कहानी- अपराजिता 1 (Story Series- Aparajita 1)

 

‘‘आचार्य नागाधिराज!’‘ ब्रह्मांड के विखंडित होने से भी भयावह धमक श्वेता के कानों में गूंज उठी. असीम पीड़ा से दिग्भ्रमित हो वह नर्स का गिरेबान थाम चीख उठी, “सिस्टर, तुम्हें होश भी है कि तुम क्या कह रही हो? आचार्य नागाधिराज, जिनकी उंगलियों की थाप से तबले के स्वर रागनी बन पूरे लद्दाख की वादियों में गूंजते थे उन उंगलियों को काट दिया गया है! इतना भयावह असत्य मत बोलो, वरना ईश्वर भी तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगा.’’

 

 

दूर-दूर जहां तक दृष्टि जा सकती थी श्वेत रंग का साम्राज्य स्थापित था. श्वेता ने कांच की खिड़की से बाहर झांका, पूरी वसुंधरा श्वेत रंग से नहाई हुई थी. जैसे देवदूतों ने आसमान से उतर कर वृक्षों, पर्वतों, सड़़कों और मकानों तक को रूई के फाहों से ढंक दिया हो. अतुलनीय सौंदर्य और अलौकिक दृश्य.
मंत्रमुग्ध सी श्वेता लकड़ी के कॉटेज का दरवाज़ा खोल बाहर आई. शीतल हवा के झोंकों ने हुलस कर स्वागत किया, तो तन-मन में सिरहन-सी दौड़ गई. उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई. असीम शांति और अपार निस्तब्धता छाई हुई थी. लगातार हो रही बर्फ़बारी के कारण सारे टूरिस्ट अपने-अपने कमरों में दुबके हुए थे. कहीं कोई हलचल न थी.
कॅाटेज के बाहर क्यारियों के बीच बर्फ़ से ढंकी एक पगडंडी थी, जो नीचे मैदान की ओर जाती थी. वहां ऊंचे पहाड़ों से उतर ‘हिमधारा’ नाम की छोटी-सी नदी अपने सौंदर्य को बिखराती, इठलाती हुए आगे बढ़ती थी. इंटरनेट पर होटल की साइट में ‘हिमधारा’ के ख़ूबसूरत चित्रों को देखकर ही श्वेता ने अंतिम पंक्ति में बने इस कॅाटेज को बुक करवाया था.
हिम से आच्छादित श्वेत पर्वत शिखर, बचपन से ही उसे रोमांचित करते थे, किंतु आज तो चारों ओर हिम का ही साम्राज्य था. हर्षित श्वेता सधे कदमों से नीचे उतरते हुए ‘हिमधारा’ के निकट पहुंची. किंतु उसकी कल्पनाओं के विपरीत कल-कल बहती ‘हिमधारा’ की धार थमी हुई थी. हिम के सानिध्य में उसका जल भी हिम में परिवर्तित हो गया था. अचंभित श्वेता पल भर के लिए ठिठकी, फिर नए जोश के साथ आगे बढ़ी. क़रीब पहुंच एक पत्थर पर पैर टिका, उसने नीचे झुक कर अपनी उंगलियों से हिमधारा को स्पर्श किया. अतुलनीय शीत के संसर्ग में उसका जल जमकर हिम के विशाल शिलाखंड जैसा कठोर हो गया था. आनंदित श्वेता ने अपनी उंगलियों को तेजी से उपर-नीचे किया जैसे कोई निपुण संगीतज्ञ तबले का वादन कर रहा हो. मधुर ध्वनि, प्रतिध्वन्वित हुई, तो श्वेता का मन-मयूर झूम उठा. उसने अपने उंगलियों की गति तेज कर दी. ‘धा धिं धिं धा… धा धिं धिं धा… धा तिं तिं ता… ता धिं धिं धा…’ सप्तम सुर की चाहत में वह तीव्र से तीव्रतम होती चली गई.

 

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‘‘आह..ऽ…’’ अचानक जैसे कुछ टूट गया हो. तीव्र चीख ने वातावरण की शांति भंग कर दी. पल भर के लिए निस्तब्धता भंग हुई, फिर सब कुछ शांत हो गया.
श्वेता की जब आंख खुली तब वह श्वेत चादर ओढ़े हुए थी. ऊपर श्वेत छत थी और आस-पास की दीवारें भी श्वेत. छत! दीवारें! श्वेता चिहुंक उठी. वह तो श्वेत चादर से आच्छादित प्रकृति की गोद में थी, फिर यह श्वेत चादर, श्वेत दीवारें कहां से आ गईं? हड़बड़ा कर उसने उठना चाहा, तो कसमसा कर रह गई. उसके पैर सुन्न हो गए थे. उन्होंने साथ देने से इनकार कर दिया.
‘‘मैं कहां हूं? मुझे क्या हो गया है?’’ वह चीख उठी.
‘‘तुम सिविल हॅास्पिटल में हो और तुम्हें कुछ नहीं हुआ है?’’ चीख सुन एक नर्स ने क़रीब आते हुए कहा.
‘‘अगर कुछ नहीं हुआ, तो मैं उठ क्यों नहीं पा रही हूं?’’ श्वेता की आंखें छलक आईं.
‘‘उठोगी ही नहीं, बल्कि तुम दौड़ोगी भी और पहले की ही तरह नृत्य भी करोगी.’’ नर्स ने सांत्वना दी.
‘‘नृत्य करूंगी?’’ श्वेता हल्का-सा चौंकी फिर उसने प्रश्नों की बौछार कर दी, ‘‘आप मेरे बारे में कैसे जानती है? मैं यहां कैसे आई? मुझे हुआ क्या है? मेरे पैर… मेरे पैर… वे हिल क्यों नहीं रहे हैं?’’ श्वेता के अंदर का सारा भय, आश्चर्य और बेबसी अश्रुकण बन उसकी ख़ूबसूरत आंखों से बाहर आने लगा.
‘‘तुम हिमधारा के बर्फीले पानी के भीतर समा गई थी. इससे तुम्हारे पैर सुन्न हो गए हैं, किन्तु चिंता की कोई बात नहीं है. ‘ज़ाईलोकार्ड’ का इंजेक्शन लगा दिया गया है. धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा. तुम्हारे कदम पहले की ही तरह तबले की थाप पर एक बार थिरकेगें.’’ नर्स ने बताया.
हिमधारा का बर्फीला पानी? अचानक धुंध हट गई और श्वेता को सब कुछ याद आने लगा. हिमधारा के जमे हुए बर्फ़ पर उंगलियां थिरकाते-थिरकाते वह कुछ ज़्यादा जोश में आ गई थी और उसने तबले की भरपूर थाप उस पर जमा दी थी. उसकी उंगलियों की थपथपाहट से दरक चुकी बर्फ़ की पर्त क्षणांस में काई की तरह फट गई. श्वेता के झुके हुए शरीर को झटका-सा लगा. इससे पहले कि वह कुछ समझ पाती, हिमधारा की गहराइयों के भीतर समाती चली गई थी. असंख्य आरियों की धार एक साथ उसके शरीर पर चली, प्राणांतक पीड़ा, उसके बाद कुछ भी याद नहीं.

‘‘मैं यहां तक कैसे पहुंची? कौन लाया है मुझे मृत्यु के पंजों से निकाल कर.’’ श्वेता के होंठ कांप उठे.
‘‘है एक पागल.’’
‘‘पागल?’’
‘‘हां वह पागल ही है. तुम्हें बचाने के प्रयास में उसके दाएं हाथों की उंगलियां सुन्न हो गई थीं. स्नो-बाइट के बाद उनमें गैंगरीन फैलने लगा था, इसलिए डॉक्टर को उसकी तर्जनी और मध्यमा काटनी पड़ीं.’’ नर्स ने दर्द भरे स्वर में बताया.

‘‘कौन है वह देवदूत जिसने मुझे बचाने के लिए अपना जीवन दांव पर लगा दिया?’’ श्वेता ने डबडबाई आंखों से नर्स की ओर देखा.
‘‘आचार्य नागाधिराज.”

‘‘आचार्य नागाधिराज!’‘ ब्रह्मांड के विखंडित होने से भी भयावह धमक श्वेता के कानों में गूंज उठी. असीम पीड़ा से दिग्भ्रमित हो वह नर्स का गिरेबान थाम चीख उठी, ‘‘सिस्टर, तुम्हें होश भी है कि तुम क्या कह रही हो? आचार्य नागाधिराज, जिनकी उंगलियों की थाप से तबले के स्वर रागनी बन पूरे लद्दाख की वादियों में गूंजते थे उन उंगलियों को काट दिया गया है! इतना भयावह असत्य मत बोलो, वरना ईश्वर भी तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगा.’’
‘‘हां वह पागल ही है. तुम्हें बचाने के प्रयास में उसके दाएं हाथों की उंगलियां सुन्न हो गई थीं. स्नो-बाइट के बाद उनमें गैंगरीन फैलने लगा था, इसलिए डॉक्टर को उसकी तर्जनी और मध्यमा काटनी पड़ीं.’’ नर्स ने दर्द भरे स्वर में बताया.
‘‘कौन है वह देवदूत जिसने मुझे बचाने के लिए अपना जीवन दांव पर लगा दिया?’’ श्वेता ने डबडबाई आंखों से नर्स की ओर देखा.
‘‘आचार्य नागाधिराज.’’
‘‘आचार्य नागाधिराज!’‘ ब्रह्मांड के विखंडित होने से भी भयावह धमक श्वेता के कानों में गूंज उठी. असीम पीड़ा से दिग्भ्रमित हो वह नर्स का गिरेबान थाम चीख उठी, ‘‘सिस्टर, तुम्हें होश भी है कि तुम क्या कह रही हो? आचार्य नागाधिराज, जिनकी उंगलियों की थाप से तबले के स्वर रागनी बन पूरे लद्दाख की वादियों में गूंजते थे उन उंगलियों को काट दिया गया है! इतना भयावह असत्य मत बोलो, वरना ईश्वर भी तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगा.’’
‘‘मिस श्वेता, सत्य यही है कि अब लद्दाख की वादियों में आचार्य नागाधिराज के तबले की थाप कभी नहीं गूंजेगी. उनकी उंगलियों ने नृत्य साम्राज्ञी के पैरों की चपलता को अच्क्षुण रखने के लिए अपनी आहुति दे दी है.‘‘ नर्स के चेहरे पर दर्द का सागर उमड़ आया और उसके होंठ इन अविश्वसनीय शब्दों को स्वर देते-देते कांपने लगे.
श्वेता को अपना हृदय स्पंदनहीन होता प्रतीत होने लगा. आचार्य नागाधिराज से संगीत की शिक्षा लेने ही वह मुंबई से 2500 किमी. दूर हमेशा बर्फ़ से घिरी रहनेवाली लद्दाख की ख़ूबसूरत नगरी ‘पद्म’ आई थी और उसी के कारण आचार्य नागाधिराज अपने अमोघ वरदान से वंचित हो गए? अपने खिलवाड़ के चलते उसने उन्हें उनकी सारी निपुणता, दक्षता, कुशलता और कला से वंचित कर दिया. प्रस्तर की प्रतिमा की भांति वह अविचलित नर्स की ओर देखे जा रही थी. पीड़ा के चरम पर पहुंच उसकी पलकें भी झपकने के अपने अनवरत कर्तव्य को विस्मृत कर बैठी थीं.
“मिस श्वेता, संभालिए अपने आपको. अभी आपकी हालत ख़तरे से बाहर नहीं हुई है.’’ घबराई नर्स ने श्वेता के गालों को थपथपाया, मगर वह पाषाण कन्या की भांति अविचलित नर्स को घूरे जा रही थी. उसकी आंखों में एक भयावह शून्य समाया हुआ था.
‘‘डॉक्टर… डॉक्टर… जल्दी आइए.’’ श्वेता को अपनी बांहों में संभालते हुए नर्स ने आवाज़ लगाई.
‘‘क्या हुआ?’’ चंद पलों में डॉक्टर हरीयक्ष वहां आ गए.
“आचार्य नागाधिराज के बारे में सुनकर यह अपना होश खो बैठी हैं.’’ नर्स ने बताया.
‘‘इनकी हालत अभी ख़तरे से बाहर नहीं है. तुम्हें आचार्यजी के बारे में इन्हें नहीं बताना चाहिए था.’’ डॉक्टर हरीयक्ष का स्वर तेज हो गया.
‘‘इनके कारण ही आज हमारा सबसे बड़ा कलाकार अपनी कला से वंचित हो गया है, इसलिए मैं अपने आप को रोक न सकी.’’ न चाहते हुए भी नर्स का स्वर कसैला हो गया.

 

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‘‘सिस्टर, हमारा कर्तव्य मरीज़ों की सेवा करना है. अपनी ख़ुशी या नाराज़गी ज़ाहिर करना नहीं.’’ डॉक्टर हरीयक्ष ने नर्स को घूरा.
‘‘सॅारी डॉक्टर.’’
‘‘ओ.के.’’ डॉक्टर ने सिर हिलाया फिर बोले, ‘‘डायज़ेपॅाम का इंजेक्शन लाओ. इन्हें गहरी नींद में सुलाना ज़रूरी है. अब इनसे कोई ऐसी बात न करना, जिनसे इनके जज़्बातों को ठेस लगे.’’ डॉक्टर हरीयक्ष ने सहारा देकर श्वेता को बेड पर लिटा दिया.
इंजेक्शन लगने के थोड़ी देर बाद ही श्वेता गहरी नींद में समाती चली गई. किन्तु गहन निंद्रा में भी उसकी पीड़ा, उसके सपनों और स्मृतियों में अनवरत संघर्ष जारी था. स्मृति-पटल पर एक के बाद एक दृश्य चलचित्र की भांति उभर रहे थे.
प्रखर! जिसने उसके सपनों को प्रखरता प्रदान की. किसी सहयात्री की भांति उसके जीवन में आया था. एक साथ खेले, एक साथ पले-बढ़े और एक साथ जवान हुए. दोनों की अभिरूचियां और अभिलाषाएं एक. लक्ष्य और उसके संधान का मार्ग एक. दोनों ने एक साथ शास्त्रीय संगीत की शिक्षा हासिल की थी. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना कि प्रखर ने गायन के साथ तबला वादन में प्रवीणता हासिल की थी, तो श्वेता ने गायन के साथ नृत्य में. किंतु उनकी यही विविधता उन्हें पूर्णता की ओर ले जाती थी. तबले पर प्रखर की निपुण उंगलियां जब ‘ठेका’ लेतीं और पैरों में घुंघरू बांध श्वेता ‘तत्कार’ लगाती, तो प्रतिध्वन्वित होनेवाली मधुर ध्वनियां कानों में अमृत उड़ेलने लगतीं. प्रखर की हर थाप के साथ श्वेता के अंग, उपांग और प्रत्यांगों का परिचालन सम्मोहन की स्थिति उत्पन्न कर देता था. नृत्य के ‘ठात’ के साथ मुखड़े, टुकड़े और तिहाई को लेकर वह जिस लयबद्ध तरीक़े से नृत्य की संपूर्ण रूपरेखा क्षणांस में प्रस्तुत कर देती, उसे देख श्रेष्ठ कलाकार भी अचंभित रह जाते. दोनों मिलकर जब आलाप लगाते, तब बड़े से बड़े गायक भी वाह-वाह कर उठते.
प्रखर का साथ सर्वांग सुंदरी श्वेता को नित नई उंचाइयों पर ले जा रहा था. उनकी प्रसिद्धि हर परिधि को लांघ कीर्ति के नए स्तंभों की ओर अग्रसर हो रही थी. संगीत के हर घराने में दोनों का नाम एक आदर्श के रूप में चर्चित होने लगा था.
उस दिन सूर्यदेव अपनी यात्रा पूर्ण कर विश्राम की ओर अग्रसर थे. स्वर्ण सी दमकने वाली उनकी किरणों में लालिमा समाई हुई थी. उनकी आभा से आकाश में तैर रहे बादलों का रंग भी स्वर्णिम हो उठा था. घोसलों की ओर लौट रहे पक्षियों के कलरव से वातावरण में एक मधुर संगीत गूंज रहा था. कुल मिलाकर वह एक सुरमई शाम थी, किंतु श्वेता के चेहरे पर उदासी छाई हुई थी. खिड़की के निकट बैठी वह शून्य की ओर निहार रही थी.

‘‘दिदीप्तिमान चन्द्र के मुख पर चिंता के बादल? सब कुशल तो है?’’ तभी प्रखर ने वहां आते हुए कहा.
‘‘प्रखर, मैं शास्त्रीय संगीत और नृत्य को नई उंचाइयों पर ले जाना चाहती हूं, किंतु मंज़िल बहुत दूर प्रतीत होती है.’’ श्वेता के होंठ हिले.
‘‘और कितनी उंचाइयां चाहिए?’’ प्रखर हल्का-सा हंसा, फिर बोला, ‘‘आपसी राग-द्वेष भुला आज संगीत के हर घराने ने हमारी श्रेष्ठता स्वीकार कर ली है. इससे बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है?’’
‘‘उपलब्धि!’’ श्वेता के चेहरे पर छाई उदासी कुछ और गहरी हो गई, “क्या तुम्हें नहीं लगता कि हमारा संगीत इन घरानों की बलिष्ठ भुजाओं के मध्य क़ैद होकर नहीं रह गया है? मैं अपने संगीत को इन घरानों की ऊंची-ऊंची चारदीवारियों से बाहर निकाल कर घर-घर तक पहुंचाना चाहती हूं.’’
‘‘तुम्हारा आशय क्या है?’’
‘‘हमारे संगीत की पहुंच सभागारों, पेक्षागृहों और सरकारी अनुदानों तक सीमित होकर रह गई है. आमंत्रित अतिथियों के अतिरिक्त हमारे कार्यक्रमों को कोई और नहीं देखता. मैं शास्त्रीय संगीत को संरक्षित नहीं लोकप्रिय बनाना चाहती हूं. सुकुमारिता की पालकी से उतार उसे दृढ़ता के ऐसे सिंहासन पर आरूढ़ कराना चाहती हूं, जहां उसे किसी बैशाखी की आवश्यकता न हो.’’ श्वेता कुर्सी से उठ खड़ी हुई. उसकी आंखें आत्मविश्वास से जगमगाने लगी थीं और चेहरे पर एक अनोखी आभा उभर आई थी.
‘‘तुम करना क्या चाहती हो?’’ प्रखर अभी भी उसके आशय को समझ नहीं पाया था.
‘‘इसे देखो?’’ श्वेता ने मेज पर रखी पत्रिका प्रखर की ओर बढ़ाई.
“यह तो एक डांस कम्पटीशन का विज्ञापन है.’’
‘‘मैं इस प्रतियोगिता में भाग लूंगी.’’
“तुम इस टीवी चैनल के मुंबइया डांस कम्पटीशन में हिस्सा लोगी? होश भी है कि क्या कह रही हो? यदि भूल से भी इनके मंच पर कदम रखा, तो संगीत के सारे घरानों से परित्यक्त कर दी जाओगी.’’ प्रखर ने अविश्वनीय दृष्टि से उसकी ओर देखा.
‘‘यदि मेरे प्रयासों से शास्त्रीय संगीत को उसका वांछित सम्मान मिल सके, तो मुझे यह दंड शिरोधार्य होगा.’’ श्वेता के ख़ूबसूरत चेहरे पर एक फीकी मुस्कान तैर गई.
‘‘श्वेता, यह पाप होगा. हम अपने संगीत को बाज़ारू नहीं बना सकते.’’ प्रखर तड़प उठा.
‘‘पाप और पुण्य! इसकी परिभाषा तो मनुष्य अपनी सुविधानुसार गढ़ता है. हमारा संगीत पहले राजदरबारों की बैशाखियों का मोहताज़ था और आज सरकारी अनुदानों का. जनमानस तक न यह पहले कभी पहुंचा था और न आज. मैं इस मंच पर नृत्य करूंगी. अपनी कला को पूजा-अर्चना हेतु कला के मंदिरों में क़ैद करने की बजाय लोगों के दिलों के मंदिर तक पहुंचाऊंगी.’’ श्वेता ने दो टूक निर्णय सुनाया.
‘‘अग्नि से खेलकर स्वयं को भस्म करने जा रही हो. तुम कहीं विक्षिप्त तो नहीं हो गई हो?’’ प्रखर, श्वेता के कंधों को झिंझोड़ते हुए चीख पड़ा.

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संजीव जायसवाल ‘संजय’

 

 

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Photo Courtesy: Freepik

 

Usha Gupta

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