कविता- मत करो विलाप ऐ स्त्रियों… (Poetry- Mat Karo Vilap Ae Striyon…)

मत करो विलाप
ऐ स्त्रियों!
कि विलापने से
कांपती है धरती
दरकता है
आसमां भी

कि सुख और दुख
दो पाले हैं
ज़िंदगी के
खेलने दो ना
उन्हें ही कबड्डी
आने दो दुखों को
सुख के पाले
टांग छुड़ा कर
भाग ही जाएंगे
अपने पाले
या दबोच
लिए जाएंगे
सुखों की भीड़ में

मत करो विलाप
ऐ स्त्रियों!
कि गरजने दो
बादलों को ही
बरसने दो
भिगोने दो
धरती को

कि जीवन और मृत्यु
के बीच
एक महीन रेखा ही तो है
मिटकर मोक्ष ही तो पाना है
फिर से जीवन में आना है
कि विलापने से पसरती है
नकारात्मक उर्जा
कि उसी विलाप को
बना लो बांध
और झोंक दो जीवन में

मत करो विलाप
ऐ स्त्रियों!
कि विलापने से
नहीं बदलेगी जून तुम्हारी
कि मोड़ दो
धाराओं को
अपने ही पक्ष में
बिखेर दो रंग अपने ही जीवन में
अपने आसपास
उगा दो फूल
चुग लो कंकर
कि तुम्हारी कईं पीढ़ियों
को एक भी कंकर
ना चुभ पाए
और फूलों
के रास्ते
रंग भरी
दुनिया में
कर जाएं प्रवेश

मत करो विलाप
ऐ स्त्रियों!
बहुत हुआ विलाप
व्यर्थ फिर आंसू
कि जाना है हमें
बहुत आगे
अपनी बनाई
दुनिया को
दिखाना है
दुनिया को
संवारना है
उनको भी
जो विलाप
के कगार पर
अब भी पड़ी हैं
बिलखते हुए
उठाना है
उन्हें कंधे पकड़ कर
समझाना है
बुझाना है
और ले जाना है
रंगों भरी दुनिया में

मत करो विलाप
ऐ स्त्रियों…

संगीता सेठी

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Usha Gupta

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Usha Gupta

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