व्यंग्य- बडे़ साइज़ की सोच… (Satire Story- Bade Size Ki Soch…)

मैंने अक्सर कई बुद्धिजीवी प्रजाति के लोगों से सुना है कि सोच बड़ी होनी चाहिए. सुन-सुनकर मेरे पतझड़ ग्रस्त दिल में भी सावन जाग उठा है. ज़िंदगी के इंटरवल के बाद वाली लाइफ में पसरे रेगिस्तान के लिए शायद सोच ही ज़िम्मेदार है. सोच को लार्जर देन लाइफ होना चाहिए था, पर हुआ उल्टा. लाइफ बढ़ती गई और सोच सिमटती गई.

मैं अपनी तुच्छ सोच को लेकर दुखी हूं. सीनियर सिटीजन होने की सीमा रेखा पर खड़ा होकर भी सोच के मामले में अभी नाबालिग हूं. बुद्धिलालजी हमेशा कहते रहते हैं कि आदमी को बडा सोचना चाहिए (वैसे अभी तक उन्होंने सोच की साइज़ नही बताई है). वो सबको सलाह देते हैं- जीवन में तरक़्क़ी करना है, तो बड़ा सोचो. हालांकि बड़ा सोचने के मामले में उनकी सोच को लेकर मुझे थोड़ा डाउट है, क्योंकि अपनी शिक्षा को लेकर उन्होंने हाई स्कूल से बड़ा सोचा ही नहीं. तीन दिन पहले भी मुझे सुनाकर कह रहे थे, ” आदमी बेशक गली कूचे का लेखक हो और उसकी रचना मोहल्ले के साप्ताहिक अख़बार के अलावा कहीं न छपती हो, पर उसकी सोच बड़ी होनी चाहिए.”
मैंने अक्सर कई बुद्धिजीवी प्रजाति के लोगों से सुना है कि सोच बड़ी होनी चाहिए. सुन-सुनकर मेरे पतझड़ ग्रस्त दिल में भी सावन जाग उठा है. ज़िंदगी के इंटरवल के बाद वाली लाइफ में पसरे रेगिस्तान के लिए शायद सोच ही ज़िम्मेदार है. सोच को लार्जर देन लाइफ होना चाहिए था, पर हुआ उल्टा. लाइफ बढ़ती गई और सोच सिमटती गई. अब बुद्धिलालजी कहते हैं कि बड़ा आदमी होने के लिए सोच बड़ी होनी चाहिए. ये एक बड़ी समस्या है मेरे लिए, क्योंकि सोच बढ़ाने वाला फाॅर्मूला कहां से लाऊं. बड़ा आदमी तो मैं बचपन से होना चाहता था, पर तब घरवालों ने मिसगाइड कर दिया. अब्बा श्री बोले थे, “पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब (बड़ा आदमी).”
जब पढ़ने लगा, तो साहित्य ने मिसगाइड कर दिया- बड़ा (आदमी) हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर… (रहीम के दोहे भी मेरे बड़े होने के पक्ष में नहीं थे) अब्बा श्री और मास्साब दोनों चाहते थे कि मैं पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बनूं. तब किसी ने नहीं बताया था कि बड़ा आदमी होने के लिए शिक्षा नहीं, सोच बड़ी होनी चाहिए. सोच कुपोषण का शिकार हो गई.
हमारे एक विद्वान मित्र हैं, जो बड़ा आदमी होने का वर्कशॉप चलाते हैं. इस काम में उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है. मुझे उनसे गहरी ईर्ष्या है, (क्योंकि पैंसठ साल के बाद भी वो सफ़ेद दाढ़ी में जवान बने हुए हैं) अख़बार में छपी उनकी एक गाइडलाइन के मुताबिक़- बड़ा होने के लिए आदमी को अपनी सोच बड़ी करनी होगी. पिछला पूरा साल मैं सिर्फ़ कोरोना के बारे में ही सोचता रहा, लिहाज़ा सोच बड़ा करने का कोई मौक़ा नहीं मिला. पूरा देश बड़ा सोचने की जगह कोरोना को छोटा करने में लगा था. इस साल मेरे लिए बेकारी एक बड़ी समस्या है, पर इस हालत में भी मैं बड़ा सोचना चाहता हूं. प्रॉब्लम ये है कि कभी किसी ने सिखाया ही नहीं कि बेकारी में बड़ा कैसे सोचा जाता है. मेरे जैसा छोटा आदमी, जिसकी सोच- दाल, चावल और रोटी से ऊपर जाती ही नहीं, वो क्या खाक नीरव मोदी या विजय माल्या जैसी बड़ी सोच ला पाएगा.
पर अब मैं मानूंगा नहीं, मुझे हर हाल में बड़ा बनना है. लिहाज़ा मैं हर उस महापुरुष से दीक्षा लेना चाहता हूं, जो बड़ा सोचने का हुनर जानते हैं. एक बार मैं बड़ा सोच कर देखना चाहता हूं. वैसे मैं अपनी तरफ़ से जब भी बड़ा सोचने की कोशिश करता हूं, तो बेगम जली-कटी सुना देती हैं, “कुछ काम भी करोगे या पड़े-पड़े सोचते ही रहोगे. वसीयत कर जाऊंगी कि लड़की कुंवारी मर जाए, पर किसी लेखक से शादी ना करे.” देख लिया न, बड़ी सोच के रास्ते में किस क़दर स्पीड ब्रेकर खड़े हैं.
मैंने बड़ी सोच के बारे में वर्माजी से जानकारी मांगी, तो वो भड़क उठे, “जीडीपी तेरे कैरेक्टर की तरह नीचे गिर रहा है और तू सोच बड़ी करने में लगा है. मूर्ख! ज़्यादातर लोगों ने अपने काले धंधे का नाम ही बड़ी सोच रख दिया है.” मैं फिर भी चौधरी से पूछ बैठा, “मै बड़ा सोचना चाहता हूं.” चौधरी ने ग़ुस्से में जवाब दिया, “मेरी तरफ़ से रुकावट कोन्या, तू बड़ा सोचे या सल्फास खाए, पर पहले म्हारी उधारी चुकता दे! मोय भैंसन कू हिसाब देना पड़ ज्या. कदी समझा कर.”
बड़ा कैसे सोचूं, बस यही सोच-सोचकर वज़न घटा लिया है. शायद मेरा बैकग्राउंड ही बड़ी सोच में बाधक है. यूपी के छोटे से गांव में पैदा हुआ, छोटा-सा आंगन, ऊपर मेरे हिस्से का आसमान. साझी धूप की विरासत में पलते छोटे-छोटे सपने! मां-बाप की ख़ुशी और नाख़ुशी के एहतराम में झूमती गेहूं की सुनहरी बालियों की मानिंद जवानी आई, तो उन्हीं छोटे सपनों को लिए दिल्ली आ गया. दिल्ली में पैर जमे संगम विहार में, जो प्रदेश की सबसे बड़ी सुविधाविहीन क्लस्टर कॉलोनी है. यहां कुछ और सोचने से पहले प्राणी को पीनेवाले पानी के बारे में सोचना पड़ता है. सारे सपने पानी, राशन और सड़क के हैंगर पर टंगे मिलते हैं. मेरी यही प्राॅब्लम है, जब भी बड़ा सोचने की कोशिश करता हूं, सारी सोच राशन कार्ड लेकर दुकान के सामने खड़ी हो जाती है. पेट से बंधी छोटी सोच!
फिर भी बड़ी सोच के लिए आज भी दिल है कि मानता नहीं…

सुलतान भारती


यह भी पढ़ें: व्यंग्य- शादी का एल्बम (Satire Story- Shadi Ka Albam)

Usha Gupta

Recent Posts

मराठीतील विक्रमी चित्रपट ‘माहेरची साडी’चे निर्माते विजय कोंडके यांचा ३४ वर्षानंतर नवा चित्रपट ‘लेक असावी तर अशी’ (‘Lek Asavi Tar Ashi’ Is New Film Of Producer- Director Vijay Kondke : His Comeback After 34 Years Of Blockbuster Film ‘Maherchi Sadi’)

मोठमोठ्या कलाकारांना एकत्र घेऊन चांगल्या दर्जाचा सिनेमा बनवणं हे निर्माता दिग्दर्शकांसाठी मोठं आव्हान असतं. काही…

April 18, 2024

‘मन धागा धागा जोडते नवा’ मालिकेत स्मिता तांबेची वकिलाच्या भूमिकेत एन्ट्री (Actress Smita Tambe Enters As A Lawyer In “Man Dhaga Dhaga Jodte Nava” Serial)

स्टार प्रवाहवरील ‘मन धागा धागा जोडते नवा’ मालिकेत सार्थक-आनंदीचं नातं अतिशय नाजूक वळणावर आहे. काही…

April 18, 2024

वळवाचा पाऊस (Short Story: Valvacha Pause)

निशा नंदन वर्तक हा अचानक आलेला वळवाचा पाऊस !! अवंतिकेचा उदासपणा कुठच्या कुठे पळून गेला..…

April 18, 2024

आई कुठे काय करते फेम मिलिंद गवळींनी शेअर केल्या लक्ष्या मामा, रमेश भाटकर अन् विजय चव्हाण यांच्या आठवणी ( Aai kuthe Kay Karte Fame Milind Gawli Share Lkshmikant Berde, Ramesh Bhatkar And Vijay Chavan Memories)

लक्ष्मीकांत बेर्डे, विजय चव्हाण, रमेश भाटकरमराठी चित्रपट व नाट्य सृष्टीतले दिग्गज असे कलाकार, ज्यांच्याबरोबर मला…

April 18, 2024
© Merisaheli