कहानी- ज़िंदगी के मोड़ 2 (Story Series- Zindagi Ke Mod 2)

उसे देखकर मुझे अपनेपन का एहसास होने लगा था. एक ऐसा साथी, जिसके साथ मैं अपने मन की हर बात कह सकती हूं. अपनी उलझनें बांट सकती हूं- एक अभिन्न मित्र की तरह. एक ऐसा मित्र, जिसे मैं सृष्टि के आदि से जानती आई हूं. सहसा ज़िंदगी सुंदर लगने लगी थी. कैसे लोग कहते हैं कि प्रेम अंधा होता है, जबकि प्रेम होने पर तो दुनिया सुंदर लगने लगती है. मेरा मन करने लगा मैं अपनी एक अलग दुनिया बसाऊं.

और वह भी तो मुझे बहन का पूरा प्यार देती थी. अक्सर अपने टिफिन में से चॉकलेट निकालकर खिलाई थी उसने मुझे. सो उसके चले जाने से मन का खाली कोना अब टीस मारने लगा था. इसी मनःस्थिति में मेरी मुलाक़ात नलिन से हुई.

बीएड करने के बाद जिस स्कूल में मेरी नौकरी लगी, वह घर से काफ़ी दूर था. लेकिन स्कूल अच्छा था, इसलिए मैं उसे छोड़ना नहीं चाहती थी. सौभाग्यवश मेट्रो स्टेशन घर के पास था. मेरे पास अक्सर ही कॉपियों का बंडल होता. कभी टेस्ट की कॉपियां, कभी होमवर्क, तो कभी क्लासवर्क की. भारी बैग कंधे पर लटकाए रॉड पकड़े खड़ी रहती कि एक दिन नलिन ने मुझे दूर से देखा और अपने साथी से सीट रुकवा मुझ तक पहुंच मेरा बैग लेने का उपक्रम करने लगा. उसने कुछ बोला भी, जो भीड़ की वजह से मुझे सुनाई नहीं पड़ रहा था. मैं घबरा गई, “यह क्या कर रहे हो?”

“आपके नाज़ुक कंधों पर तरस खा रहा हूं.” कहते हुए सीधे अपने सीट पर ले जाकर बैठा दिया. मेरा डांटता स्वर आभार जताने में बदल गया. इसके बाद वह रोज़ मेरे लिए सीट रखने लगा और यह संभव न होता, तो अपनी सीट मुझे दे देता. हमारी मुलाक़ात स़िर्फ सुबह के समय ही हो पाती थी. शाम को तो दोनों के लौटने का समय अलग-अलग होता था.

सौम्य, मृदु व्यवहार, निश्छल आंखें,  हल्के घुंघराले बाल, कंघा न किया हो, तो भी पता न चले, पर नलिन की सबसे ब़ड़ी ख़ूबी थी उसकी सहृदयता, जिसकी मैं क़ायल हो गई थी. उसकी नई-नई नौकरी लगी थी और वह दो बहनों से बड़ा था व अपनी ज़िम्मेदारी ख़ूब समझता था. अच्छी आय होने पर भी मेट्रो में सफ़र करता था, ताकि बहनों के विवाह में वह आर्थिक योगदान दे सके. वह स्वभाव से ही सहृदय था. किसी स्त्री को खड़ा देखता, तो अपनी सीट उन्हें दे देता, किसी के पास भारी बैग होने पर अपने पास रखवा देता या थोड़ा खिसकाकर जगह बना देता. हर रोज़ शाम को ऑफिस के बाद वह पास की झोपड़पट्टी में दो घंटे ग़रीब बच्चों को पढ़ाने के बाद ही घर लौटता था.

उसे देखकर मुझे अपनेपन का एहसास होने लगा था. एक ऐसा साथी, जिसके साथ मैं अपने मन की हर बात कह सकती हूं. अपनी उलझनें बांट सकती हूं- एक अभिन्न मित्र की तरह. एक ऐसा मित्र, जिसे मैं सृष्टि के आदि से जानती आई हूं. सहसा ज़िंदगी सुंदर लगने लगी थी. कैसे लोग कहते हैं कि प्रेम अंधा होता है, जबकि प्रेम होने पर तो दुनिया सुंदर लगने लगती है. मेरा मन करने लगा मैं अपनी एक अलग दुनिया बसाऊं. चाचा-चाची ने बहुत किया मेरे लिए, मैं उनकी अनुग्रहित थी, पर अब मैं अपना घर-संसार चाहती थी, जिसमें मैं एक आश्रिता की तरह न रहकर, साधिकार रहूं. मैं अपनी आय का एक हिस्सा बचाने लगी, ताकि मेरे विवाह का चाचू पर कम से कम बोझ पड़े. लेकिन मैं पहले चाचा-चाची से इस विषय में बात कर लेना चाहती थी. उनके पास दुनिया का अनुभव था, पारखी नज़रें थीं. यूं तो इंकार का कोई कारण न था, फिर भी मैं नहीं चाहती थी कि उन्हें ऐसा लगे कि मैंने स्वयं निर्णय ले लिया है.

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इसी बीच तारा के प्रथम प्रसव की सूचना मिली. ससुराल में तो कोई स्त्री थी नहीं, इसलिए उसकी ज़िम्मेदारी चाची पर आन पड़ी. वह तो चाहती थीं कि तारा उनके पास आ जाए, लेकिन उसके ससुर का मन था कि डिलीवरी उनके पास ही हो, ताकि बच्चे के साथ घर में रौनक़ आ जाए. चाची उत्साहपूर्वक देवलाली जाने की तैयारी करने लगीं. तारा के लिए पंजीरी, शिशु के लिए छोटे-छोटे कपड़े, स्वेटर, लंगोट, नन्हीं-नन्हीं चादरें-कंबल मानो किसी गुड़िया का दहेज बन रहा हो. मैने भी अपनी क्षमता के अनुसार मदद की. फ्रॉक और चादरों पर बेल-बूटे काढ़े. जल्दबाज़ी में चाची चली गईं और संकोचवश मेरी बात कुछ दिन के लिए स्थगित हो गई.

प्रसव के समय कुछ द़िक्क़त आ जाने पर डिलीवरी सीज़ेरियन करवाने का ़फैसला लिया गया और तुरंत ऑपरेशन भी हो गया, लेकिन उसके बाद रक्तस्राव किसी भी तरह से काबू में ही नहीं आ रहा था. डॉक्टर ने तुरंत तारा को पुणे के बड़े अस्पताल ले जाने का इंतज़ाम किया, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. अत्यधिक रक्तस्राव के कारण तारा ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया.

सब कुछ चाची की मौजूदगी में हुआ था. किसे दोष देतीं वह? हफ़्तेभर बच्चे को अस्पताल में ही रखा गया, नर्सों की देखरेख में. पर उसके बाद? दादी तो थी ही नहीं, इसलिए चाची नवजात को अपने साथ ले आईं. सबका हाल बेहाल था, लेकिन चाची तो ऐसे सदमे में थीं कि उनका ध्यान भी औरों को रखना पड़ रहा था. इसलिए आया का इंतज़ाम भी किया गया. बच्चे के नामकरण का अभी किसी को होश नहीं था बस, गुड्डू के नाम से ही बुलाने लगे सब.

ऐसे माहौल में भला मैं अपनी बात कैसे कर सकती थी?

        उषा वधवा

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