… “पसंद की क्या पूछती हैं, मैं तो दीवाना हूं. पसंद की किताब मिल जाए, तो खाना-सोना सब भूल जाता हूं जब तक कि पूरा न पढ़ लूं.” वे ज़ोर से बोले और फिर उन्होंने ढेर सारे लेखकों के नाम गिना डाले उनकी पसंद के और उनकी किताबों के नाम.
इनमें से कई पुस्तकें मीरा को भी बहुत पसंद थे. पुस्तकों की चर्चा ने उसकी असहजता को शीघ्र ही दूर कर दिया. अब वह खुले मन से, बल्कि थोड़े उत्साह से बातें करने लगी. बरसों से उसे कोई ऐसा मिला भी तो नहीं था, जिनसे वह इस तरह की चर्चा कर पाती. आधे घंटे बाद श्रीनाथजी विदा लेकर चले गए और एक किताब ले जाते हुए मीरा के लिए कल एक अच्छी पुस्तक लाकर देने का वादा भी कर गए.
उनके जाने के बाद चाय के खाली कप ट्रे में रखती मीरा की दृष्टि उन शेल्फ में रखी पुस्तकों की ओर गई. कविता, कहानियां, उपन्यास, दर्शन क्या नहीं था उन पुस्तकों में, लेकिन प्रकाश को पुस्तकों से ख़ासी चिढ़ थी. जब भी मीरा की कोई किताब उसे ड्राॅइंगरूम, डाइनिंग अथवा बेडरूम में कहीं दिख जाती, वह झल्ला जाता.
“यह फ़ालतू का कचरा यहां मत रखा करो.” मीरा गहरे तक आहत हो जाती. भरसक वह प्रयत्न करती कि कोई किताब प्रकाश की दृष्टि में ना आ जाए. ना चोरी, ना झूठ, ना कोई बुरा काम, तब भी मीरा को प्रकाश से छुपाकर किताबें पढ़नी पड़ती थी. पढ़ने की जितनी अदम्य लालसा मीरा को थी प्रकाश के मन में उतना ही गहन अंधकार था. ज्ञान की एक छोटी-सी किरण तक नहीं थी वहां. दस से पांच तक की नौकरी, फिर दोस्तों के साथ गप्पबाज़ी. पुस्तकों पर ख़र्च उसे पैसे की बर्बादी लगती.
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मीरा की शुरू से इच्छा थी कि सुबह-शाम की चाय पीते हुए वह अपने साथी से रोज़ किताबों पर, उनके पात्रों पर चर्चा करे. वह रूमानी कहानियों को पढ़ती, तो अनायास ही ख़ुद को उनकी नायिका के रूप में डालकर प्रकाश के साथ उस कोमल दृश्य की कल्पना करती. किंतु प्रकाश को यह सब बचकाना लगता, हास्यास्पद, भावनात्मक कमज़ोरी लगती और वह चिढ़ जाता. धीरे-धीरे मीरा की भावनाएं भी शुष्क हो गई. मर गया किसी के साथ की इच्छा का वह कोमल-सा अंकुर. अजीब रुखा शुष्क व्यक्ति था प्रकाश. भावना शून्य-सा. एकांत में मीरा अक्सर अकेलेपन की त्रासदी से घबरा कर रोने लगती. जीवन एकदम नीरस हो गया था. बिना पढ़े उसका दिन नहीं कटता था और ब्याह के बाद वह अक्षरों को देखने को तरस जाती. अख़बार भी कहां लेता था प्रकाश.
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