… नीलू को मैंने हमेशा अच्छे कपड़े पहने, हमेशा तैयार ही पाया. जब मैं सुबह घर से निकलता था, जब मैं शाम को घर वापस आता था, जब हम कहीं आते-जाते थे, हर समय वो चमकती ही तो रहती थी. मेरा मूड बुरी तरह ऑफ था, मैं देर रात तक चुपचाप कमरे में बैठा कुछ पढ़ता रहा.
“अरे, मैं बताना भूल गई, मेरे मामाजी का फोन आया था. उनके छोटे बेटे की सगाई है. कल तुमको भी फोन करेंगे बुलाने के लिए.” नीलू ने याद करते हुए बताया. मैंने किताब में देखते हुए ही जवाब दिया, “मेरा तो जाना नहीं हो पाएगा. तुम और चिंटू चले जाना. मैं एक ड्राइवर कर दूंगा.”
नीलू चौंक गई थी, “मैं और चिंटू चले जाएं? मतलब? छुट्टी है ना तुम्हारी दो दिनों की, वीकेंड मिलाकर मैनेज हो जाएगा.”
“मैं नहीं जा पाऊंगा यार. मुझे ऑफिस के अलावा और भी काम रहते हैं. ख़ैर छोड़ो, तुम समझ भी नहीं पाओगी.”
नीलू हैरान बैठी थी. पिछले सात सालों में वो कभी भी अकेली नहीं गई. हम दोनों के पैरेंट्स एक ही शहर में रहते थे. हम जब भी गए, साथ गए, साथ आए.
नीलू मेरे पास खिसक आई थी, हाथ पकड़कर बोली, “ग़ुस्सा हो क्या किसी बात से? सुबह मैंने चिंटू को डांट दिया था इसीलिए? सही-सही बताओ.”
मेरा दिमाग़ और गरमाता जा रहा था. मुझे ऐसा लग रहा था कि कुछ बवाल होनेवाला था.
“अच्छा, वो जो मैंने दीदी को टोक दिया था कि शाम को बच्चों के नाख़ून ना काटा करें, उस पर नाराज़ हो?” नीलू ने जैसे ही दीदी का ज़िक्र छेड़ा, मेरा रोका हुआ गुबार फूट पड़ा.
“अरे, काट तो रही थीं, दिन या रात कभी भी. यहां तो चिंटू की डायरी में लिखकर आता है, तब कटते हैं नाख़ून. उसमें भी पहले आधा घंटा नेलकटर ढूंढ़ा जाता है. तब नाख़ून काटो अभियान शुरू होता है. किसी चीज़ में, कोई सिस्टम नहीं. घर फैला रहता है, बस अपने तैयार होने में कोई कसर ना रहे.” ख़ुद को रोकने की कोशिश करते हुए भी ये लाइन मेरे मुंह से निकल गई थी. नीलू ने डबडबाई आंखों से मुझे देखा. कुछ भी नहीं बोली.
इससे पहले भी हमारी कई बार बहस हुई थी, छोटे-छोटे लड़ाई-झगड़े हुए थे. लेकिन आज मुझे जाने क्या हो गया था? चाहकर भी मैं ख़ुद को ठीक नहीं कर पा रहा था. सुबह देखा जाएगा, सोचकर करवट बदलकर मैं सो तो गया था, लेकिन सुबह जो दिखा, उसके लिए मैं तैयार नहीं था.
“कहां की तैयारी हो रही है नीलू?” मैंने हैरानी से पूछा. चिंटू स्कूल ड्रेस की जगह जींस-टी शर्ट पहने घर में घूम रहा था, नीलू भी बाहर घूमनेवाले कपड़े पहने तैयार थी.
“बताया तो था कल मामाजी के यहां जाना है. उनकी गाड़ी इधर आ रही थी, तो मैंने सोचा एक दिन पहले ही सही.”
नीलू ने सूटकेस खिसकाते हुए कहा. इससे पहले मैं कुछ समझता, उसने एक तीर और छोड़ दिया, “अच्छा है. चार-पांच दिनों तक घर तो साफ़ रहेगा.”
ओह! मैं अब समझा. नीलू मुझसे नाराज़ होकर घर से जा रही थी.
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मेरे लिए ये स्थिति बड़ी अजीब थी. मैं भौंचक्का-सा बैठा हुआ था. मानना मुश्किल था, लेकिन ये सच था कि नीलू चली गई थी. वो भी इस तरह से? इससे पहले मैं कभी घर में अकेला नहीं रहा था, एक दिन के लिए भी नहीं. लेकिन जब भी मैं ऑफिस के काम से बाहर जाता था, नीलू तो रहती ही थी ना. कैसे रह लेती थी? अचानक मेरे मन में एक अफ़सोस की लहर दौड़ गई, लगा फोन करके कह दूं, कहां तक पहुंची हो? वापस आ जाओ यार. कल चलेंगे साथ में.
फोन उठाया, लेकिन कह नहीं पाया. कुछ था जो मुझे रोक रहा था. मुझे थोड़ा ग़ुस्सा भी आने लगा था. ये कोई तरीक़ा थोड़ी था जाने का. चली गई भन्ना के! इस उम्र में इतनी मैच्योरिटी तो होनी चाहिए नीलू में! लेकिन एक बार आवाज़ सुने बिना चैन भी नहीं पड़ रहा था.
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
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