बड़ी मुश्किल है, मेरी लाइफ की प्रॉब्लम ही समझ की है. बचपन से लेकर आज तक जिसे देखो वह मुझे समझाने पर तुला हुआ है. मुश्किल यह नहीं है कि जो मुझे समझा रहा है वह मेरा दुश्मन नहीं है. यक़ीनन वह मेरा शुभचिंतक है, चाहे मां-पिता हों, भाई-बहन या टीचर, यहां तक कि दोस्त-यार, कोई ग़लत नहीं है. सब सही बात समझाते हैं, मगर मुश्किल यह है कि मैं कुछ समझता ही नहीं. लोग समझा समझा कर हार गए, लेकिन मेरी समझ में किसी की बात नहीं आती. मुझे हमेशा लगता है कि लोग मेरी बात नहीं समझते.
अजीब मुश्किल है, मैं उन्हें कहता हूं, “देखिए आप जो कह रहे हैं वह मैं समझ रहा हूं, मगर मेरी एक रिक्वेस्ट मान लीजिए. देखिए मैंने आपकी बात समझ ली अब आप मेरी बात समझने की कोशिश करिए.”
जैसे ही मैं अपनी बात समझाने की कोशिश करता हूं, उन्हें मेरी बात नागवार गुज़रती है. मैं लोगों से बहुत प्यार से कहता हूं, “मैं आपकी बात समझ रहा हूं अब आप मेरी बात भी तो समझ लीजिए.”
आप यह समझिए कि इस मुद्दे पर बस लड़ाई नहीं होती बाकी सब हो जाता है. बात यह है कि मुझे हमेशा लगता है कि सामने वाला मेरी बात नहीं समझ रहा है. मैं तो उसकी बात समझ रहा हूं. यह मामला ऑफिस में बड़ा मारक हो जाता है. बॉस को लगता है कि इसे मैंने समझा दिया अब यह चुपचाप निकल लेगा, लेकिन मैं उनसे भी यही कहता हूं, “सर मैंने तो आपकी बात समझ ली, अब आप मेरी बात समझिए.”
वे गरम हो जाते हैं, “भाई एक बार जब मेरी बात तुम समझ गए, तो फिर मुझे समझाने के लिए क्या बचा.” तब मैं कहता हूं, “देखिए सर, मुझे यह लग रहा है कि आप मेरी बात नहीं समझ रहे हैं, मैं तो आप की बात समझ रहा हूं.”
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आप यह समझ लीजिए कि हम लोग पढ़े-लिखे लोग हैं, वरना मेरी बात पर तो मारपीट की नौबत आ जाए. बॉस परेशान हो जाता है, “यार यह अजीब आदमी है. मेरी बात समझ कर भी नहीं समझ रहा है.”
अब मैं उन्हें कैसे बताऊं कि यह मेरी प्रॉब्लम है कि मैं अपनी बात समझाता हूं, लेकिन मेरी बात कोई नहीं समझता.”
मसलन- बॉस के पास कभी भी आप छुट्टी की बात करने जाइए, तो वह मना कर देंगे. मतलब आपके बिना दुनिया रुक जाएगी. ऐसे में मैं बॉस से कहता हूं, “सर, आप वो पीरियड बता दीजीए, जब मेरे छुट्टी लेने से आपको दिक़्क़त नहीं होगी. आई मीन मेरे न होने पर भी जब आपकी और ऑफिस की ज़िंदगी में सब ठीक चलेगा.”
तब वे पूछते हैं, “ये सवाल क्यों कर रहे हो. मैं कोई ज्योतिषी थोड़ी हूं?”
बस यहीं मुझे लगता है मैं तो उनकी बात समझ गया हूं, पर वह मेरी बात नहीं समझ रहे हैं. मैं जवाब देता हूं, “कुछ नहीं सर, मैं उस दौरान छुट्टी लेना चाहता हूं, जब मेरे यहां न रहने पर पहाड़ न टूटे.”
आप समझ सकते हैं यह जवाब किसी भी ऑफिस के लिए कितना गंभीर मुद्दा है.
फिर जब कभी इमरजेंसी में छुट्टी मांगों और वो मना करें, तो मैं उनसे कहता हूं, “सर आपके पैरेंट्स हैं. बच्चे हैं?”
अब आप बॉस से ऐसे सवाल करेंगे, तो उनका मूड तो ख़राब होगा ही. वे पूछते हैं, “ये भी कोई बात है. ऐसे सवाल का क्या मतलब है?”
मैं कहता हूं, “कुछ नहीं सर, बस मैं तो यह कहना चाह रहा था कि उन्हें लाइफ में कोई दिक़्क़त न आए, वे कभी बीमार न पड़ें.”
वे कहते हैं, “ऐसा कैसे हो सकता है और फिर इस बात का यहां क्या मतलब है?”
तब मैं कहता हूं, “कुछ नहीं सर, मुझे लगता है आपके परिवार में मां-पिता के ध्यान रखने का कल्चर नहीं होगा. आप तो किसी भी हाल में छुट्टी नहीं लेंगे.”
अब फिर मुश्किल हो जाती है. वे मेरी बात न समझ कर नाराज़ हो जाते हैं, “यार इसे यहां से हटाओ. न जाने ये सुबह-सुबह कौन सी बकवास कर रहा है.”
मैं कहता हूं, “देखिए सर, मैं आपकी बात समझ गया हूं. आप मुझे छुट्टी नहीं दे सकते. मैं तो बस आपको आपकी कही हुई बात के सहारे ही अपनी बात समझाने की कोशिश कर रहा था.”
इतना सुनते ही उन्हें बहुत बड़ा झटका लगता है. वे तुरंत कहते हैं, “तुम्हें कोई प्रॉब्लम है क्या? बहुत ज़रूरी है तो ऐसा कहो. क्या दिक़्क़त है?.. कौन बीमार है?.. किस लिए छुट्टी चाहिए…” वे मुझ से सहानुभूति दिखाते हुए कहते हैं.
तब मैं कहता हूं, “नहीं सर, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं तो घूमने के लिए छुट्टी मांग रहा हूं.”
इतना सुनते ही उनका दिमाग़ फिर ख़राब हो जाता है्, “क्या बकवास कर रहे हो. यहां इतना काम पड़ा है. तुम्हें घूमने के लिए छुट्टी चाहिए. अभी तो तुम मेरे पैरेंट्स और बच्चों का उदाहरण दे रहे थे. अब कह रहे हो घूमने के लिए छुट्टी चाहिए, ऐसा कहीं होता है क्या?”
इतना सुनते ही मैं तुरंत कहता हूं, “देखिए सर, मैं आपकी बात समझ गया हूं. आप मेरी बात नहीं समझ रहे हैं.“
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वे कहते हैं, “अब क्या हुआ?”
और मैं कहता हूं, “कुछ नहीं सर, मैं झूठ नहीं बोलता. सच में मुझे घूमने के लिए छुट्टी चाहिए और आपके पैरेंट्स का एक्ज़ामपल तो बस आपको समझाने के लिए दिया था.”
उन्हें फिर ग़ुस्सा आता है, “अब तुम मुझे समझाओगे?”
“नहीं सर ऐसा कुछ नहीं है. मैं तो सिर्फ़ यह कह रहा हूं कि मैं आपकी बात समझ गया हूं. आप मेरी बात नहीं समझ रहे हैं. मैं अभी छुट्टी के मुद्दे पर बात नहीं कर रहा हूं. हमारा विषय तो समझने-समझाने का है.
सर देखिए, मैं अपनी छुट्टी ले रहा हूं. आपकी छुट्टी थोड़ी ले रहा हूं. अभी ऐसा कोई रूल नहीं आया कि आप अपनी छुट्टी मुझे ट्रांसफ़र कर सकें. मुझे आपकी नहीं अपनी ही छुट्टी चाहिए.”
वे फिर गरम हो जाते हैं, “तुम देखो, पिछले साल मैंने अपनी पांच छुट्टी सरेंडर कर दी. उससे पहले भी मैं कभी पूरी छुट्टी नहीं लेता. हर साल मेरी कुछ छुट्टी बच जाती है.”
मैं फिर कहता हूं, “सर, मैं आपसे प्रेरणा लेने की बात करने नहीं आया हूं. छुट्टी की बात करने आया हूं. आप मेरी बात नहीं समझ रहे हैं.”
अब आप ख़ुद सोच कर बताइए, कौन ग़लत है.
बॉस थक जाते हैं, कहते है, “यार ये कुछ समझाता क्यों नहीं.”
और मुझे लगता है, बॉस कुछ समझते क्यों नहीं?
यह क़िस्सा मुर्गी और अंडे का क़िस्सा है. न मेरी समझ में यह बात आ सकती है कि वे समझते क्यों नहीं और न उनकी समझ में यह बात आती है कि मैं समझता क्यों नहीं…
एक्चुअली यह समझ वाली गड़बड़ मेरी लाइफ में बचपन से हुई. मैंने अपनी ज़िंदगी में ऐसे-ऐसे सीन देखे हैं कि यह समझने समझाने वाली बात दिल की गहराई तक उतर चुकी है.
मामला शुरू होता है दूध से. आजकल तो पता नहीं किस-किस का दूध आ रहा है, न जाने किस किस कंपनी का. सब पैकेट में बंद है. शुद्धता की गारंटी है. लफड़ा यही शुरू होता है. एक फ़ुल क्रीम हो गया, एक टोंड, इसके बाद एक और पैक है काऊ मिल्क. मेरी समझ में नहीं आता एक भैंस का हो गया, एक गाय का, तो यह बीच में टोंड मिल्क क्या है. ये कौन से जानवर हैं, जिनका मिल्क टोंड के नाम से मिल रहा है. फिर भी मेरा मुद्दा यह नहीं है. मेरा मुद्दा तो बचपन वाला है.
पहले दूध, दूध दुहने वाले के यहां से आता था. चार-पांच अंकल ग्रुप बना कर उसके यहां जाते. बहुत से दूध दुहने वाले होते. अगर ये लोग पांच बजे पहुंचते, तो वह साढ़े चार बजे दूध निकालना शुरू कर देते. बहुत हील-हुज्जत के बाद वह बाल्टी दिखाने को तैयार होते, मगर फिर दूध दुह कर लाते, तो पहले से पानी मिले दूध की बाल्टी में उसे उड़ेल देते. आंखों के सामने पानी मिलाते और कोई कुछ नहीं कर पाता.
लोग एक को बदल कर दूसरा लगाते मगर खेल नहीं बदलता. फिर मैंने दो बड़े महान केस देखे. एक दूध दुहने वाला पूरी ईमानदारी से बाल्टी खाली करके दूध निकालता था. सब बड़े ख़ुश थे. मगर घर में मामला बिगड़ जाता. वहां शिकायत आती दूध पतला है. पकड़ में कुछ नहीं आता.
एक दिन मैंने उसे पकड़ा, “वो भाईसाहब दूध निकाल कर भैंस की पीठ ठोकते और उनकी घरवाली पहले से तैयार रखे पानी के बर्तन से बाल्टी में पानी मिला देती. काम इतनी सफ़ाई से होता कि मशहूर जादूगर पीसी सरकार भी मात खा जाए.
जब हम बच्चे थोड़े बड़े हुए, तो ख़ुद ग्रुप बना कर दूध लेने जाने लगे. अब हम भैंस के सिर पर सवार हो कर दूध निकलवाते. बाल्टी चेक करते. भैंस के पूंछ मारने तक की परवाह नहीं करते. नतीज़ा यह कि ख़ालिस दूध बाल्टी में आता.
अब यहां नया क़िस्सा शुरू हुआ. वो दूध वाले भाईसाहब उस दूध में इतना झाग पैदा करते कि घर जा कर एक किलो दूध छटांक भर कम हो जाता. डांट पड़ती, “तुम लोग ठीक से दूध नहीं नपवाते.”
नतीज़ा यह कि जो काम दूध वाले भाईसाहब करते, घर लौटते हुए म्युनिसिपल के बम्बे से हम करने लगे. क्या फ़र्क़ पड़ेगा एक किलो दूध में छटांक भर पानी पड़ गया तो, कम से कम घर में डांट तो नहीं पड़ेगी.
लेकिन उसके बाद मुझे समझ में आ गया कि इस देश में दूध जैसी चीज़ बिना भैस पाले शुद्ध और सही नहीं मिल सकती. इसके बाद मैं कभी दूध लाने के चक्कर में नहीं पड़ा. मुझे समझ में आ गया बिना भैंस पाले शुद्ध दूध मिल पाना संभव नहीं है. अब सोचिए दूध का यह हाल है तो खोये और देसी घी का क्या हाल होगा?
अब मुझे कोई कितना भी समझा ले कि यह उस ब्रांड का है, यह इस ब्रांड का है, जो सब शुद्ध और असली माल देते हैं. मैं उसकी बात समझ लेता हूं, उसे कह देता हूं, “तुम्हारा विश्वास सही है.”
इसके बाद जब मैं उसे अपनी बात समझाता हूं, तो वह नहीं समझता. मैं कहता हूं, “देखो यार मिठाई भले किसी भी अच्छी ब्रांड की हो, खोया तो दूध का है और दूध वही है, जो मैं बता चुका हूं, तो क्या फ़र्क़ पड़ता है कि लल्लू हलवाई की रसमलाई है या कल्लू हलवाई की. बस हाइजीन फैक्टर देख लो और कुछ नहीं. न असली यहां है न वहां.
यही हाल पढ़ाई-लिखाई और पैरेंट्स के समझाने का रहा. वे पूरी उम्र समझाते रहे, “देखो बेटा, तुम्हारे इंटेलीजेंट होने में कोई कमी नहीं है, बस तुम ये खेल-कूद और घुमक्कड़ी थोड़ा कम कर दो. फिर देखना तुम्हें बड़ा अफसर बनने से कोई नहीं रोक सकता.”
मगर फिर वही बात, मैंने तो उनकी बात समझ ली कि थोड़ा ध्यान दूं, तो पढ़-लिख कर क़ायदे का इंसान बन सकता हूं. लेकिन उन्होंने मेरी बात नहीं समझी कि ऊपर वाले ने मुझे घुमक्कड़ बनाया था, तो मैं पढ़ाकू कैसे बनता
न जाने क्यों लाखों लोगों की तरह मेरा बचपन से विश्वास था कि मुझे फिल्म इंडस्ट्री में जाना चाहिए. अगर एक बार मुझे सही रोल मिल जाए, तो मैं अच्छे अच्छों की छुट्टी कर दूं, मगर उस ज़माने में यह बात कहते ही घर में कुटाई हो जाती. फिर बंबई क्या अपने गली-मोहल्ले तक में घूमना मना हो जाता. जबकि देवानंद, पृथ्वीराज कपूर और बी. आर. चोपड़ा तक की ऑटोबायोग्राफी यह बताती है कि वे सब घर से भाग कर मुंबई के पार्कों में सोए थे. मैं तो बचपन में घरवालों की बात समझ कर चुप रह गया, मगर वे मेरी बात नहीं समझे.
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अब मुझे कोई लाख समझाए कि पढ़ते-लिखते अच्छे नंबर लाते, तो कुछ बन जाते, मैं तो उसे बलराज साहनी का क़िस्सा ही सुनाता हूं. सच तो यह है कि मैं तो उसे समझने को तैयार रहता हूं, बस वह मुझे नहीं समझता.
अब तो हालत और ख़राब है. आजकल लोग व्हाट्सएप पर समझाते रहते हैं. कभी सद विचार भेजते हैं, तो कभी आदर्शवादी कहानियां. मैं उन्हें समझ लेता हूं और हाथ जोड़ देता हूं, मगर वे मुझे नहीं समझते. जब मैं उन्हें इंटरनेट में सर्च के डाटा बताता हूं और मोबाइल मांगता हूं, तो वे नाराज़ हो जाते हैं.
मैं उनसे कहता हूं, “देखो यार मैं झूठ नहीं बोलता. आदर्शवाद मेरे पल्ले नहीं पड़ता, इसलिए मैं किसी को अच्छे गुड मार्निग, गुड इवनिंग मैसेज नहीं भेजता. हां, तुम तो आदर्श जीवन जी रहे हो. तुम्हारे मोबाइल में तो लॉक नहीं होगा, ज़रा देखने दो मेमोरी क्या कहती है.” बस इसके बाद वह मुझसे नाराज़ हो जाता है. मुझ पर बिगड़ पड़ता है. इतना कहते ही उसे अपनी प्राइवेसी का हनन होता दिखाई देने लगता है.
देखिए सच तो यह है कि मैं तो सभी को समझ लेता हूं, मगर मुश्किल यह है कोई मुझे नहीं समझता. क्योंकि जैसे ही मैं अपनी बात कहता हूं बच्चे तक कह देते हैं, “आप समझते क्यों नहीं?” और इसके बाद मैं फिर कहता हूं, “देखो मैं तो तुम्हारी बात समझ रहा हूं, बस एक बार तुम भी तो मेरी बात समझ लो.” और इसके बाद वे थक-हारकर कहते हैं, “यह इंसान कभी नहीं समझेगा.”
– मुरली मनोहर श्रीवास्तव
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