्मदिन, नए साल पर मैसेज इधर-उधर होते रहे. कभी-कभार बातचीत होती रही. बस इतना ही साथ बना रहा.
मेरी दुनिया हम तीनों के बीच सिमटकर रह गई थी, लेकिन जब से इस नन्हें सदस्य ने अपने आने की सूचना दी थी, मन के सफ़ेद पानी में जैसे कोई बार-बार ब्रश धोकर उसे रंगीन कर जाता था, कभी पीला.. कभी लाल.. कभी नारंगी… लेकिन आज सुबह से ये रंग भी नहीं दिख रहे थे. बच्चा बिल्कुल हलचल नहीं कर रहा था. मेरा दिल बैठा जा रहा था. दोपहर होते-होते रोना आने लगा था..
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सासू मां के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया, “सुबह से मूवमेंट नहीं हो रही मां, सोच रही हूं डॉक्टर से मिल आऊं.”
उन्होंने टीवी रिमोट एक तरफ़ रखते हुए कुछ सोचकर कहा, “आज गैस बहुत बन रही है मुझे.. मेरा तो जाना नहीं हो पाएगा, तुम अकेले जा पाओगी? ड्राइवर तो है ही.”
अपने सवालों के जवाब ख़ुद देते हुए, कभी मुझे कभी ख़ुद को समझाते हुए वो फिर से रिमोट उठा चुकी थीं.. मैं पर्स कंधे पर टांगे, डॉक्टर की फाइल लिए, गाड़ी में आकर बैठ गई थी. गाड़ी और ड्राइवर मुझे ढोकर ले जाएंगे क्लीनिक तक.. कभी-कभी मन ढोने के लिए भी तो कोई चाहिए होता है! दीपक सुबह थोड़ा चौंक जाते और कह देते, “अरे.. मूवमेंट नहीं है, चलो अभी फौरन दिखाकर आते हैं…” या फिर अभी सासू मां मुझे डांट देतीं, “सुबह से मूवमेंट बंद है और अब बता रही हो? चलो फटाफट, बड़ी लापरवाह हो तुम…”
इनमें से कुछ भी हो जाता, तो कितना अच्छा होता ना.. आंसू आ रहे थे. ड्राइवर के सामने रो भी नहीं सकती.
“बेबी इज़ फाइन.. डरो नहीं, ख़ुश रहो…” डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा.
मैं अब भी सशंकित थी, “सुबह से डल क्यों है फिर…” मैंने लेटे-लेटे ही पूछा. डॉक्टर ने मुझे उठाते हुए कहा,
“क्योंकि उसकी मम्मी डल है.. लुक ऐट योर फेस, कितनी बुझी हुई लग रही हो. कुछ अच्छा खाओ-पियो, मनपसंद मूवी देखो, फ्रेंड्स से मिलो… प्रेग्नेंट हो, बीमार नहीं हो.”
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डॉक्टर हंसते हुए कितने सहज होकर सब समझाती जा रही थीं, मैं उनको देख रही थी… सही तो कह रही थीं, कितने दिन हुए, मैंने इनमें से कुछ भी नहीं किया.. ढंग से ख़ुश भी तो नहीं रही..
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