तुम्हारे शहर की अजब कहानी है… काग़ज़ों की कश्ती है, बारिशों का पानी है… मिलते तो हैं लोग मुस्कुराकर यहां,…
वो बूढ़ी मां अब काम की नहीं लगती जो तुमको गरम-गरम रोटियन घी भर-भर के खिलाती थी… अब वो बोझ लगती हैक्योंकि उसके इलाज में पैसे खर्च होते हैं तुम्हारे... तुम्हारे बच्चों को वो अब दादी या नानी नहीं लगती, वो उसे बुढ़िया या बुड्ढी कहने लगे हैं क्योंकि उसकी याददाश्त अबउ सका साथ नहीं देती.. वो अब इरिटेटिंग लगती है… जो कभी उनको बड़े प्यार से कहानियां सुनाया करती थी… वो बूढ़ी मां अब ग़ुस्सा दिलाती है तुम्हें, जो घंटों दरवाज़े पर बैठ तुम्हारे लौटंने का इंतज़ार करती थी, जिसको यही चिंता सताती थी कि मेरे बेटे ने, मेरी बेटी ने कुछ खाया है या नहीं… जो तुम्हें खाना खिलाने के बाद ही हलक से निवाला निगल पाती थी… अब वो तुम्हारे बच्चों की पढ़ाई में एक डिस्टर्बिंग एलीमेंट हो गई है… उस बूढ़ी मां के लिए अब तुम्हारे लिए वक़्त नहीं, जो तुम्हारी हल्की सी छींक और खांसी पर तुम्हें गोद में लेकर डॉक्टर केपास दौड़ पड़ती थी, जो तुम्हारा बुख़ार न उतरने पर न जाने कौन-कौन से मंदिरों कौन-कौन सी मज़ारों के चक्कर लगाकर मन्नतें मांगा करती थी उसके लिए तुम्हारे बड़े से महलनुमा घर में एक छोटा-सा कमरा तक नहीं है ख़ाली, जो कभी तुम्हें एक छोटे-से कमरे में हीमहलों का एहसास कराती थी… वो बूढ़ी मां अब तुमको मां ही नहीं लगती है, जिसका आंचल पकड़कर तुम ख़ुद को हमेशा महफ़ूज़ समझते थे, जिसकीगोद तुमको जन्नत का एहसास कराती थी, अब उसका शरीर कमज़ोर पड़ चुका है, अब तुमको उसके बुढ़ापे की लाठी बननेकी ज़रूरत है लेकिन तुम अब बस हर पल उसके मरने का ही इंतज़ार करते हो… क्योंकि अब उसके पास तुम्हारे नाम करनेको कोई प्रॉपर्टी नहीं… और जब तुम देखते हो कि उसे मौत भी नहीं आ रही, वो अब बीमारी से है घिरती जा रही, तब तुम उसको ओल्ड एज होम मेंले जाकर छोड़ देते हो और उसकी आंखें बस तुम्हारा इंतज़ार करते-करते वहीं बंद हो जाती है… गीता शर्मा डाउनलोड करें हमारा मोबाइल एप्लीकेशन https://merisaheli1.page.link/pb5Z और रु. 999 में हमारेसब्सक्रिप्शन प्लान का लाभ उठाएं व पाएं रु. 2600 का फ्री गिफ्ट.
सर्द मौसम में सुबह की गुनगुनी धूप जैसी तुम… तपते रेगिस्तान में पानी की बूंद जैसी तुम… सुबह-सुबह नर्म गुलाब पर बिखरी ओस जैसी तुम… हर शाम आंगन में महकती रातरानी सी तुम… मैं अगर गुल हूं तो गुलमोहर जैसी तुम… मैं मुसाफ़िर, मेरी मंज़िल सी तुम… ज़माने की दुशवारियों के बीच मेरे दर्द को पनाह देती तुम… मेरी नींदों में हसीन ख़्वाबों सी तुम… मेरी जागती आंखों में ज़िंदगी की उम्मीदों सी तुम… मैं ज़र्रा, मुझे तराशती सी तुम… मैं भटकता राही, मुझे तलाशती सी तुम… मैं इश्क़, मुझमें सिमटती सी तुम… मैं टूटा-बिखरा अधूरा सा, मुझे मुकम्मल करती सी तुम… मैं अब मैं कहां, मुझमें भी हो तुम… बस तुम… सिर्फ़ तुम! गीता शर्मा
आज फिर याद आने लगे हैं फ़ुर्सत के वो लम्हे, जिन्हें बड़ी मसरूफ़ियत से जिया था हमने… चंद दोस्त थे और बीच में एक टेबल, एक ही ग्लास से जाम पिया था हमने… न पीनेवालों ने कटिंग चाय और बन से काम चलाया था, यारों की महफ़िल ने खूब रंग जमाया था… हंसते-खिलखिलाते चेहरों ने कई ज़ख्मों को प्यार से सहलाया था… जेब ख़ाली हुआ करती थी तब, पर दिल बड़े थे… शरारतें और मस्तियां तब ज़्यादा हुआ करती थीं, जब नियम कड़े थे… आज पत्थर हो चले हैं दिल सबके, झूठी है लबों पर मुस्कान भी… चंद पैसों के लिए अपनी नियत बेचते देखा है हमने उनको भी, जिनकी अंगूठियों में हीरे जड़े थे… माना कि लौटकर नहीं आते हैं वो पुराने दिन, पर सच कहें तो ये ज़िंदगी कोई ज़िंदगी नहीं दोस्तों तुम्हारे बिन… जेब में पैसा है पर ज़िंदगी में प्यार नहीं है… कहने को हमसफ़र तो है पर तुम्हारे जैसा यार नहीं… वक़्त आगे बढ़ गया पर ज़िंदगी पीछे छूट गई, लगता है मानो सारी ख़ुशियां जैसे रूठ गई… कामयाबी की झूठी शान और नक़ली मुस्कान होंठों पर लिए फिरते हैं अब हम… अपनी फटिचरी के उन अमीर दिनों को नम आंखों से खूब याद किया करते हैं हम… गीता शर्मा
काश कि कभी तुमने अपने स्कूल के बस्ते को घर लौटते वक़्त मेरे कंधे पर रक्खा होता काश कि मैंने…