कहानी- स्व का विस्तार 4 (Story Series- Swa Ka Vistar 4)

शरीर मन का ग़ुलाम है और बुढ़ापा केवल मन की अवस्था का नाम है. ग़ुलाम की ज़िंदगी उसके मालिक के अधीन होती है, इसलिए मन न चाहे तो शरीर कभी बूढ़ा नहीं हो सकता.

“कितना सुंदर सत्य है.” हाथ जोड़ते हुए उनके मुंह से बुदबुदाहट निकली. आज ही उन्होंने इस सत्य का प्रमाण देखा था.

चार घंटे! आज चार घंटे हो गए थे गोपाल को फोन मिलाते. रिंग जा रही थी, पर कोई उठा ही नहीं रहा था. वीना की चिंता, उलझन और बेचैनी को अब और प्रतीक्षा बर्दाश्त नहीं हो रही थी. तभी मोबाइल की रिंग गई, तो उन्हें फोन लपकने में एक सेकंड भी नहीं लगा.
“दादी, मुझे बहुत बुखार है.” फिर बुक्का फाड़कर रोती हुई आवाज़ उनके दिल में नश्तर की तरह उतरती गई. “बेटा, बेटा मेरी बात तो सुनो…” मगर गोपाल था कि न कुछ सुनने को राज़ी था न कहने कि स्थिति में. बड़ी मुश्किल से बता पाया कि घर में अकेला था और उसे बुखार के साथ चक्कर, सिरदर्द, पेटदर्द भी हो रहे थे. “दादी, मेरे पास जल्दी से आ जाओ, नहीं तो मैं मर जाऊंगा. दादी, तुम आ रही हो न?” वीना के दिल में कचोट-सी उठाती गई.
इतना-सा बच्चा और इस स्थिति में अकेला? कहां गई उसकी मेड? मां-पिता को पता है कि नहीं? कितनी दूर है उसके माता-पिता के ऑफिस उसके घर से? कुछ भी तो नहीं पता था उन्हें. पहले उसके मां-पिता पर गुस्सा आई. वाह रे आज की पीढ़ी! अचानक से तो इतनी तबियत ख़राब हो नहीं गई होगी. ऑफिस जाने से पहले बच्चे की तबियत भी चेक नहीं की, पर जल्द ही मन ने धिक्कारा. किसी को क्या दोष दें. ख़ुद भी तो उन्होंने इतने दिनों में कभी उससे कोई ऐसी जानकारी लेकर नहीं रखी, जो आज काम आ जाती. मगर अब वो करें तो क्या करें? नहीं, कुछ तो करना होगा. वो यों हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकती थीं. ये तो वो बातों-बातों में जान गईं थीं कि वो उन्हीं के शहर का था पर पता? बहुत तरीक़े से पूछने पर भी जब वो अपना पता नहीं बता पाया, तो अचानक वीना को एक उपाय सूझा.
“व्हेयर डू यू स्टे?” उन्होंने जैसे ही टीचर की सी भाषा और लहजे में सवाल पूछा वैसे ही प्ले-स्कूल में रटा-रटाया उत्तर हाज़िर था. वीना ने चैन की सांस ली. फटाफट दूर की नज़र का चश्मा, पर्स, एटीएम कार्ड्स, छुट्टे पैसे आदि बटोरे. धूल से बचने के लिए अपना मास्क लगाया और निकल पड़ीं. वीना के हाथों को तो वैसे ही पंख लग गए थे, जैसे नौकरी के दिनों में वे सारी ज़िम्मेदारियों के बीच उड़ा करते थे.
घर से बाहर निकलते ही धूप की तल्खी और धूल भरे अंधड़ की गुंडई ने जितनी शिद्दत से हौसले पस्त करने की कोशिश की वीना की ममता ने उतनी ही शिद्दत से उन्हें परास्त कर दिया. गठिया के दर्द और धूल से आने वाली छींकों का तो दूर-दूर तक पता न था.

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“जी, ये घर नहीं, वृद्धाश्रम है. यहां तो कोई छोटा बच्चा नहीं रहता.” दरवाज़ा खोलनेवाली लगभग उनकी ही उम्र की एक सौम्य महिला का विनम्र स्वर था. सुंदर फूलों की बेल से सजे प्रवेशद्वार के माथे पर बने ताखे में ठीक उनके घर के मंदिर की तरह कान्हा की मूर्ति रखी थी. उसके आधार पर मोती जैसे सुंदर शब्दों में लिखा था- शरीर मन का ग़ुलाम है और बुढ़ापा केवल मन की अवस्था का नाम है. ग़ुलाम की ज़िंदगी उसके मालिक के अधीन होती है, इसलिए मन न चाहे तो शरीर कभी बूढ़ा नहीं हो सकता.
“कितना सुंदर सत्य है.” हाथ जोड़ते हुए उनके मुंह से बुदबुदाहट निकली. आज ही उन्होंने इस सत्य का प्रमाण देखा था. पूरे दस साल हो गए थे बाहर निकलने की जद्दोजहद छोड़े. कितना ग़लत सोचा करती थीं, वो कि अब वो अकेले बाहर निकलने के क़ाबिल न रहीं. मन की ताकत के भरोसे ही तो यहां तक पहुंची हैं. जब ऑटो और बस से यहां तक पहुंचा जा सकता है तो जैसा कि बच्चे कह रहे थे, मोबाइल में टैक्सी की ऐप डाउनलोड करके तो…

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

 


भावना प्रकाश

 

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