“प्यार करते हो क्या किसी से?…” वे अपने प्रश्न पर शरारत से मुस्कुराईं. वे पेपर के रंगीन बोट-प्लेन बनाकर अलग रखती जा रही थीं.
“जी, उसी से मिलने यहां आया हूं.”
“कोई नाम तो होगा उसका.”
“जी पारिजात. पारिजात दत्ता.” महिला को झटका-सा लगा,
“पारिजात दत्ता? कभी मिले हो पहले भी?”
“जी नहीं. पहली बार मिलूंगा.”
“व्हाट्सऐप, फेसबुक, चैट?” वे मुस्कुराईं.
“नो, नो मैडम. न फोन नंबर, न ईमेल आईडी, न कोई फोटो. बड़ी मुश्किल से पता मालूम किया.”
“बिन देखे-सुने प्यार! कमाल है!!” वे फिर मुस्कुराईं.
“आप भी उसे जानती होंगी. लगभग हर पॉप्युलर मैगज़ीन में उसकी बेहतरीन कहानियां छपती हैं. यहीं तो रहती है.” उसने पता बता दिया था.
सहसा मोगरे की ख़ुशबू लिए हवा के झोंके से उसका तन-मन सुवासित हो उठा. आंखें आसमान से ज़मीं पर ठिठक गईं. वह चलते हुए घने बड़े-बड़े मोगरे की छाई बेल के पास आ गया था. कुहू की आवाज़ एक बार ऊपर से एक बार नीचे से उससे तेज़ फिर ऊपर से और तेज़ होती जा रही थी. उसने हैरानी से कोयल को ढूंढ़ते दबे पांव झाड़ियों के पीछे झांका, तो आश्चर्य हुआ एक पचपन-साठ वर्षीया महिला, ऊपर बैठी कोयल से कॉम्प्टीशन लगाकर मज़े ले रही थीं.
काफ़ी स़फेद हुए बाल, आंखों पर चश्मा, कुर्ता-लेगिंग्स, एक्शन शूज़ पहने, झुरमुट के पीछे पड़ी बेंच पर रखा मोबाइल, रूमाल पर इकट्ठे किए कुछ लाल-पीले स़फेद फूल. एक झटके में यही देख पाया. उसे अपनी ओर यूं देखता वह अचकचा गया और झेंपकर वह पीछे हो लिया.
“कौन हो बेटा, इतनी सुबह और यहां? फुर्सत कैसे मिली?” वे ओट से बाहर निकलकर पूछते हुए मुस्कुराईं.
“जी वो मैम मैं. सॉरी आपको डिस्टर्ब किया.”
“पेड़ की असली कोयल मिली नहीं, पर नीचे की नकली ढूंढ़ ली. वो देखो असली वहां से उड़ी.” वे हंस पड़ीं. “कभी कोयल के साथ ये खेल खेला है, बहुत मज़ेदार है.” उसे चुप देखकर वह फिर बोलीं. “यहां के तो नहीं लगते हो मतलब इस कॉलोनी के.”
“जी.” कहकर वह चुप हो गया था, तो प्रश्नवाचक दृष्टि से महिला उसे देखने लगी.
“जी दरअसल, यहां मैं किसी से मिलने आया था, पर लगता है अभी काफ़ी जल्दी है, सो टाइमपास के लिए इधर निकल आया.
“हूं…” महिला ने कलाई पर बंधी अपनी घड़ी पर नज़र डाली थी. वे बेंच पर फूलों का रूमाल खिसका एक ओर बैठ गईं. बिखरे हुए रंगबिरंगे काग़ज़ समेटकर गोद में रख लिए और बेंच पर उसके लिए जगह बना दी.
“चाहो तो बैठ सकते हो.” वो उन पेपर्स से कुछ बनाने लगी थीं.
“जी.” कहते हुए बैठ गया था.
“यहां पुरातत्व विभाग के संग्रहालय में कुछ काम था. मुंबई में प्राचीन इतिहास का प्रवक्ता हूं. ट्यूशन्स भी लेता हूं. पीएचडी भी कर रहा हूं. बिल्कुल फुर्सत ही नहीं मिलती ऐसे नेचर एंजॉय करने के लिए.”
“अच्छा? शादी हो गई क्या?”
“जी नहीं, मां तो पीछे पड़ी रहती हैं, पर मैं नहीं चाहता.”
“प्यार करते हो क्या किसी से?…” वे अपने प्रश्न पर शरारत से मुस्कुराईं. वे पेपर के रंगीन बोट-प्लेन बनाकर अलग रखती जा रही थीं.
“जी, उसी से मिलने यहां आया हूं.”
“कोई नाम तो होगा उसका.”
“जी पारिजात. पारिजात दत्ता.” महिला को झटका-सा लगा,
“पारिजात दत्ता? कभी मिले हो पहले भी?”
“जी नहीं. पहली बार मिलूंगा.”
“व्हाट्सऐप, फेसबुक, चैट?” वे मुस्कुराईं.
“नो, नो मैडम. न फोन नंबर, न ईमेल आईडी, न कोई फोटो. बड़ी मुश्किल से पता मालूम किया.”
“बिन देखे-सुने प्यार! कमाल है!!” वे फिर मुस्कुराईं.
“आप भी उसे जानती होंगी. लगभग हर पॉप्युलर मैगज़ीन में उसकी बेहतरीन कहानियां छपती हैं. यहीं तो रहती है.” उसने पता बता दिया था.
“नहीं, जानती तो नहीं, पर कॉलोनी की रेसिडेंट डायरेक्टरी में कहीं देखा ज़रूर है.”
“बहुत अच्छा लिखती है मानो मेरी ज़िंदगी को बहुत क़रीब से देखा हो. भावनाएं ऐसी, जो मैंने महसूस की हों, विचार ऐसे जैसे मेरे दिल से निकले हों, जिनमें ज़िंदगी एकदम आईने के जैसी बिल्कुल साफ़ दिखने लगती हो. जो आंखों में चमक मन में उमंग भर दे. जैसे ज़िंदगी स्वयं बंद पिटारा खोलकर बाहर आ गई हो… जैसे अल्हड़-सी सुंदर शरारती लड़की नहाने के बाद भी पानी में पैर डाले छप-छप खेल रही हो…”
“और इतने में आपको उससे प्यार हो गया कि आप मिलने चले आए कि शायद वो आपकी ज़िंदगी को भी अनबॉक्स कर दे.”
“जी, ऐसी जीवंत ज़िंदगी जीने का कोई राज़ बता दे.”
“हो सकता है वो आपकी कल्पना के विपरीत हो, न बहुत सुंदर हो, न आपकी उम्र की. बिना देखे दिल देने का इतना बड़ा ़फैसला कैसे ले लिया?”
“हो ही नहीं सकता मैडम. उसकी सारी कहानियों में उसका बचपन ज़्यादा दूर गया नहीं लगता. इतनी उमंग, इतना उत्साह युवा हुए भी बहुत देर नहीं हुई होगी. मुझे पक्का यकीन है पच्चीस-तीस के अंदर ही होगी.उसके पात्र अक्सर प्रचलित शब्दों की जगह ऐसे नए शब्द गढ़ लेते हैं कि आप सोच में पड़ जाते हैं. पहले अचंभित होते हैं, फिर हंसे बिना नहीं रह पाते.” महिला के बात करने के अंदाज़ से अपनेपन में खुलता चला गया.
“मसलन?”
“जैसे. जहां चार्जर आ गया, जल्दी उठो फटाफट चार्ज करके आओ सचिन, ऑफिस नहीं जाना क्या… योर व्रत तोड़ इज़ रेडी… कहते हुए उसकी नायिका शिप्रा अपनी गीली हथेली पति सचिन के गालों पर लगा देती, तो वह हड़बड़ाकर उठ बैठता. जाने कौन आ गया, उसे हड़बड़ाया देखकर वह खिलखिलाकर हंस पड़ती. और जैसे, मीठा सोप देना यार पता नहीं कहां रख दिया मैंने… उसका नायक जय अपने रूममेट से यूं ही कहता उसे सोच में पड़ा देख वह मुस्कुराता मज़े लेता, मतलब उसका टूथपेस्ट से होता. दोस्त कुछ देर बाद समझ पाता, क्या यार तू भी न बस कमाल है… अब आप ही बताओ ऐसी शरारत कोई उम्रदराज़ तो नहीं लिख सकता.”
“और यदि उसने आपका प्यार ठुकरा दिया या वो आपके लायक ही न हुई हो, तो आपकी बॉक्स ज़िंदगी में ताला ही पड़ जाएगा. पक्का इलाज क्यों नहीं करते.” उनके चेहरे पर मुस्कान थी.
डॉ. नीरजा श्रीवास्तव ‘नीरू’
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