कहानी- अपराजिता 3 (Story Series- Aparajita 3)

‘‘मैं आपको बाध्य नहीं कर रही. आप निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है. जिस क्षण आप कह देंगे कि मैं आपकी शिक्षा हेतु सुपात्र नहीं, उसी क्षण मेरे कदम तत्काल थम जाएंगे.’’ श्वेता सम्मानित स्वर में बोली.
‘‘मेरा निर्णय?’’ आचार्य कुछ कहते-कहते रूक गए. उन्होंने पल भर के लिए श्वेता की ओर घूर कर देखा, फिर तेजी से पलट वहां से चले गए.

 

‘‘मैंने पता किया है. आचार्य नागाधिराज बाल ब्रह्मचारी हैं. उनके आश्रम में उनकी शिष्याओं के अतिरिक्ति किसी भी अन्य स्त्री का प्रवेश निषिद्ध है. इसलिए तुम्हारा वहां जाना उचित नहीं होगा.’’ प्रखर ने समझाया.
‘‘लेकिन मुझे संगीत की सर्वोत्कृष्ट शिक्षा प्राप्त करनी है.’’
‘‘यदि वहां प्रवेश ही संभव नहीं तो?’’
‘‘तो मैं टेक्नालोजी का सहारा लूंगी।’’
‘‘मतलब?’’
‘‘तुम अपना लैपटॉप और एक पोर्टेबल स्क्रीन लेकर उनके आश्रम में जाओ. मैं यहां कैमरे के समक्ष नृत्य करूंगी, जो वहां स्क्रीन पर लाइव टेलीकास्ट होगा. आचार्यजी उसे तो देखेगें.’’ श्वेता ने रास्ता सुझाया. ‘‘यह संभव नहीं हो सकता.’’ प्रखर ने प्रतिरोध किया.
‘‘इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है.’’
‘‘तुम पागल हो गई हो.’’ प्रखर उसकी ज़िद से भड़क उठा.
‘‘हां, मैं पागल हो गई हूं, क्यूंकि पागल ही असंभव को संभव करने की सामर्थ्य रखते हैं.’’ श्वेता मुस्कुराई.
प्रखर ने बहुत बहस की, किन्तु कोई नतीज़ा नहीं निकला. हारकर हमेशा की तरह उसे श्वेता की बात मानने के लिए सहमत होना पड़ा.
45 वर्षीय आचार्य नागाधिराज. लद्दाख के अनमोल रत्न. भगवान रूद्र के अनन्य भक्त. उनके संगीत की स्वर लहरियां सदैव हिम से अच्छादित रहनेवाली लद्दाख की पवित्र पहाड़ियों के मध्य गूंजती रहतीं. उनके आश्रम के साथ ही एक शिवालय था. प्रातः चार बजते ही शिवालय का प्रांगण आचार्य नागाधिराज के तबले की थाप से गूंजने लगता. उनके नेत्र रूद्र के चरणों में टिके रहते और उंगलियां तबले पर नृत्य करती रहतीं. ऐसा प्रतीत होता जैसे भगवान रूद्र का कोई गण उनकी साधना में लीन हो. दो घंटे के वादन के पश्चात आचार्य अपने इष्ट को शीश नवा कर खड़े होते. तब मंदिर के पुजारी आरती प्रारंभ करते. इस बीच जितने भी साधक, भक्त और शिष्य आते बिना किसी आहट के वहां बैठे रहते. आरती के पश्चात आचार्य आश्रम में आ जाते और नृत्य एवं संगीत की कक्षाएं प्रारम्भ हो जातीं.
कितने ही वर्ष बीत गए, कितनी ही ऋतुएं आकर चली गईं, किंतु आचार्य का नियम कभी भंग नहीं हुआ. केवल महाशिवरात्रि और सावन के प्रथम और अंतिम सोमवार को वे पद्म के प्रमुख देवालय में सूर्योदय से सूर्यास्त तक बिना अन्न-जल ग्रहण किए अनवरत तबला वादन करते. इस अद्भुत कार्यक्रम को देखने के लिए पूरे लद्दाख से प्रंशसकों की भीड़ उमड़ पड़ती. उस समय भक्तजनों को आचार्च नागाधिराज के चेहरे पर साक्षात रूद्र के तेज के दर्शन होते.
जिस तिथि पर भगवान शिव ने तांडव नृत्य किया था, उस दिन आचार्य नागाधिराज अद्भुत कला का प्रर्दशन करते थे. तबले के दोनों अंगों में दायां वाला ही मुख्य तबला होता है, जिसे ‘दायां’ कहते हैं और बाएं वाले को ‘धामा’ या ‘डुग्गी’. वादन के तीखे और चंचल बोल ‘ता, तिन, ना, ती, तिन, ते, टे, तिट’ ‘दायां’ पर बजाए जाते हैं और गंभीर ध्वनि वाले नाद ‘धा, धे, धिग, क, के, घिस्सा’ बाएं अर्थात ‘डुग्गी’ पर बजाए जाते हैं. किंतु उस दिन आचार्य दाएं हाथ से ‘डुग्गी’ और बाएं हाथ से ‘दायां’ को बजाते हुए जब तांडव स्त्रोत का गायन करते, तो श्रोताओं के हृदय प्रकंम्पित हो उठते.

 

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कहते हैं कि पूरे विश्व में आचार्य नागाधिराज ही एकमात्र ऐसे संगीतज्ञ हैं, जिनके बाएं हाथ की उंगलियां ‘ता, तिन, ना, ती, तिन, ते, टे, तिट’ और दाएं हाथ की उंगलियां ‘धा, धे, धिग, क, के, घिस्सा’ नाद का त्रुटिहीन वादन करती हैं. अद्भुत और अविश्वसनीय निपुणता का ऐसा कोई और उदाहरण संगीत के पूरे इतिहास में उपलब्ध नहीं है.
प्रखर अगले दिन की फ्लाइट से लेह पहुंच गया. वहां रात्रि विश्राम के पश्चात अगली सुबह सूर्योदय से पूर्व पद्म आ गया. आचार्य नागाधिराज उस समय देवालय में आराध्य की साधना में लीन थे. प्रखर वहीं बैठ गया. लंबे घुंघराले केश, उन्नत ललाट, गहरी काली आंखें और होंठों पर तैरती स्निग्ध मुस्कान, प्रखर प्रथम दृष्टि में ही आचार्य के मोहक व्यक्तित्व से प्रभावित हो गया.
आरती के पश्चात जब उसने अपना उद्देश्य बताया, तब आचार्य गंभीर स्वर में बोले, ‘‘आप हमारे प्रण से परिचित हैं, फिर भी ऐसा हठ क्यों?’’
‘‘आप एक बार श्वेता का नृत्य देख लीजिए, फिर निश्चित करिएगा कि वह आपके आशीर्वाद की पात्र है या नहीं.’’ प्रखर ने विनती की.
‘‘वत्स, मुझे क्षमा करें.” कह आचार्य तेजी से देवालय की सीढ़ियां उतरने लगे.
‘‘आचार्य, याचक की याचिका देखे बिना ही उसकी याचना को अस्वीकार कर देना न्याय की श्रेणी में नहीं आता.’’ प्रखर ने हाथ जोड़े.
आचार्य ने कोई उत्तर नहीं दिया और आश्रम की ओर बढ़ते रहे.
‘‘आचार्य, मैं श्वेता का नृत्य प्रारम्भ करवा रहा हूं. मेरी विनती है कि आप क्षण भर के लिए उसे देख लीजिए.’’ प्रखर ने कहा और शीघ्रता से स्क्रीन को लैपटॅाप से जोड़ स्टैंड पर खड़ा करने लगा. उसने अपने लैपटॅाप को पहले से ही ऑन कर रखा था, जिससे श्वेता सारी वार्तालाप सुन रही थी.
‘‘मैं इस तरह किसी बाहरी स्त्री को अपने आश्रम में नृत्य करने की अनुमति नहीं दे सकता.’’ आचार्य का चेहरा गंभीर हो उठा.
‘‘आचार्य, श्वेता के लिए उसका नृत्य, नृत्य नहीं अपितु साधना है और किसी साधक को उसकी साधना से रोकना…’’ प्रखर ने जान-बूझकर अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया. किंतु आचार्य उसका आशय समझ गए थे. अतः उन्होंने अपने कदमों की गति कुछ और तेज कर दी.
‘‘आचार्य, क्या लद्दाख हमारे देश का हिस्सा नहीं है?’’ तभी श्वेता की गंभीर वाणी गूंजी, तो आचार्य के कदम ठिठक गए.
उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा, तो श्वेता ने दोनों हाथ जोड़ प्रणाम किया, ‘‘आचार्य, आपका संगीत तो हमारे देश की अनमोल धरोहर है. यदि आपको लगता है कि मैं आपके देश की नागरिक नहीं हूं या मैं अपात्र हूं, तो मुझे अपने आशीर्वाद से अवश्य वंचित कर दीजिएगा.’’
नृत्य परिधान में सजी श्वेता सर्वांग सुंदरी सी दिखाई पड़ रही थी. मानो साक्षात मेनका नृत्य हेतु वसुंधरा पर अवतरित हो गई हों. आचार्य नागाधिराज ने पल भर के लिए उसे देखा, फिर गंभीर स्वर में बोले, ‘‘देवी, क्षमा करें, मैं अपना प्रण भंग नहीं कर सकता.’’
“उसे शिथिल तो कर सकते हैं.’’ श्वेता ने हाथ जोड़े.
‘‘कदापि नहीं.’’
‘‘गुरूश्रेष्ठ, तपस्या करना मेरा अधिकार है और वरदान देना आपका. इसलिए मैं तपस्या करूंगी. वह सफल होगी या नहीं इसे ईश्वर पर छोड़ देते हैं.’’ श्वेता ने दंडवत कर आचार्य को प्रणाम किया, फिर दाएं पैर के घंघुरूओं को छनका कर ‘तत्कार’ लगाई.
प्रातः काल की बेला थी, इसलिए उसने उसके अनुकूल ‘राग-भैरव’ पर नृत्य प्ररम्भ कर दिया. किंतु आचार्य नागाधिराज वहां रूके नहीं और अपने कक्ष में चले गए.
एक घड़ी पश्चात जब वे शिक्षण हेतु कक्षाओं की ओर जा रहे थे, तब उस समय के अनुकूल राग ‘बिलावल’ के बोल पर श्वेता के कदम झूम रहे थे. सायं 4 बजे जब वे कक्षाएं समाप्त कर लौटे, तो उस समय के राग ‘मारवा’ पर श्वेता का नृत्य जारी था. आचार्य उसकी ओर देखे बिना अपने कक्ष में चले गए, किंतु उनके कानों में श्वेता के त्रुटिहीन बोल, ‘सां, निध, म ग, रे स, ध म ग रे, ग म ग, रे स’ गूंज रहे थे.
रात्रि में आचार्य थोड़ी देर के लिए भ्रमण अवश्य करते थे. उस रात्रि जब वे बाहर आए, तो उनके शिष्यों की भीड़ मंत्रमुग्ध हो श्वेता का नृत्य देख रही थी. रात्रि के उस प्रहर में गाए जानेवाले राग ‘कल्याण’ ‘सां नि ध प, म ग रे सा, नि रे ग रे, प रे, नि रे सा’ पर उसके कदम उसी कुशलता और चपलता से थिरक रहे थे जितनी प्रवीणता से उसने प्रातः काल नृत्य आरम्भ किया था.
अद्भुत साधना देख क्षणांश के लिए आचार्य का मन विचलित सा हुआ, किन्तु अगले ही पल वे कठोर स्वर में बोले, ‘‘आप सब यहां क्या कर रहे हैं?’’
“आचार्य, ऐसा अद्वितीय नृत्य हम लोगों ने पहले कभी नहीं देखा है.’’ उनके प्रिय शिष्य गोमांग ने बताया.
‘‘हां आचार्य, श्वेता दीदी आपकी योग्यतम ही नहीं, श्रेष्ठतम शिष्या सिद्ध होंगी. वे आपकी कीर्ति पताका को दिग-दिगंत तक फहराने में सक्षम हैं. उन्हें अपनी शिक्षा का प्रसाद दे धन्य कर दीजए.’’ एक और शिष्या अंजलि ने विनती की.
‘‘किसको शिक्षा देनी है और किसको नहीं, यह क्षेत्राधिकार मेरा है. आप लोग इसमें हस्तक्षेप न करें और अपने-अपने कक्ष में जाएं.’’ आचार्य का चेहरा तमतमा उठा और आंखों से क्रोध की ज्वाला झलक उठी.
हमेशा शांत रहनेवाले आचार्य का ऐसा रूप सबने पहली बार देखा था, अतः निशब्द वहां से चले गए.
“देवी, हठ की भी कोई सीमा होती है.’’ सभी के जाने के पश्चात आचार्य ने श्वेता की ओर देखा.
‘‘हठ, तो तपस्या की पहली सीढ़ी होती है और मैं इस सीढ़ी पर कई पायदान ऊपर चढ चुकी हूं. अब मेरा वापस लौटना संभव नहीं है.’’ श्वेता ने हाथ जोड़ते हुए उत्तर दिया।श.
“किंतु तपस्या किसी पवित्र उद्देश्य हेतु की जाती है किसी को बाध्य करने के लिए नहीं.’’ आचार्य के कंठ से निकलने वाले स्वर कुछ और गंभीर हो गए.
‘‘मैं आपको बाध्य नहीं कर रही. आप निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है. जिस क्षण आप कह देंगे कि मैं आपकी शिक्षा हेतु सुपात्र नहीं, उसी क्षण मेरे कदम तत्काल थम जाएंगे.’’ श्वेता सम्मानित स्वर में बोली.
‘‘मेरा निर्णय?’’ आचार्य कुछ कहते-कहते रूक गए. उन्होंने पल भर के लिए श्वेता की ओर घूर कर देखा, फिर तेजी से पलट वहां से चले गए.
अपने कक्ष में आकर वे लेट गए, किन्तु उनकी निद्रा, उनकी क्रोधाग्नि और अन्तआत्मा के मध्य द्वंद जारी था. लद्दाख के उनके शिष्य संगीत को ईश्वर का प्रसाद समझ कर ग्रहण करते थे. संगीत उनके लिए कला नहीं, अपितु साधना थी. यदि वे बाहरी लोगों को शिक्षा देने लगे, तो उनके संगीत का व्यवसायीकरण होते देर नहीं लगेगी, इसलिए वे अपने सिद्धांतों से पीछे नहीं हटेंगे.
‘जिस क्षण आप कह देंगें कि मैं आपकी शिक्षा हेतु सुपात्र नहीं, उसी क्षण मेरे कदम तत्काल थम जाएंगे.’ तभी उनके कानों में श्वेता के शब्द गूंजने लगे. पात्र-सुपात्र, प्रण-सिद्धांत, नागरिक-देश, हठ-तपस्या सब गड़मगडध सा होने लगा. हर बीतते पल के साथ उनके अंदर का द्वन्द बढ़ता ही जा रहा था. एक अजीब सी बेचैनी, व्यग्रता और उद्वेग उन पर हावी होने लगा था. इसी स्थित में करवट बदलते रात्रि के दो प्रहर और बीत गए.
‘नहीं, वे किसी बाहरी को शिक्षा नहीं देंगे चाहे कुछ भी हो जाए’ उन्होंने निर्णय लिया और शैय्या से उठ बैठे. किंतु उनके अंदर की व्यग्रता कम होने का नाम नहीं ले रही थी. उदिग्न सा वे शयनकक्ष में चहलकदमी करने लगे. अचानक खुली हुई खिड़की से उनकी दृष्टि स्क्रीन पर नृत्य कर रही श्वेता के ऊपर पड़ गई.

 

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रूपसी नृत्यांगना का रूप इस समय पूरी तरह परिवर्तित हो चुका था. उसके केश खुल गए, थे जो जटाओं की भांति बिखरे हुए थे और आंखें धूमकेतु सी धधक रही थीं. कोमल नासिका रक्तिम आभा से दमक रही थी और होंठ अजीबोगरीब ढंग से प्रकंपित हो रहे थे. प्रचंड अग्निशिखा की भांति उसका सर्वस्व धधक रहा था और वह किसी झंझावत की भांति झूम-झूम कर नृत्य कर रही थी. आचार्य को लगा जैसे साक्षात रूद्र, नटराज का रूप धारण कर नृत्य कर रहे हों.
किसी अज्ञात भावना के वशीभूत उनके कदम कक्ष से बाहर निकल देवालय की ओर चल दिए. सदा की भांति उनके तबले शिवशंकर की मूर्ति के समक्ष रखे हुए थे. आचार्य की उंगलियां कब उन पर थिरकने लगीं उन्हें स्वयं ज्ञात नहीं था. रात्रि के सन्नाटे में ‘धा धिं धिं धा… धा धिं धिं धा… धा तिं तिं ता… ता धिं धिं धा…’ का नाद दूर-दूर तक गूंजने लगा.
रात्रि के अंतिम प्रहर में आचार्य का तबला वादन सातवें आश्चर्य से कम न था. एक-एक करके शिष्यों की भीड़ वहां एकत्रित होने लगी. इस बीच प्रखर ने अपने लैपटॉप के कैमरे का रूख आचार्य की ओर कर दिया था. उन्हें देख श्वेता के थिरक रहे कदमों की गति कुछ और बढ़ गई. पिछले 20 घंटों से उसका अनवरत नृत्य अविरल जारी था, किंतु चेहरे पर थकान का कोई चिह्न न था.
धीरे-धीरे दो घंटे और बीत गए, किन्तु न तो श्वेता का नृत्य रूक रहा था और न ही तबले पर थिरक रही आचार्य की उंगलियां. उनके चेहरे पर एक अजीब सी कठोरता छाई हुई थी और कड़ाके की सर्दी में भी उनके माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आई थीं. ऐसा लग रहा था कि वे पराजित नहीं होना चाहते थे, किंतु विवश से हो रहे थे.
तभी आचार्य के तबले से ‘टंकार’ की तेज ध्वनि निकली. गोमांग की दृष्टि आचार्य की उंगलियों पर ही टिकी हुई थी. क्षणांश में उसने पहचान लिया कि यह ‘तांडव-राग’ की ध्वनि है. आचार्य की क्रोधाग्नि किस सीमा तक पहुंच गई है उसे समझते देर नहीं लगी.
‘‘अपनी उंगलियों को विश्राम दीजिएए आचार्य, अन्यथा अनर्थ हो जाएगा.’’ उसने हाथ जोड़कर विनती की.
आचार्य ने आग्नेय दृष्टि से उसकी ओर देखा, तो वह विनीत स्वर में बोला, ‘‘शिखर पर पहुंचने के पश्चात सीढ़ियां समाप्त हो जाती हैं, उससे आगे कदम बढ़ाना संकट को आमंत्रण देना होता है. इस देवी के कदम शिखर से आगे बढ़ मृत्यु का आलिंगन करने हेतु कटिबद्ध हो रहे हैं. इनकी प्राणरक्षा कीजिए आचार्य.”

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें..

संजीव जायसवाल ‘संजय’

 

 

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Usha Gupta

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