रात के क़रीब आठ बज रहे थे. आकांक्षा को अब तक यक़ीन नहीं आ रहा था की उसने इतनी बड़ी लापरवाही कैसे कर दी थी. कम से कम अगर एक बार उसने अपना ईमेल चेक किया होता, तो उसे इस तरह से सबकी डांट न पड़ी होती. उसने जाने वाली तारीख़ का रिजर्वेशन करा रखा था और परीक्षा की तारीख़ भी तय ही थी, तो बार-बार डेट देखने का कोई मतलब भी तो नहीं था, लेकिन अगर उसकी सहेली ने फोन करके ये न बताया होता की परीक्षा की डेट निर्धारित तिथि से पहले कर दी गई है, तो शायद ये बात आकांक्षा को परीक्षा के बाद ही पता चलती. फोन रखते ही उसने आनन-फानन में लखनऊ यूनिवर्सिटी की वेबसाइट खोली थी और नोटिफिकेशन देखकर की आने वाले चुनाव की वजह से परीक्षा एक हफ़्ते पहले की जा रही है, आकांक्षा के होश उड़ गए थे. परीक्षा की नई डेट 17 जून थी और आज 16 जून है यानी आकांक्षा को सुबह नौ बजे लखनऊ पहुंचना था. अब न तो ट्रेन में रिजर्वेशन मिलना था और न ही कोई और तरीक़ा था इतने कम वक़्त में भदोही से लखनऊ पहुंचने का.
उसने अपने पापा को इलाहाबाद फोन किया. आकांक्षा के पापा और भाई इलाहाबाद में रहते थे और वहीं बिज़नेस करते थे. आकांक्षा अपनी मम्मी के साथ भदोही में ही रहती थी. उसने बनारस विश्वविद्यालय से पढ़ाई की थी और अब मास्टर्स के लिए लखनऊ जाना चाहती थी. उसी की प्रवेश परीक्षा कल सुबह यानी की 17 जून को होनी थी. इसकी तैयारी आकांक्षा पिछले कई महीनो से कर रही थी, लेकिन अब शायद उसकी सारी मेहनत पे पानी फिर जाने वाला था. उसने लगभग रोते हुए अपने पापा को सारी बात बताई.
“अरे तो इसमें रोने वाली क्या बात, अभी एक बस होगी लखनऊ के लिए उसमें चली जाओ. सुबह तक आराम से पहुंच जाओगी.” पापा ने उसे रोते हुए सुनकर कहा था.
पापा की बात सुनकर आकांक्षा ने रोना बंद कर दिया. उसे यक़ीन नहीं आ रहा था कि सच में वो अब भी परीक्षा में शामिल हो सकती है.
“वैसे परीक्षा है कितने बजे से?” पापा ने उसके चुप होते ही पूछा था.
“नौ बजे से.”
“हां, तब तो आराम से पहुंच जाओगी बस का पहुंचने का टाइम सात बजे का है. अब जल्दी से तैयारी कर लो, मैं ऋषि को फोन कर देता हूं वो टिकट ले लेगा.” पापा ने आकांक्षा के जवाब को सुनकर कहा था. ऋषि, आकांक्षा के रिश्ते का भाई था, जिसकी बस स्टैंड के नज़दीक ही हार्डवेयर की दुकान थी.
फोन रखते ही प्रिया ने लखनऊ जाने की तैयारी शुरू कर दी थी. उसने खाना भी नहीं खाया और एक टिफिन में पैक कर लिया. बाकी ज़रुरत का सामान एक छोटे बैग में रखा और स्कूटर लेकर बस स्टैंड के लिए भाग पड़ी थी. उसके घर से बस स्टैंड की दूरी क़रीबन दस किलोमीटर थी और वो नहीं चाहती थी की एक बार फिर मिले इस गोल्डन मौक़े को गवां दे.
9:30 के क़रीब वो ऋषि की दुकान पर थी. उसने अपना स्कूटर दुकान में ही छोड़ा और फिर ऋषि से टिकट लेकर बस में आ गई. बस की सीट पे बैठते ही उसे सुकून का एहसास हुआ था. उसकी एक बार फिर से लखनऊ यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने की तमन्ना पूरी होने वाली थी.
दस बजते ही बस चल पड़ी थी. अपने जीवन में आज पहली बार आकांक्षा रात में अकेले सफ़र पर थी. कई सपनो में से रात में अकेले सफ़र करना भी उसका एक सपना था. वैसे तो ये मौक़ा उसे मिलने वाला था नहीं, लेकिन कम से कम उसकी लापरवाही की वजह से उसका ये सपना पूरा हो गया था.
उसने हेडफोन निकाल एक रोमांटिक गाना लगा लिया और रास्ते में पड़ने वाली बंद दुकानों, दुकानों के बाहर लाइट से जगमगाते बोर्ड, सड़क के किनारे ठेलों में व्यापार करने वाले लोग, जो न सिर्फ़ अपना सामान, बल्कि अपने सपने भी ठेलो में रखकर वापस घर को चल पड़े थे को देखती जा रही थी. दिन की गर्मी की तपन हवाओं में अब भी मौजूद थी.
अब तक बाकी सब तो ठीक था सिवाय बस की हालत के. खिड़कियों के जाम हो चुके शीशे, फटे हुए रंगबिरंगे सीट कवर्स, मैल से काले पड़े पिलर्स और सबसे बुरी उन सीट कवर्स और पिलर्स से आने वाली अजीब सी महक.
वो ऐसी बदबू थी की किसी रोज़ सफर करने वाले को भी उलटी आ जाए और आकांक्षा को तो वैसे भी बस में उलटी की शिकायत थी. बदबू से बचने के लिए उसने एक कपड़ा चेहरे में बांध रखा था और घर से निकलते टाइम लौंग और उलटी रोकने की गोली भी रख ली थी.
बस को चले एक घंटा ही हुआ था कि बस एक ढाबे पर रुक गई. कंडक्टर ने बताया की बस कुछ देर इस ढाबे में ठहरेगी जिसको भी पानी-वानी पीना है पी ले, उसके बाद बस सीधे लखनऊ में ही रुकेगी. आधे से ज़्यादा लोग बस से उतर ढाबे पर पहुंच गए थे. आकांक्षा के पास पानी की भरी बोतल थी और वैसे भी उसे पानी पीना नहीं था, वरना उसे और भी ज़्यादा उलटी आती थी. वो चुपचाप अपनी सीट पर बैठी बाकी के लोगों को खाते-पीते खिड़की से देख रही थी. फिर उसे याद आया कि उसे प्यास भले न लगे, लेकिन बाथरूम ज़रूर उसे एक बार हो आना चाहिए. इसके बाद फिर सुबह ही बाथरूम जाने का मौक़ा मिलेगा. उसने आसपास नज़रें दौड़कर कंडक्टर को देखा. वो नज़दीक ही गले में बैग लटकाए चाय के प्याले के साथ व्यस्त था.
“भइया, यहां बाथरूम कहां पर होगा?” उसने कंडक्टर के पास जाकर पूछा था.
“यहीं पीछे साइड में है.” कंडक्टर ने उसे बताते हुए हाथ को उस दिशा में उठा लिया था.
“अच्छा ठीक है मैं पांच मिनट में आती हू आप जाइएगा नहीं.” उसने कहा और जवाब का इंतज़ार करने लगी, लेकिन जब कंडक्टर ने कोई उत्तर नहीं दिया तो उसने बताए हुए रास्ते की तरफ़ चलना शुरू कर दिया था. उसे डर था की कहीं बस वाला उसे छोड़कर चला न जाए. उसने आधे रास्ते से एक बार पलटकर कंडक्टर को देखा था. वो उसी तरह खड़ा अब भी अपनी चाय में व्यस्त था.
पीछे जाने पर दो छोटे बाथरूम थे. एक में महिला और दूसरे में पुरुष लिखा था. उसने महिला वाले दरवाज़े को खोलने की कोशिश की. दरवाज़ा अंदर से बंद था. वो कुछ दूर खड़े होकर इंतज़ार करने लगी और इसके पहले की दरवाज़ा खुले, वो अंदर जाए, एक जवान लड़का आकर उसके आगे महिला बाथरूम के सामने खड़ा हो गया था.
“हेलो, ये वुमन्स टॉयलेट है, आप बगल में जाइए न.” उसने तेज़ी से लड़के को आवाज़ देकर कहा था.
लड़के ने पलटकर उसे ऊपर से नीचे तक निहारा और फिर बिना कोई जवाब दिए बगल के दरवाज़े पर चला गया.
बाथरूम से आकांक्षा भागती हुई वापस आई थी. उसे लगा था बस कहीं चली न गई हो, लेकिन बस बिल्कुल वैसे ही खड़ी थी. कंडक्टर ने अब तक अपनी चाय भी नहीं ख़त्म की थी. आकांक्षा वापस आकर अपनी सीट में बैठ गई.
वो लड़का जो कुछ देर पहले आकांक्षा को बाथरूम के पास मिला था ढाबे में एक खाट पर बैठा कुछ खा रहा था. उसे देखते ही आकांक्षा ने सोचा की देखने में तो पढ़ा-लिखा लग रहा है, लेकिन जान-बूझकर वुमन्स टॉयलेट में घुसा जा रहा था.
कुछ देर में सब बस में वापस आ गए. कंडक्टर ने जाने की घंटी कर दी थी, लेकिन वो लड़का अब भी ढाबे के काउंटर पर खड़ा पैसे ही दे रहा था. आकांक्षा को लगा की या तो वो बस में है ही नहीं या फिर उसे बस के जाने का एहसास ही नहीं हुआ था. उसे लगा वो कंडक्टर से कहे की एक सवारी रह गई है, लेकिन फिर लगा अगर वो लड़का इस बस का नहीं हुआ तो. बस चलने ही वाली थी की आराम से मस्तमौला चाल में चलते हुए वो लड़का बस की तरफ़ बढ़ने लगा. नीले रंग का जींस पैंट, सफ़ेद रंग की शर्ट, क़रीबन पांच फिट ग्यारह इंच की लंबाई. उसे इस तरह आते देख आकांक्षा की धड़कने बढ़ने लगी थी, लेकिन उसे तो जैसे कोई डर कोई परवाह थी ही नहीं. बस के चलने से पहले वो आराम से बस के अंदर आ गया था. खैर एक बार बस फिर से चल पड़ी थी और अब सुबह लखनऊ में होनी थी.
जल्द ही ठंडी हवा के झोंकों ने आकांक्षा को सुला दिया था. कुछ घंटों बाद खटपट की आवाज़ के साथ उसकी नींद खुली थी. उसने देखा बस पूरी तरह से खाली थी. उसे लगा वो कोई सपना देख रही है, लेकिन अगली आवाज़ ने फिर उसे आकर्षित किया था. उसका ध्यान खिड़की से बाहर गया. बस की पूरी सवारी बस के नीचे थी. कोई रोड में ही बैठ गया था, तो कोई अपने दुपट्टे से बच्चे को हवा कर रहा था. कुछ लड़के रोड से नीचे खेत तक उतर गए थे. उसे समझ नहीं आया की हुआ क्या है. उसने नज़र मोबाइल में डाली. रात के डेढ़ बज रहे थे. अपना बैग हाथ में थामे वो बस से नीचे उतर आई. बस का कंडक्टर और ड्राइवर पिछले पहिए के पास खड़े थे.
“भइया क्या हुआ?” उसने एक बार फिर कंडक्टर से जाकर पूछा था.
“टायर पंचर हो गया है.” कंडक्टर ने जैक पर टिकी हुई बस के किनारे खड़े हुए बताया.
“टायर पंचर, लेकिन इतनी रात में अचानक कैसे?”
“वो क्या है की टायर को पता नहीं था की रात हो चुकी है.”
“भइया मै आप से ढंग से बात कर रही हूं और आप ऐसे जवाब दे रहे हैं.”
“तो और क्या कहूं, टायर के पंचर होने का कोई समय होता है क्या.”
“अरे, मेरा मतलब था आपके पास एक्स्ट्रा पहिया होगा न, उसे लगाइए, सुबह 9 बजे से मेरी लखनऊ यूनिवर्सिटी में परीक्षा है अगर मैं टाइम पर नहीं पहुंची, तो मेरा साल बर्बाद हो जाएगा.”
“एक्स्ट्रा पहिया भी पंचर है, लेकिन आप फिक्र मत करो, क्लीनर गया है टायर लेकर आता ही होगा, जल्द ही बस बन जाएगी.”
कंडक्टर का जवाब सुन आकांक्षा पलटकर वापस बस में जाने लगी. उसने देखा वो लड़का माइलस्टोन वाले काले-पीले पत्थर पर जो एक तरफ़ से उखड़ा हुआ था चढ़कर बैठा था. वो आकांक्षा की तरफ़ ही देख रहा था. उससे नज़रें मिलते ही आकांक्षा ने चेहरा दूसरी तरफ़ मुंह फेर लिया और अपनी सीट पर लौट आई थी. बीच-बीच में उसकी नज़र उस लड़के पर चली ही जाती. वो दीन-दुनिया से बेख़बर आराम से पत्थर पर बैठा था. क़रीबन 45 मिनट बाद बस बन गई और सफ़र एक बार फिर से शुरू हो गया था.
बस को चले अभी आधा घंटा भी नहीं बीता की बस एक बार फिर बीचे रास्ते रुक गई. कंडक्टर ने बताया की बस का इंजन गरम पड़ गया है और पानी डालना पड़ेगा।
एक बार फिर सब नीचे आ गए थे. आकांक्षा से इस बार ग़ुस्सा नहीं रोका गया.
“भइया सच-सच बताइए आपकी बस इस महीने लखनऊ पहुंच तो जाएगी न.” उसने जाकर कंडक्टर पर अपनी नाराज़गी जताई थी.
“मैडम, आप तो ऐसे कह रही हैं जैसे मुझे बहुत मज़ा आ रहा है ये सब करके.”
“आपका तो पता नहीं, लेकिन मुझे बहुत मज़ा आ रहा है ये सोचकर की इस जनम के मेरे पापों की सज़ा मुझे आपके बस में सफ़र करके मिली जा रही है. अब सारे पाप धूल जाएंगे. ये बताइए हम सात बजे लखनऊ पहुंच तो जाएंगे न.”
“हां, हां पहुंच जाएंगे. जाइए आप सोइए.” कंडक्टर ने ताना मारने के लहजे में जवाब दिया था.
किसी तरह बस फिर से चल पड़ी. रात के 3 बज चुके थे और अभी तक बस ने एक चौथाई सफ़र भी नहीं तय किया था.
एक बार फिर आकांक्षा की नींद लग गई थी इस आशा के साथ की काश अब और कोई परेशानी न हो उसके लखनऊ पहुंचने में.
वो गहरी नींद में थी जब किसी ने उसे थपथपा कर जगाया था. उसने आंखें खोली. वहीं लड़का आकांक्षा के सीट के ठीक बगल में खड़ा उसके कंधे को ज़ोर-ज़ोर से थपथपा रहा था.
“जल्दी नीचे आओ.” आकांक्षा के आंखें खोलते ही उसने कहा था.
आकांक्षा ने देखा उसने आकांक्षा का बैग भी अपने कंधे पर टांग रखा था.
“हुआ क्या और तुमने मेरा बैग क्यों लिया है?” उसने पूरे अधिकार से पूछा, लेकिन असलियत में वो थोड़ा डरी हुई थी.
“ये सब बाद में बताता हूं पहले नीचे आओ.” कहते हुए वो लड़का बस से बाहर जाने को चल पड़ा.
आकांक्षा जाना तो नहीं चाहती थी, लेकिन उसका बैग लड़के के पास था इस वजह से उसे नीचे जाना ही पड़ा. उसने देखा बस फिर से रुकी हुई थी और ज़्यादातर मुसाफ़िर बस के नीचे थे. सुबह भी होनी शुरू हो चुकी थी. आसमान में सूरज की लालिमा फैली हुई थी.
आकांक्षा बस से नीचे आई. वो लड़का एक ऑटो से सिर निकाले उसके आने के इंतज़ार में था. बाकी दो-तीन और भी ऑटो रिक्शा सवारी भरने में लगे हुए थे.
“अरे, यार जल्दी आओ न.” आकांक्षा को यहा-वहां देखता देखकर उस लड़के ने ज़ोर से पुकारा था. उसकी आवाज़ में विनती से ज़्यादा आदेश था.
आकांक्षा के ऑटो के क़रीब जाते ही उसने लगभग धकेलते हुए उसे अंदर बिठाया और ख़ुद उसके बगल में बैठ गया. दोनों के बैठते ही ऑटो चल पड़ा था.
“एक मिनट ये सब हो क्या रहा है और हम इस तरह बस छोड़कर जा कहां रहे हैं?”
“लखनऊ.” लड़के ने जवाब दिया.
“हां, लेकिन बस से क्यों नहीं. मेरे पास बस का लखनऊ तक का टिकट है.”
“अरे यार, तुम कुछ देर चुप रहोगी. तुम्हें लखनऊ यूनिवर्सिटी ही जाना है न, तो मैं तुमको वहां पहुंचा दूंगा बस कुछ देर चुप बैठो.” लड़के ने एक बार फिर आदेशात्मक लहजे में कहा था.
उसकी आवाज़ सुनकर आकांक्षा चुप हो गई. उसने नज़र मोबाइल में डाली. सुबह के सात बज चुके थे.
“ओह गॉड, सात बज गए मेरा एग़्जाम, मेरा एग़्जाम है नौ बजे से.”
“चलो, तुम्हे याद तो आ गया एग़्जाम का, मुझे तो लगा था तुम नींद पूरी करके ही एग़्जाम देने जाओगी.” लड़के ने तंज़ कसते हुए जवाब दिया और फिर कहा.
“तुम्हें पता है हम अभी कहां हैं, लखनऊ से 40 किलोमीटर दूर. बस पिछले आधे घंटे से बंद पड़ी है और अब शुरू भी नहीं होने वाली जब तक तुम सोकर जागती न एग़्जाम का रिज़ल्ट भी आ गया होता, इसलिए मैंने तुम्हे इस तरीक़े से जगाया और बिना पूछे बैग लेकर आ गया.”
“अच्छा वैसे हम पहुंच तो जाएंगे न.”
“उम्मीद तो है, बस तुम कुछ देर चुप रहो तो शायद जल्दी हो जाए.”
लड़के ने सामने रोड पर नज़रें गड़ाए हुए कहा था. वो लगातार ऑटो वाले को तेज़ चलाने कह रहा था और टाइम पर ध्यान बनाए हुए था.
नौ बजने में सिर्फ़ पांच मिनट बाकी थे जब आकांक्षा यूनिवर्सिटी पहुंची. उसकी धड़कनें डर से बढ़ी हुई थी.
“अब जाओ जल्दी.” लड़के ने यूनिवर्सिटी के बाहर पहुंचते ही कहा.
“लेकिन मेरा बैग.” आकांक्षा ने चिंतित होते हुए पूछा.
“वो सब भूल जाओ और ये एडमिट कार्ड लेकर भागो, बस 2 मिनट बचे हैं.” लड़के के इतना कहते ही आकांक्षा एग़्जाम हॉल की तरफ़ भाग पड़ी थी.
एग़्जाम बहुत अच्छा गया था. आकांक्षा की इतने दिनों की मेहनत बेकार नहीं गई थी और उसे पूरी उम्मीद थी की उसका सिलेक्शन हो जाएगा. एग़्जाम छूटते ही भीड़ के साथ वो भी बाहर आई थी. जल्द ही भीड़ छट गई, लेकिन आकांक्षा गेट के पास ही खोई हुई सी खड़ी थी. उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वो किधर जाए. उसने एग़्जाम छूटने के डर से अपना सामान उस अनजान लड़के को दे दिया था, लेकिन अब वो कहीं नहीं था. उसका नाम भी तो नहीं पता था आकांक्षा को. किसी से पूछे भी तो क्या पूछे. सिवाय एक एडमिट कार्ड के कुछ नहीं बचा था उसके पास. उसका मोबाइल, पैसे, स्कार्फ, पानी की बोतल, सब तो उस बैग में था और बैग उस लड़के के पास. उसे यक़ीन हो गया की मदद करने के बहाने वो लड़का उसका सब सामान लेकर जा चुका है. उसे तो पहले ही समझ जाना चाहिए था, जब उसने बिना कहे उसकी मदद की थी और फिर बहाने से उसका सारा सामान ले लिया था.
उसे समझ नहीं आ रहा था की वो घर कैसे जाएगी. अगर पापा को कॉल करती है, तो इतनी दूर से पापा भी क्या करेंगे. फिर सोचा एक बार अपने नंबर पे कॉल करके चेक करेगी उसे उम्मीद थी की नंबर बंद होगा, लेकिन कम से कम एक बार वो चेक तो कर ही सकती थी. उसने सोचा की वो किसी दुकान वाले से अपनी परेशानी कहेगी. हो सकता है कोई उसे एक कॉल कर लेने दे. सोचते ही उसने एग़्जाम सेंटर के सामने एक छोटे कैफे नुमा दुकान की तरफ़ चलना शुरू कर दिया.
अभी वो दुकान वाले से अपनी परेशानी कहने ही वाली थी कि देखा वो लड़का दुकान के अंदर आराम से बैठा चाय में बिस्किट डुबा-डुबा के खा रहा था. आकांक्षा को समझ नहीं आया कि वो इस बात के लिए ग़ुस्सा करे या ख़ुश हो जाए.
अपना बैग उसकी बगल की कुर्सी पर रखा देख वो सब भूल गई और जल्दी से उसके क़रीब पहुंच गई.
“आ गई तुम. बैठो, चाय पियोगी और कैसा था पेपर?” आकांक्षा को देखते ही उस लड़के ने पूछा था.
“अच्छा था.” कहकर आकांक्षा नज़दीक की कुर्सी पर बैठ गई.
“चाय, चाय पियोगी, छोटू एक चाय दीदी को दे.” बिना आकांक्षा का जवाब सुने उसने दुकान वाले से चाय के लिए कह दिया था.
आकांक्षा ने अपना बैग खोलकर देखना शुरू किया. उसका मोबाइल और पैसे बैग में नहीं थे और इसके पहले कि वो इनके बारे में उससे पूछे लड़के ने अपने पैंट की बैक पॉकेट से उसका मोबाइल और पैसे निकाल सामने टेबल पर रख दिए.
“तुम्हारा मोबाइल और पैसे. गिन लो पूरे 3150 हैं. हां, वो पांच का एक सिक्का कम है, मेरे पास खुल्ला नहीं था, तो मैंने ख़र्च कर दिया.”
“ओके, लेकिन बैग में तो तीन हज़ार ही थे, फिर ये एक्स्ट्रा 150 रुपए कहां से आए?” आकांक्षा ने अपना सामान उठाते हुए पूछा.
“अरे, बस बिगड़ गई थी न तो मैंने कंडक्टर से अपने टिकट के 150 और तुम्हारे टिकट के 150 रुपए ले लिए थे. जब उसने हमें मंज़िल तक पहुंचाया ही नहीं, तो किराया किस बात का.” लड़के ने बताया. अब तक आकांक्षा की चाय आ गई थी.
“थैंक्यू, लेकिन अब तो बता दो की तुम्हें कैसे पता चला कि मैं एग़्जाम के लिए यहां आ रही हूं और फिर तुमने मेरी मदद क्यों की?”
“जब तुम कंडक्टर से कह रही थी अपने एग़्जाम के बारे में तो मैं नज़दीक ही बैठा सब सुन रहा था. बस, वहीं से पता चला और रही बात मदद की, तो मुझे भी यहीं नज़दीक कुछ काम था. सुबह बस ख़राब हुई, तो मैं समझ गया कि अब तुम पहुंच नहीं पाओगी और फिर जब रिक्शा वाले बस ख़राब देखकर सवारी लेने आ गए, तो मैंने एक से हम दोनों को यूनिवर्सिटी पहुंचाने की बात कर ली थी और फिर तुम्हे जगाया.”
“ओह, वैसे काम हो गया तुम्हारा या फिर मेरी वजह से अब तक यहीं बैठे हो.”
“नहीं काम तो हो गया, तुम्हें छोड़ने के बाद ही चला गया था. अभी ही तो वापस आया हूं और तुम्हारा बैग यहीं छोड़ गया था, इसलिए पैसे और मोबाइल निकाल लिया था कि कहीं कोई चोरी न कर ले. वैसे अब वापस चले या फिर रुकना है तुम्हें.”
“नहीं रुकना तो नहीं है वापस ही जाना है, बस तुम दस मिनट रुकोगे मैं वॉशरूम होकर आती हूं कल रात के बाद जा नहीं पाई.”
“हां ज़रूर, मैं यहीं हूं तुम फ्रेश हो लो फिर चलते हैं.”
आकांक्षा जल्द ही फ्रेश होकर वापस आ गई थी. दोनों ने बस स्टैंड आकर नज़दीक एक होटल में खाना खाया और फिर 2:30 के क़रीब भदोही का टिकट लेकर बस में आ गए थे.
“आई एम सॉरी मैंने अब तक तुम्हारा नाम भी नहीं पूछा.” बस में बैठने के कुछ देर बाद आकांक्षा ने कहा था.
“कोई बात नहीं, वैसे मेरा नाम अभिसार है.”
“नाइस नेम. मेरा नाम आकांक्षा है. वैसे अभिसार तुम भदोही के ही हो?”
“नहीं, मिर्ज़ापुर से हूं. अभी कुछ दिन पहले ही ट्रांसपोर्ट का काम शुरू किया है, तो उसी के लिए भदोही आना पड़ा था और फिर अचानक से लखनऊ का काम निकल आया, तो सीधे लखनऊ आ गया था. वैसे अब तो काम की वजह से भदोही आना-जाना लगा ही रहेगा और फिर मिर्ज़ापुर और भदोही की दूरी ही कितनी है.” अभिसार ने बताया और पूछा की तुम भदोही में कहां रहती हो?
आकांक्षा ने अभिसार को अपने घर के बारे में, अपनी पढ़ाई के बारे में, अपने पापा और भाई के बिज़नेस के बारे में सब बताया. अभिसार ने बताया की उसने भी अभी ही पढ़ाई ख़त्म की है और अब ख़ुद का काम शुरू किया है.
“वैसे एक और बात के लिए सॉरी, जब मैंने तुम्हे लेडीज़ टॉयलेट में जाते देखा था, तो मैंने तुम्हे बहुत बुरा टाइप का लड़का समझा था. आई एम रियली सॉरी और मुझे सच में लगा नहीं था कि ऐसा लड़का किसी लड़की की मदद करेगा.”
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“अरे, कोई बात नहीं, वैसे भी तुम्हारी ग़लती नहीं है. तुम शायद ऐसे ढाबों पर गई नहीं हो, इसलिए तुम्हें वो देखकर अटपटा लगा. लेकिन ढाबे पर सिर्फ़ नाम के लेडीज़-जेंट्स होते हैं. असल में कोई कहीं भी चला जाता है. हम तो ट्रांसपोर्ट वाले है सब चीज़ों के आदी हो गए हैं और रही बात मदद की तो मेरी माँं कहती हैं कि जो लड़के, लड़कियों की मदद करते हैं, उनकी इज्ज़त करते हैं, दुनिया उन्हें इज्ज़त देती है, तो वैसे देखा जाए तो मैंने ये सब अपने लिए ही किया है.”
अभिसार की बातें सुनकर आकांक्षा बहुत इम्प्रेस हुई थी. अभिसार न सिर्फ़ चेहरे से, बल्कि दिल से एक सुंदर पुरुष था. उसने वाक़ई में आज आकांक्षा की मदद करके इज्ज़त कमा ली थी, न सिर्फ़ आकांक्षा की नज़रों में, बल्कि उन सब की नज़रों में जिनसे आज के बाद आकांक्षा मिलेगी और उनसे अभिसार के बारे में बताएगी.
शाम सात बजे तक भदोही नज़दीक आने लगा था जब अभिसार ने पूछा की घर कैसे जाओगी. आकांक्षा ने बताया की उसके भाई की बस स्टैंड में दुकान है उसके साथ ही चली जाएगी.
आठ बजे बस भदोही में थी. आकांक्षा ने अभिसार को बाय कहा और नीचे आ गई. उसके नीचे आते ही बस आगे बढ़ गई थी. आकांक्षा ने पलट कर देखा. अभिसार बस की खिड़की से उसे ही देख रहा था.
घर आते ही आकांक्षा को अफ़सोस हो रहा था कि उसने अभिसार का नंबर तक नहीं लिया. क्या पता उससे दोबारा मिलने का मौक़ा उसे मिलेगा या नहीं.
अगले दिन भी उसे अभिसार की याद आती रही थी. शाम उसने बैग खाली करना शुरू किया, तो एक पेपर उसके बैग के ऊपरी पॉकेट से निकल कर बिस्तर में गिर गया था. ये पेपर उसका नहीं था. लिखावट अनजान थी. उसने लेटर पढ़ना शुरू किया.
हेलो मिस भदोही,
जब मैं ये लेटर लिख रहा हूं, तो मुझे तुम्हारा नाम नहीं पता है, इसलिए मिस भदोही लिखना पड़ा, वैसे मेरा नाम अभिसार है. मैं मिर्ज़ापुर से हूं और हाल ही में अपनी पढ़ाई पूरी करके नया काम शुरू किया है. तुम्हे पहली बार भदोही बस स्टैंड में देखा था और तुम मुझे पहली नज़र में ही पसंद आ गई थी. सोचा नहीं था कि तुम्हारे साथ वक़्त बिताने का मौक़ा मिलेगा, तुम्हारे क़रीब आने का मौक़ मिलेगा, लेकिन जब तुम्हे परेशान देखा तो ख़ुद को रोक नहीं पाया. पता नहीं हम साथ में वापस जाएंगे या नहीं या फिर तुम्हारा नाम जानने का मौक़ मुझे मिलेगा या नहीं, इसलिए ये लेटर लिख रहा हूं.
वैसे बता दूं की तुम्हारे मोबाइल का लॉक गेस करना बहुत आसान था और अगर चाहता तो तुम्हारा नंबर ले सकता था, लेकिन मैंने ऐसा किया नहीं है, बल्कि अपना नंबर तुम्हारे मोबाइल में अभिसार नाम से सेव कर दिया है और तुम्हारे वापस आने का यहीं बाहर कैफे में इंतज़ार कर रहा हूं. अगर मेरी बातें और मैं तुम्हे ठीक ठाक लगे हों, तो कॉल करना.
तुम्हारे फोन का इंतज़ार रहेगा मिस भदोही.
अभिसार
उस लेटर को पढ़ते ही आकांक्षा ख़ुशी से झूम उठी थी और कुछ देर बाद आकांक्षा का नंबर अभिसार के मोबाइल में दिख रहा था.
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