“दादी, मुझे बहुत डर लग रहा है. मम्मी-पापा मीटिंग से अभी तक नहीं आए और शीला सो गई. कहीं काले बरगद की चुड़ैल न आ जाए, जो दाल न पीनेवाले बच्चों के पास आती है.” वीना को हंसी आ गई. “तो तुमने आज दाल नहीं पी थी? डरो नहीं, मैं एक कहानी सुनाती हूं…” और बातचीत का सिलसिला फिर चल निकला था. उसका डर भगाते-भगाते कब उनका ख़ुद का डर भाग गया, पता ही नहीं चला.
आख़िर सेवानिवृत्ति के बाद बच्चों की उनके साथ जाने की ज़िद के आगे झुकना ही पड़ा था. लेकिन हर तरह की सहूलियतों के बावजूद दोनों में से किसी जगह मन रमा नहीं था उनका. एकाकीपन के जो साए यहां उन्हें डसते थे, परदेस जाकर और गहरा गए थे और वे लौट आई थीं. बहुत पूछा बच्चों ने कि वहां कमी किस बात की है, पर बता न सकीं. शब्दों की इतनी हैसियत कहां कि बच्चों को समझा पातीं कि घर के चप्पे-चप्पे में बिखरी अनिमेष की यादों को छोड़कर वो कहीं नहीं जा सकती थीं. कैसे बतातीं कि पासवाले पार्क में गुलमोहर के नीचेवाली बेंच पर जब बैठती हैं, तो आज भी हवा के साथ झरते फूल अनिमेष की कविताएं कहते हैं. आज भी बेडरूम की खिड़की से झांकता हर सिंगार अनिमेष की बातें दुहराता है. परिवार के छोटे-बड़े समारोहों पर होनेवाली रिश्तेदारों से बातचीत और पड़ोस की हमउम्र सखियों के साथ होनेवाली गपशप उनकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा मनोरंजन है. और इन सबसे बढ़कर है कॉलोनी में उनके ही महिला-मंडल द्वारा बनवाए गए मांदिर में समय-समय पर होनेवाले कीर्तनों में तन्मय होकर अपने कान्हा के गीत गाने से मिलनेवाला सुख.
लेकिन ये सुख उस डर को नहीं भगा पाते थे, जो इतने बड़े बंगले में रात को अकेले सोने पर लगता था. सांय-सांय करते उस सन्नाटे को नहीं जीत पाते थे, जो उन दिनों उन पर अट्टहास करता था, जिन दिनों कोई समारोह आदि नहीं होता था. कभी तबियत ख़राब होने पर उनकी सुश्रूषा ये सुख नहीं कर सकते थे. वो अपनी जड़ें जमा चुके उस पेड़ की तरह हो गई थीं, जिसे उसकी मिट्टी से अलग कर कहीं और प्रत्यारोपित करना संभव नहीं होता. जिसे खाद पानी की ज़रूरत तो है, पर जिसकी छांव की ज़रूरत अब किसी को नहीं रही.
अस्तित्वहीनता के इस एहसास के साथ उनका चिड़चिड़ापन भी बढ़ता जा रहा था. और तब रिश्तेदारों और परिचितों ने ही नहीं बच्चों ने भी सुझावों की बौझार शुरू कर दी.
‘संगीत की विधिवत शिक्षा लेना शुरू कर दो…’
‘किसी अनाथाश्रम में समाज-सेवा…’ उन पर वीना का ग़ुस्सा और भड़क उठता. ‘हुंह, आज बच्चे इस योग्य हो गए हैं कि उसे उपदेश देने लगे हैं. कोई पूछे कि इस उम्र में कहीं भी जाने, कुछ भी ज्वाइन करने के लिए ताकत और हिम्मत कहां से बटोरेंगी. अपनों के प्यार का प्यासा मन गैरों के प्यार से कैसे संतुष्ट हो सकता है? ये पीर शब्दों में नहीं ढाली जा सकती कि जीवन जिन बच्चों की ज़रूरतों की ख़ातिर मशीन बनकर गुज़ार दिया, उन्होंने बिना शब्दों के कह दिया था कि वो अब उनकी ज़रूरत नहीं ज़िम्मेदारी हैं. क्यों बच्चों का अपना मन नहीं करता कि साल में एक बार उनसे मिल आएं? क्यों उनके बच्चों को अब उनके किसी तरह के अवलंब की ज़रूरत नहीं है?.. काश! पूछ पातीं…
रोज़ रात की तरह बेड पर लेटकर अंधड़ के इन दिनों में हवा की अजीबोगरीब सांय-सांय से लगनेवाले डर से लड़ ही रही थीं कि फोन टुनटुना उठा, बड़ा नटखट है ये…
“दादी, मुझे बहुत डर लग रहा है. मम्मी-पापा मीटिंग से अभी तक नहीं आए और शीला सो गई. कहीं काले बरगद की चुड़ैल न आ जाए, जो दाल न पीनेवाले बच्चों के पास आती है.” वीना को हंसी आ गई.
“तो तुमने आज दाल नहीं पी थी? डरो नहीं, मैं एक कहानी सुनाती हूं…” और बातचीत का सिलसिला फिर चल निकला था. उसका डर भगाते-भगाते कब उनका ख़ुद का डर भाग गया, पता ही नहीं चला. धीरे-धीरे वो उस बच्चे के बारे में बहुत कुछ जान गई थीं. साढ़े चार साल के गोपाल के माता-पिता नौकरीपेशा थे. वो प्ले-स्कूल जाता था और बाकी समय मेड के साथ रहता था. अपनी दादी से बहुत हिला हुआ था. उनकी मृत्यु के बाद बहुत उदास रहने लगा था. अब वीना से उसकी घंटों बात होने लगी. उससे बात करना दिनचर्या का सबसे अहम हिस्सा बन गया. दो अधूरे मिलकर पूर्णत्व का सुख पाने लगे थे.
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“दादी, अब तुम मुझसे बात करना कब्ब्बी बंद मत करना.”
“तुमसे बात किए बिना मुझे खाना खाने का मन नहीं करता. तुमसे कहानी सुने बिना मुझे नींद नहीं आती.” “बस एक बार मेरी भगवानजी से बात करा दो. मैं उनसे कहूंगा कि तुम्हें वापस भेज दें. पापा कहते हैं कि बच्चों की बात भगवानजी नहीं टालते…” जैसे वाक्य वीना को उनकी उपयोगिता का बोध कराते…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
भावना प्रकाश
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