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पार्टनर या कंप्लीट पैकेज, क्या चाहते हैं आप? (partner or complete package, what you want?)

मॉडर्न और ज़रूरत से ज़्यादा प्रैक्टिकल आज की युवा पीढ़ी रिश्ते-नातों में भी अपनी सहूलियत ढूंढ़ रही है. पैकेज की तरह ही पार्टनर से भी उनकी उम्मीदें दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं और ज़रूरत से ज़्यादा उम्मीदों का यही बोझ उनके रिश्ते को खोखला कर रहा है. युवाओं की इस चाह ने कितनी बदली है पति-पत्नी के रिश्तों की परिभाषा? पेश है ख़ास रिपोर्ट.

 

सफल-सुंदर-संस्कारी
ऐश्‍वर्या जैसी ख़ूबसूरत, नूयी/चंदा कोचर जैसी सफल, पार्वती जैसी सर्वगुण संपन्न बहू और सीता जैसी सुशील पत्नी… ये है आधुनिक ज़माने के पुरुषों की पत्नी से उम्मीदें. उनकी सोच में विरोधाभास साफ़ नज़र आता है. एक ओर तो उन्हें ज़माने के साथ क़दम मिलाकर चलनेवाली स्मार्ट और सक्सेसफुल वाइफ चाहिए, तो दूसरी ओर उनसे ये उम्मीद भी करते हैं कि वो घर की सारी ज़िम्मेदारी उठाने के साथ ही उनके माता-पिता की सेवा भी करे, मगर वो कभी ये नहीं सोचते कि दोहरी ज़िम्मेदारियों के बोझ तले उनकी पत्नी किस क़दर दबती चली जा रही है. उस पर यदि पत्नी ने कभी घर की ज़िम्मेदारी निभाने से इनकार किया या पति से मदद मांगी या फिर ख़ुद के लिए व़क्त न निकाल पाने की शिकायत की, तो उसे तरह-तरह के ताने सुनने पड़ते हैं. 30 वर्षीया शिवानी कहती हैं, “मेरी शादी ज्वाइंट फैमिली में हुई है. शुरू-शुरू में लगा कि मैं वर्किंग हूं, तो ज्वाइंट फैमिली मेरे लिए अच्छी है, मगर धीरे-धीरे मेरी ये सोच ग़लत साबित होने लगी. ऑफिस में भले ही कितनी भी देर हो जाए, खाना बनाने की ज़िम्मेदारी मेरी ही होती थी. कई बार इतनी थक जाती कि खड़े होने की हिम्मत भी नहीं होती थी, मगर कहूं तो किससे? पति को हमेशा वर्किंग वाइफ तो चाहिए थी, मगर अपनी शर्तों पर. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो हमारे समाज में वर्किंग बहू कभी भी वर्किंग बेटे की बराबरी नहीं कर सकती, भले ही उसका पद और वेतन ज़्यादा ही क्यों न हो.”


कितनी बदली है पुरुषों की मानसिकता?
ये सच है कि आज की महिलाओं को अपने मन-मुताबिक़ नौकरी करने की आज़ादी मिली है, मगर इस आज़ादी की अपनी शर्तें हैं, यानी तुम नौकरी, मगर ये मत भूलो कि घर आकर खाना बनाना अब भी तुम्हारी ही ज़िम्मेदारी है, सारे रिश्ते-नाते निभाना तुम्हारा ही फ़र्ज़ है. पेशे से मैकेनेकिल इंजीनियर राहुल कहते हैं, “आज के महंगाई के दौर में अच्छी लाइफस्टाइल मेंटेन करने के लिए पति-पत्नी दोनों का वर्किंग होना ज़रूरी है और मैं भी वर्किंग वाइफ ही चाहता हूं, मगर मुझे मिनी स्कर्ट वाली बीवी नहीं चाहिए. मेरे माता-पिता बुज़ुर्ग हैं, तो मैं चाहूंगा कि मेरी होने वाली पत्नी उनका भी ख़्याल रखे और घर के काम की भी ज़िम्मेदारी संभाले.”
ये सोच अकेले राहुल की नहीं है, आजकल के ज़्यादातर मध्यम वर्गीय परिवार के लड़के ऐसा ही सोचते हैं. हमारे पुरुष प्रधान समाज ने औरतों को घर से बाहर निकलने की आज़ादी तो दी, मगर फ़र्ज़ और ज़िम्मेदारियों के नाम पर इस क़दर जकड़ दिया है कि कभी-कभी इस सुपरवुमन वाले अवतार में महिलाओं को कोफ़्त होने लगती है.

दोहरी मानसिकता
अधिकांश पुरुष पत्नी को लेकर दोहरी मानसिकता अपनाते हैं, जैसे- पत्नी यदि घर पर है तो सलीके से कपड़े पहने, माता-पिता और रिश्तेदारों के सामने ज़्यादा मॉडर्न न बने यानी कुल मिलाकर घर के माहौल के मुताबिक़ ख़ुद को ढाल ले, मगर पत्नी यदि उनके दोस्तों से मिले या उनके साथ ऑफिस की किसी पार्टी में जाए तो उसे आधुनिक ज़माने के मुताबिक़ न स़िर्फ कपड़े पहनने चाहिए, बल्कि चाल-ढाल, बोली सब कुछ उनके मुताबिक़ होना चाहिए. उसे नए ट्रेंड्स की जानकारी होनी चाहिए ताकि दोस्तों के सामने उसे शर्मिंदा न होना पड़े. पत्नी की अपनी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं होती, पति बोले तो मॉडल बन जाओ और पति बोले तो सति सावित्री. पेशे से बैंकर सुनील कहते हैं, “मेरी पत्नी वर्किंग होने के साथ ही घर की ज़िम्मेदारियां भी बख़ूबी निभाती है, मगर मैं उसे कभी अपने दोस्तों के बीच या हमारी पार्टी में नहीं ले जाता, क्योंकि वो बिल्कुल भी मॉडर्न नहीं है. यदि उसे दोस्तों के बीच ले जाऊंगा तो बाद में सब मेरा मज़ाक उड़ाएंगे कि बड़ा मॉडर्न बनता था और बीवी कैसी है?” मॉडर्निटी का चोला ओढ़े ज़्यादातर पुरुषों की यही समस्या है कि पत्नी तो उन्हें घरेलू चाहिए, मगर कभी-कभार पार्टी-फंक्शन में जाते समय वो अपनी तथाकथित मॉडर्निटी को पत्नी पर थोपने की कोशिश भी करते रहते हैं.

परफेक्शन की चाह बढ़ा रही है तनाव
मैरिज काउंसलर डॉक्टर राजीव आनंद कहते हैं, “व़क्त के साथ लोगों की ज़रूरतें, चाहतें और सामाजिक अपेक्षाएं बदली हैं. एक ओर तो हम कमाऊ पत्नी चाहते हैं और दूसरी तरफ़ हम उससे ये भी उम्मीद करते हैं कि वो एक अच्छी बहू व पत्नी के भी सारे फ़र्ज़ निभाए. इसके चलते निश्‍चय ही महिलाओं पर शारीरिक व मानसिक दबाव बढ़ा है, जिससे उनका दिमाग़ स्थिर नहीं रह पाता, वो डिस्टर्ब हो जाती हैं, अपनी ज़िम्मेदारियां ठीक से नहीं निभा पातीं. धीरे-धीरे परिवार के प्रति उनका प्यार व परवाह भी कम होने लगती है और उनके व्यवहार में होने वाले बदलाव की वजह जाने बिना ही परिवार और समाज ऐसी महिलाओं को ग़ैर ज़िम्मेदार और लापरवाह करार कर दे देता है. पुरुष आज भी औरतों को सेकेंड सेक्स का ही दर्जा देते हैं.”


सामाजिक/पारिवारिक ढांचा
हमारा सामाजिक ढांचा ही कुछ ऐसा रहा है जहां लड़कियों को हमेशा लड़कों से कमतर आंका गया है, हालांकि धीरे-धीरे ही सही, हालात थोड़े बदल रहे हैं, मगर आज भी ऐसे लोगों की संख्या ही ज़्यादा है जो लड़की (बहू) से बहुत ज़्यादा उम्मीद रखते हैं, मगर कभी उस बहू के बारे में नहीं सोचते जो उनके बेटे की ही तरह 9-10 घंटे ऑफिस में काम करती है और घर आकर भी किचन में मुस्तैदी से अपना ज़िम्मा संभाल लेती है. इतना करते हुए भी हमेशा उसे ये एहसास दिलाया जाता है कि अपनी प्रोफेशनल लाइफ के चक्कर में वो अच्छी पत्नी, बहू और मां नहीं बन पाई है. हमारे यहां शुरू से ही लड़कों के काम करने का रिवाज़ नहीं है. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो पत्नी के रहते यदि पति किचन में चला गया, एक ग्लास पानी ले लिया या फिर ख़ुद खाना सर्व कर लिया तो जैसे भूचाल आ जाता है. रूमाल से लेकर मोजे तक हर बात के लिए पत्नी को आवाज़ देने की आदत से अब भी ये बाज़ नहीं आए हैं. विदेशों में जहां छोटी उम्र से ही बच्चों को (लड़का-लड़की में यहां फर्क़ नहीं होता) आत्मनिर्भर बनना सिखाया जाता है, वहीं हमारे देश में लड़कों के लिए आत्मनिर्भरता का मतलब बस, नौकरी से है, घर के काम से नहीं.

कैसे बदलेंगे हालात?
आपसी समझ और परिपक्वता से ही बदलाव संभव है… हिंदी दैनिक से जुड़ी गीता ध्यानी कहती हैं, “हमारी परवरिश ही इस तरह से की गई है कि लड़कियों को लगता है कि घर का काम उन्हीं की ज़िम्मेदारी है और पति यदि पानी लाकर दे या फिर खाना बनाने लगे तो हमें ख़ुद ही अजीब लगने लगता है या फिर दूसरे देखकर ये कहने लगते हैं ये क्या लड़कियों वाले काम कर रहे हो. इन हालात को चाहकर भी बदल पाना अकेले लड़कियों के लिए संभव नहीं है.” 32 वर्षीया सीमा की भी कुछ ऐसी ही राय है. सीमा कहती हैं, “जहां लड़कियां ये कहने लगें कि मैं भी तो आपके बराबर कमाती हूं, मैं भी थक जाती हूं तो मैं ही अकेले घर का सारा काम क्यूं करूं? तो उन्हें सीधा जवाब मिलता है- ङ्गतो नौकरी छोड़ दोफ ऐसे में उनके पास हालात से समझौता करने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता. हालात तभी बदल सकते हैं जब लड़कों में इतनी समझ और परिपक्वता आ जाए कि वो अपनी पत्नी को समझ सकें और ख़ुद उनकी मदद की पहल करें.”


लड़कियों को भी चाहिए हैंडसम-हाई सैलरी-हाइली एज्युकेटेड पति
गांव व कस्बों की लड़कियों के हालात भले ही बहुत न बदले हों, मगर शहरी शिक्षित लड़कियों के एक तबके की सोच और हालात में थोड़ा बदलाव आया है. पुरुषों की तरह अब उनकी भी अपने हमसफर से उम्मीदें काफ़ी बढ़ गई हैं. उन्हें पति हैंडसम, पढ़ा-लिखा और ज़्यादा कमाने वाला चाहिए ताकि वो अपने सारे शौक़ पूरे कर सकें. इस बारे में फ्रीलांस राइटर सारंग उपाध्याय कहते हैं, “बड़े शहरों की शिक्षित लड़कियां गांव व कस्बों की लड़कियों की तुलना में जीवन की वास्तविकता से ज़्यादा बेहतर तरी़के से वाकीफ़ होती हैं. उन्हें पता है कि आज के दौर में अच्छी ज़िंदगी जीने के लिए पैसा बहुत ज़रूरी है, इसलिए वो चाहती हैं कि उनका पार्टनर आर्थिक रूप से मज़बूत हो, क्योंकि अब महिलाओं की इच्छाएं, महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ने लगी हैं.” दरअसल, आज की आत्मनिर्भर महिलाएं जीवनसाथी को लेकर किसी तरह का समझौता नहीं चाहतीं. उन्हें अच्छी लाइफस्टाइल चाहिए इसलिए वो ऐसा पार्टनर चाहती हैं, जो उनकी उम्मीदों पर खरा उतरे. हां, कई बार उनकी ज़रूरत से ़ज़्यादा उम्मीदें मुसीबत का कारण भी बन जाती हैं.

बिज़नेस डील बनता पति-पत्नी का रिश्ता
“मैंने ये किया, तुमने मेरे लिए क्या किया”, यदि पति-पत्नी के रिश्ते में कुछ इस तरह एहसान गिनाए जाने लगें, तो समझ लीजिए कि ये शादी नहीं, बल्कि बिज़नेस डील है और आजकल की अधिकांश युवा पीढ़ी का हाल कुछ ऐसा ही है. प्यार देने का नाम है, आज की जनरेशन इस बात से इत्तेफ़ाक नहीं रखती, बल्कि वो ये सोचती है कि यदि उन्होंने पार्टनर के लिए कुछ किया है, तो पार्टनर का भी फ़र्ज़ बनता है कि वो उनके लिए कुछ करे. राजीव आनंद कहते हैं, “समर्पण और विश्‍वास जो मज़बूत और लंबे रिश्ते की बुनियाद है, इसे लोग भूलते जा रहे हैं. पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे से ये उम्मीद करते हैं कि सामने वाला उनकी केयर करे, उनकी भावनाओं को समझे और सारी चीज़ें उनकी सुविधानुसार हो. आजकल हर कोई इतना स्वार्थी हो गया है कि मैं से ऊपर कुछ सोच ही नहीं पाता. आज के युवा शादी के बाद से ही पति/पत्नी की जासूसी करने लगते हैं, हर बात/काम पर उंगली उठाने लगते हैं. इतना ही नहीं, कई बार पैरेंट्स ही अपने बेटा/बेटी से कहते हैं कि वो पार्टनर की हरकतों पर नज़र रखे, क्योंकि आजकल ज़माना बड़ा ख़राब है, मगर वो ये नहीं समझते कि विश्‍वास के बिना शादी का रिश्ता खोखला होता है और खोखले रिश्तों की उम्र बहुत छोटी होती है.”

ज़रूरी है सामंजस्य-संतुलन-संवाद
दो अलग परिवार और विचारों के लोग जब शादी के बंधन में बंधकर एक होते हैं, तो इस रिश्ते को निभाने के लिए दोनों को ख़ुद को थोड़ा बदलना होता है. नई परिस्थितयों से सामंजस्य बिठाना पड़ता है. तुरंत किसी भी निर्णय पर पहुंचने से पहले एक-दूसरे को अच्छी तरह समझना बेहद ज़रूरी है और इसके लिए पति-पत्नी दोनों का आपस में बात करना ज़रूरी है. मैरिज काउंसलर मीता दोषी कहती हैं, “शादी के रिश्ते में बैलेंस बनाए रखने के लिए कपल्स के बीच अंडरस्टैंडिंग और कम्युनिकेशन होना बेहद ज़रूरी है. दोनों को ईगो से दूर रहना चाहिए, मगर ऐसा होता नहीं है. किसी बात पर नाराज़ होने पर कपल्स आपस में बात करना ही बंद कर देते हैं. अब जब बात ही नहीं करेंगे तो समस्या का समाधान कैसे निकलेगा.” ये सच है कि जीवनसाथी से नाराज़ होने पर अक्सर कपल्स आपस में बात करना बंद कर देते हैं जिससे उनके बीच खामोशी की दीवार खड़ी हो जाती है और ये दीवार उनके बीच दूरियां ले आती है.

शहरों में शिक्षित परिवारों में महिलाओं की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है, ख़ासकर न्यूक्लियर फैमिली में पति घर के काम में पत्नी की मदद भी करते हैं. मगर कुछ मामलों में जहां लड़कियों की एक्सपेक्टेशन बहुत हाई होती है, तो ऐसी शादियां ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकतीं.

– मीता दोषी,  मैरिज काउंसलर

– कंचन सिंह

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