आज समाज में बड़ी उम‘ की कुंवारी लड़कियां जब मज़े से अपनी ज़िंदगी जीती नज़र आती हैं, तो बड़े-बुज़ुर्गों के चेहरे पर आश्चर्य की लकीरें खिंच आती हैं. भले ही वे मुंह से कुछ न कहें. वाकई यह एक बड़ा बदलाव है. समाज में आज 25-30 वर्ष की बिन ब्याही लड़कियां आत्मसम्मान के साथ जी रही हैं. अब न उनकी शादी चिंता का विषय बनती है, न ही उनकी मौज-मस्ती पर प्रश्न उठते हैं.
हाल ही में हुए एक सर्वे के अनुसार, ज़्यादातर शहरी लड़कियों को अब शादी की जल्दी नहीं है. उन्हें करियर बनाना है. पैरेंट्स भले ही उनकी शादी की चिंता करें, लेकिन लड़कियां न तो इस बात से चिंतित हैं, न ही किसी प्रकार का अपराधबोध महसूस करती हैं, बल्कि अपने कुंवारेपन को ख़ूब एंजॉय करती हैं और शादी के मंडप में क़दम रखने से पहले विवाहित जीवन के हर पहलू पर भलीभांति विचार करना चाहती हैं. उनके लिए नारी जीवन का एकमात्र लक्ष्य शादी नहीं है. संभवतः पढ़ी-लिखी बेटियों की इस सोच से जाने-अनजाने पैरेंट्स भी सहमत होने लगे हैं और धीरे-धीरे समाज भी इसे स्वीकारने लगा है.
समाजशास्त्रियों के अनुसार, यदि लड़कियों के दृष्टिकोण पर ध्यान दिया जाए तो उनमें विवाह की जल्दी न होने के कई ठोस कारण हैं, जैसे- शिक्षा सबसे प्रमुख कारण है लड़कियों का शिक्षित होना. शिक्षा ने न स़िर्फ लड़कियों को, बल्कि समाज की सोच को भी परिवर्तनशील व व्यापक नज़रिया प्रदान किया है.
शिक्षा के कारण लड़कियों की विचारशक्ति व सोच में बदलाव आया है, उनमें आत्मविश्वास बढ़ा है. आत्मनिर्भर होने की आकांक्षा जागृत हुई है.
इसने लड़कियों को आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर बना दिया है. उन्हें शादी से ़ज़्यादा अपने करियर पर फोकस करना महत्वपूर्ण लगता है. कई लड़कियां तो परिवार को आर्थिक सहयोग दे रही हैं. ऐसे में शादी का ख़्याल ही नहीं आता है.
समाज या परिवार में हुए बेमेल विवाहों ने भी लड़कियों की सोच बदली है. शादी भले ही देर से हो, लेकिन साथी ऐसा हो जिसके साथ ज़िंदगी की सार्थकता बनी रहे, सामंजस्य बना रहे, उचित तालमेल के साथ भावी जीवन ख़ुशहाल रहे.
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‘चट मंगनी पट ब्याह’ की सोच में आज की पीढ़ी विश्वास नहीं रखती है. आए दिन होनेवाले तलाक़ की ख़बरों ने भी शादी के प्रति उनकी भावनाओं को बदल दिया है.
छोटे-छोटे परिवारों में (जहां स़िर्फ एक बेटी है) बेटियां पैरेंट्स की देखभाल की ज़िम्मेदारी को समझते हुए शादी का ़फैसलाजल्दी नहीं लेना चाहती हैं, बल्कि उन्हें ऐसे साथी की तलाश होती है, जो पैरेंंट्स की ज़िम्मेदारी के प्रति उनकी भावनाओं को समझे.
यंग जनरेशन आज कमिटमेंट से डरती है, किसी भी बंधन से कतराती है. उनकी अपनी वैल्यूज़ हैं, अपनी पसंद है. इसलिए इस मामले में वे ज़रा भी जल्दबाज़ी नहीं करना चाहते.
पहले कहा जाता था कि 25-30 तक की उम‘ में गर्भधारण कर लिया जाए तो हेल्दी बच्चा पैदा होता है और बड़ी उम‘ में गर्भधारण करने से होनेवाले शिशु के असामान्य होने की संभावना बढ़ जाती है. इस कारण समय से शादी करना ज़रूरी माना जाता था, लेकिन मेडिकल साइंस की नई टेक्नोलॉजी के चलते अब यह कोई बड़ी समस्या नहीं रह गई है.
टीवी और इंटरनेट की दुनिया ने पूरे विश्व की संस्कृति को एक कर दिया है. आज हम संस्कृति भी एक्सचेंज कर रहे हैं. शादी को अब उम‘ से नहीं जोड़ा जाता है. 35-40 की उम‘ में भी आज शादियां होती हैं.
आज यंग एज से ही इमोशनल सपोर्ट मिलने लगता है. पहले जिन भावनाओं का पूरक जीवनसाथी हुआ करता था, उसके लिए आज गर्लफ‘ेंड व बॉयफ‘ेंड हैं.
लड़कियों में मैच्योरिटी बढ़ गई है, लेकिन सहनशक्ति, त्याग व बलिदान जैसी भावनाएं कम हो रही हैं. वो ऐसा साथी चाहती हैं, जो उन्हें समझे. पैसा, स्टेटस जैसी चीज़ों के बावजूद वे साथी से इमोशनल सपोर्ट चाहती हैं.
इन कारणों के अतिरिक्त कुछ व्यक्तिगत कारण भी हो सकते हैं, जिनकी वजह से शादियां देर से होने लगी हैं. दूसरी ओर पैरेंट्स की सोच में भी बदलाव आया है, जैसे- कोई मां यदि अपने जीवन में मनचाहा नहीं कर पाई है तो उसकी पूरी कोशिश होती है कि उसकी बेटी उसकी महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सके. इसके लिए वह उसे हर प्रकार से सहयोग देती है.
– आज पैरेंट्स को अपने बच्चों पर भरोसा है. उनकी तरफ़ से भी बच्चों पर कोई प्रेशर नहीं होता है. पैरेंट्स बच्चों को पढ़ाई व करियर के प्रति प्रेरित करते हैं. जब तक लड़के-लड़कियां अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर लेते, शादी की चर्चा नहीं की जाती.
– पारिवारिक समारोह के दौरान अब ऐसा नहीं पूछा जाता कि ‘शादी कब हो रही है’, बल्कि हर कोई जानना चाहता है कि ‘बेटी क्या कर रही है’. बेटी की एजुकेशन या सफलता का ज़िक‘ करते समय पैरेंट्स गर्व महसूस करते हैं तो बच्चों का हौसला भी बढ़ता है, उनका दृष्टिकोण बदलता है.
– आज के पैरेंट्स अपनी बेटी की ख़ुशी के लिए परिवार-समाज के सामने झुकना ठीक नहीं समझते. उनके लिए उनकी बेटी की ख़ुुशियां सर्वोपरि होती हैं. हां, उन्हें चिंता ज़रूर होती है और वे चाहते भी हैं कि उनके जीते जी ही बेटी को सही साथी मिल जाए, क्योंकि उनके बाद बेटी को कौन सपोर्ट करेगा? बुढ़ापे में अकेली कैसे रहेगी? लेकिन बच्चों की ख़ुशी के आगे ये चिंताएं धरी की धरी रह जाती हैं और आख़िरी निर्णय वे अपने बच्चों पर ही छोड़ देते हैं.
– प्रसून भार्गव
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