व्यंग्य- खांसते रहो… (Satire Story- Khaste Raho…)

खांसी से पीड़ित लोग अमूमन उतना नहीं घबराते, जितना सुननेवाला घबराता है. क्या पता टीबी ना हो. खांसी की वैरायटी बहुत है. डॉक्टर को भी उतना ज्ञान नहीं होगा, जितना यूपीवालों को होगा. सरसों के खेत में उड़ता हुआ भुनगा गले में घुस जाए, तो यूपीवाले ऐसे खांसते हैं, गोया गले में पेड़ उग आया हो. हुक्का पीनेवाले बुज़ुर्ग खांसने पर उतर आएं, तो पूरे मोहल्ले का रतजगा करा दें. इतने ज़बर्दस्त तरीक़े से खांसते हैं कि आंतों में रूकी हुई गैस भी ख़ारिज हो जाती है.

आदमी की फ़ितरत देखिए, मरना ही नहीं चाहता. बीमार होने पर आसानी से अस्पताल नहीं जाना चाहता और कोरोना को मौसमी वायरल बताकर डॉक्टरों से बचना चाहता है. विकास की तरह बीमारी भी ‘हरि अनन्त हरि कथा अनंता’ है. डॉक्टर और केमिस्ट की जन्नत का दरवाज़ा इसी दोजख से होकर जाता है. कितने ‘ज़मीनी भगवान’ (डॉक्टर) तो अपनी बेटी का रिश्ता तक बीमारी का मुहूर्त देखकर तय करते हैं, “लड़केवाले जल्दी मचा रहे थे, पर मैंने शादी की तारीख़ दिसम्बर से हटाकर जून कर दी! मई-जून खांसी, ऐक्सिडेंट, टीबी और हैजा का सीज़न होता है- यू नो!”
खांसी से पीड़ित लोग अमूमन उतना नहीं घबराते, जितना सुननेवाला घबराता है. क्या पता टीबी ना हो. खांसी की वैरायटी बहुत है. डॉक्टर को भी उतना ज्ञान नहीं होगा, जितना यूपीवालों को होगा. सरसों के खेत में उड़ता हुआ भुनगा गले में घुस जाए, तो यूपीवाले ऐसे खांसते हैं, गोया गले में पेड़ उग आया हो. हुक्का पीनेवाले बुज़ुर्ग खांसने पर उतर आएं, तो पूरे मोहल्ले का रतजगा करा दें. इतने ज़बर्दस्त तरीक़े से खांसते हैं कि आंतों में रूकी हुई गैस भी ख़ारिज हो जाती है. हमारे गांव के गियासू भाई बीड़ी के चेन स्मोकर थे, (खुदा उन्हें जन्नत दे) जब खांसना शुरू करते, तो मुंह के अलावा भी कई जगह से आवाज़ आती थी.
कुछ लोगों ने खांसने में भी काफ़ी नाम कमाया है. इन्हें अगर वरीयता क्रम में रखा जाए, तो ‘केजरीवाल’ जी की खांसी को गोल्ड मेडल मिलेगा. क्या खांसी थी, उड़ी बाबा! लोग निरूपा रॉय की खांसी भूल गए. जब खांसने पर उतारू हो जाते, तो टीवी देख रहा अभिभावक बीबी को डांटता था, “बच्चों को टीवी से थोडा़ दूर बिठाया करो.” उन्होंने खांस-खांस कर पूरे देश को इमोशन में ला दिया था. उनकी खांसी से घबराकर दिल्ली के वोटरों ने डिसाइड किया कि ज जीताने से ही जान छूटेगी और जीतते ही उन्होंने मफ़लर और खांसी को अलविदा कर दिया. अब उनकी खांसी अच्छे दिन की तरह नदारद है और दिल्लीवाले खांस रहे हैं. विरोधियों का दिल पराली की तरह जल रहा है और केजरीवालजी मुस्कुराकर प्रदूषण पर झाड़ू फेर रहे हैं. आंकड़ों में पराली खाद में बदल रही है और खांसी मुस्कुराहट में. ख़ुशहाल दिल्ली फेस मास्क लगाए आज भी खांस रही है.
कुछ खांसी सामयिक होती है, कुछ अल्कोहलिक और कुछ मौसमी. एक ‘कुकुर खांसी’ भी होती है, जिसकी दवा है- कुकर सुधा (नाम से ऐसा लगता है कि इसका आविष्कार किसी कुत्ते ने किया होगा) लेकिन इसके इतर एक रहस्यमय खांसी ऐसी भी है, जो सनातनकाल से चली आ रही है और आज तक उसका कोई इलाज नहीं है. अगर आपके याददाश्त का प्लग स्पार्क नहीं कर रहा, तो याद दिला देता हूं. ये रहस्यमय खांसी हिन्दी फिल्मों के ग़रीब हीरो की विधवा मां को होती थी. याद कीजिए, ग़रीब गांव का बचपन से गरीब और अनाथ हीरो. हीरो की खांसती हुई अम्मा. पास में सनातनकाल से बनता आ रहा एक बांध (पता नहीं उस बांध का ठेकेदार कौन है) हर तीसरी फिल्म में माताजी खांस रही हैं और बांध पर डायनामाइट फट रहा है. हीरो पीपल के नीचेवाले गुरुकुल में पढ़कर सीधे इंस्पेक्टर हो रहा है. दर्शक सोच रहे हैं कि अब हीरो माताजी के बलगम की जांच ज़रूर कराएगा या खांसी की दवा दिलाएगा, पर हीरो इतना हयादार नहीं है, वो माताजी के लिए खांसी की दवा लाने की बजाय हीरोइन से इश्क़ कर रहा है. यार ये कौन-सी खांसी है, जिसे केजरीवालजी की खांसी भी ओवरटेक नहीं कर पाई.
मैं सच कह रहा हूं, पिछले हफ़्ते दबाकर मूली खाया था. पहले ज़ुकाम हुआ,फिर बुखार और फिर गला ख़राब. मित्रों! ये किस बीमारी के लक्षण हैं. ओह तो आप बताना ही नहीं चाहते. तीन दिन से खांसी भी आ रही है. कैरेक्टर में- फिफ्टी फिफ्टी लेकर घूम रहे मित्रों को ज़्यादा ख़ुश होने की ज़रूरत नहीं, ज़ुकाम-बुखार दोनों ठीक हो चुका है. कुछ लोगों की बददुआ में एंटी बायोटिक की तासीर होती है.
खांसते रहिए…

सुल्तान भारती


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Usha Gupta

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