कहानी- सुख 4 (Story Series- Sukh 4)

मैंने हंसते हुए कहा, “इतना सा बच्चा और क्या-क्या कह रही हो उसे.”

माला के चेहरे पर एक शिकायत आकर फैल गई, “कब से नहीं मिली हो… अब बड़ा हो गया है, इतना सा बच्चा.”

ये बात उठते ही माहौल में फिर से उदासी घुलने लगी थी. मैंने माला की हथेली थपथपाते हुए सिर नीचे कर लिया.. जो मैं कह नहीं पाई, वो शायद समझ गई! बात बदलते हुए बोली, “गुलाब जामुन मंगवाते हैं तिवारी के.. और कुछ, बताओ क्या मन है? समोसा?”

 

 

 

 

“और हां, जाते समय कोई मिठाई ले लेना. थोड़ी-थोड़ी देर में खाती रहो.. अगर शाम तक भी मूवमेंट ना फील हो, तो एक बार फिर आकर मिल‌ जाना, ओके?”

डॉक्टर की नसीहत ध्यान में रखते हुए मैं गाड़ी में आकर बैठी. मिठाई का नाम सुनते ही मुझे बस ‘तिवारी स्वीट्स’ ही याद आ रहा था, बड़ी-सी कड़ाही में रखे रसभरे, भारी-भारी गुलाब जामुन! माला की ससुराल भी तो वहीं है. मैं जब भी उसके यहां जाती थी, वो बिना कहे मंगवा लेती थी. याद आते ही मुंह में पानी भर चुका था. ड्राइवर को वहां चलने को कहकर, गाड़ी की सीट पर सिर टिकाकर बैठ गई.. तिवारी स्वीट्स याद आते ही बचपन की एक तीव्र स्मृति, ‘छोले- भठूरे’ ने मुझे घेर लिया था और अचानक ऐसा लगा जैसे पूरी कार उसी महक से भर गई हो! अंदर दुकान तो बीसों तरह की मिठाइयों से भरी रहती थीं, बाहर चबूतरे पर बैठा हलवाई भठूरे तलता रहता था.. एकदम गोल, गुब्बारे जैसे! मन में कितना कुछ आया और आते ही मन को और रिक्त कर गया…

“तुम ये सब ले आना, पहले मुझे माला के यहां छोड़ दो.. याद है ना, वो सामनेवाली पीली बिल्डिंग.”

“जी मेमसाब.” ड्राइवर ने कार धीमी करते हुए रोक दी. कितने दिनों बाद मैं यहां आई थी. एक बार तो लगा कि ये क्या तरीक़ा है, एक बार फोन तो करना चाहिए था न.. फिर घंटी पर अपने आप हाथ चला गया. दरवाज़ा खोलते ही माला भावुक होकर लिपट गई, “हाय रे.. भगवान कसम खा के बता रहे, आज तुमको सपने में देखा था…” मेरी आंखें भीग गई थीं.. वो‌ बोलती जा रही थी.

“सांतवा लग गया ना, हमें याद था.. गिनते रहते हैं, कितनी सुंदर हो गई हो यार, नज़र न लगे.”

 

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कितना लगाव था इन बातों में, मेरा मन भीगता जा रहा था. कुछ बोलने का मन‌ नहीं किया, बस लगा वो ऐसे ही दुलराती रहे मुझे…

“बेटा कहां है माला?”

मेरे पूछते ही उसने हाथ जोड़कर माथे पर लगाया, “सो रहा है उधमी.. समझ लो बस इतनी ही देर चैन रहता है. उठते ही फिर उपद्रव चालू.”

मैंने हंसते हुए कहा, “इतना सा बच्चा और क्या-क्या कह रही हो उसे.”

माला के चेहरे पर एक शिकायत आकर फैल गई, “कब से नहीं मिली हो… अब बड़ा हो गया है, इतना सा बच्चा.”

ये बात उठते ही माहौल में फिर से उदासी घुलने लगी थी. मैंने माला की हथेली थपथपाते हुए सिर नीचे कर लिया.. जो मैं कह नहीं पाई, वो शायद समझ गई! बात बदलते हुए बोली, “गुलाब जामुन मंगवाते हैं तिवारी के.. और कुछ, बताओ क्या मन है? समोसा?”

मैंने मना करते हुए एक कप चाय पिलाने को कहा. तब तक दिमाग़ में बिजली-सी कौंध गई… और कुछ भी तो खाया जा सकता है आज, छोले भटूरे भी! एकदम से मां और दीपक के मुंह बिचकाते चेहरे सामने घूम गए, उनको भनक भी लग गई, तो बवाल हो जाएगा. दीपक चिल्लाकर यही बात कहेंगे,

“तुमको खाना था तो कुक से कह देती, उस जली कड़ाही के भठूरे ही खाने थे? पता नहीं, कभी धोई भी जाती है कि नहीं!”

उधर दीपक की आवाज़ मेरे कानों में गूंजने लगी थी, इधर माला मुझसे पूछे जा रही थी, “बताओ ना और क्या खाओगी? पापड़ी चाट?”

मैंने दीपक की आवाज़ को परे धकेलते हुए एकदम से पूछा, “छोले-भठूरे मिल‌ जाएंगे इस समय?”

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

लकी राजीव

 

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Usha Gupta

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