कहानी- अभी मंज़िल दूर है (Short Story- Abhi Manzil Door Hai)

“तुम नारी मुक्ति आंदोलन की पक्षधर कब से हो गई?”
“मतलब?” मैं चौंक गयी थी.
“मतलब, तुम तो घर-परिवार को समेटकर चलनेवाली स्त्री हो. नारी मुक्ति जैसा मुहावरा तुम पर फ़िट नहीं बैठता.”
मैं अपलक शोभित को निहार रही थी.
“मेरे प्रश्‍न ने तुम्हें सोच में डाल दिया न? किसी भी आंदोलन से जुड़ने से पहले उस पर विश्‍वास होना आवश्यक है. यदि आंदोलनकर्ता और विशेष रूप से आंदोलन का नेतृत्व करनेवालों को ही अपने उद्देश्य पता नहीं होंगे, यदि उनके सामने अपना लक्ष्य स्पष्ट नहीं होगा, तो पूरा आंदोलन अपने लक्ष्य से भटक जाएगा और इस आंदोलन की त्रासदी यही है.

महराजगंज आए मुझे अभी कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन अचानक नारी मुक्ति मंच की कुछ महिलाएं मेरे पास आईं और मुझसे नारी मुक्ति मंच की उपाध्यक्षा का पद स्वीकारने का अनुरोध करने लगीं. मेरे विगत पंद्रह वर्षों के समाज सेवा के कार्यों का पूरा कच्चा-चिट्ठा था उनके पास. समाज सेवा के क्षेत्र में जाने का निर्णय मेरा अपना था. बड़ा सुकून मिलता था मुझे किसी पीड़ित को थोड़ी भी राहत पहुंचा कर. मेरे पति ने मेरी इस भावना को समझा, सराहा और प्रोत्साहन दिया. परिणामतः मेरा वैवाहिक जीवन समाज सेवा में बाधक न बन कर सहायक बन गया. मैं डेढ़ दशक से निरंतर अपने स्तर पर समाज सेवा के कार्य करती आ रही हूं बिना किसी प्रतिदान की चाह के, बिना किसी प्रचार के. मैं चकित थी, गुपचुप किए मेरे सभी छोटे-बड़े कार्यों की इतनी विस्तृत रिपोर्ट उनके पास कहां से आई.
मेरी मौखिक स्वीकृति पाकर वे सब प्रसन्न मन से विदा हो गईं.
अजब आलम था, एक अनोखी अनुभूति. पति के कार्यालय से वापस आने तक की प्रतीक्षा भी कठिन जान पड़ रही थी. ख़ुशी थी कि छुपाए नहीं छुप रही थी. जैसे-तैसे सांझ घिरी, पति को अपने नीड़ में घुसते ही कुछ नया घटित होने का आभास हो गया. होता भी क्यों न?
मेरा तो रोम-रोम पुलकित था, हर हाव-भाव मेरी प्रसन्नता दर्शा रहे थे.
“क्या बात है? आज चेहरे पर नूर कुछ ज़्यादा ही छलक रहा है.” शोभित मुझे देखते ही बोले.
सब कुछ सुनकर शोभित कुछ पल मुझे देखते रहे. मेरी छोटी-छोटी उपलब्धि से खिल उठनेवाले शोभित की प्रतिक्रिया अप्रत्याशित रूप से चौंकानेवाली थी.
“तुम नारी मुक्ति आंदोलन की पक्षधर कब से हो गई?”
“मतलब?” मैं चौंक गयी थी.
“मतलब, तुम तो घर-परिवार को समेटकर चलनेवाली स्त्री हो. नारी मुक्ति जैसा मुहावरा तुम पर फ़िट नहीं बैठता.”
मैं अपलक शोभित को निहार रही थी.
“मेरे प्रश्‍न ने तुम्हें सोच में डाल दिया न? किसी भी आंदोलन से जुड़ने से पहले उस पर विश्‍वास होना आवश्यक है. यदि आंदोलनकर्ता और विशेष रूप से आंदोलन का नेतृत्व करनेवालों को ही अपने उद्देश्य पता नहीं होंगे, यदि उनके सामने अपना लक्ष्य स्पष्ट नहीं होगा, तो पूरा आंदोलन अपने लक्ष्य से भटक जाएगा और इस आंदोलन की त्रासदी यही है. यह आंदोलन से अधिक मुहावरा बन कर रह गया है.”
मैंने प्रतिवाद किया, “आज मेरी उन लोगों से बहुत विस्तार से बात हुई है, ऐसा नहीं है. दरअसल इस आंदोलन को लेकर पुरुषों में एक डर बैठ गया है. इसी कारण इसका इतना विरोध होता है. यहां तक कि आंदोलन को मुहावरे का नाम दे दिया गया है. वे लोग बता रही थीं कि कितनी ही पीड़ित महिलाओं को उनके मंच ने राहत पहुंचाई है. दहेज उत्पीड़न के विरुद्ध जेहाद छेड़ रखा है इस मंच ने. अभी पिछले हफ़्ते ही एक बहू को जला कर मारने वाले अपराधियों को इस मंच ने जेल पहुंचाया है.”

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“अच्छा! किस-किस को जेल की सज़ा हुई है?”
“बहू की सास, ननद और पति-तीनों को. उसके पति की शह पर सास और ननद ने मिल कर बेचारी को जला दिया था.”
“उसके पति को तो फांसी होनी चाहिए. जिसके साथ जीवन बिताने का वादा किया, उसी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होना अक्षम्य अपराध है. मगर तुम देखो तो, उसे जलाया किसने… एक स्त्री को दूसरी स्त्री ने मतलब पीड़ित और प्रताड़क एक ही समुदाय के हैं. फिर मुक्ति किसको किससे चाहिए?”
“यानी आप चाहते हैं मैं इस आंदोलन से न जुडूं?”
“जुड़ना न जुड़ना यह तुम्हारा अपना निर्णय है. अगर तुम्हें लगता है कि इस मंच से जुड़ कर तुम बेहतर काम कर सकती हो, तो ज़रूर जुड़ो. मैं तो सिर्फ़ यह कह रहा हूं कि अत्याचार किसी पर भी हो और कोई भी करे, उसके विरुद्ध आवाज़ उठानी ही चाहिए. इस काम में मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा. नारी को यदि सचमुच मुक्ति दिलानी है, तो उसे शिक्षा का हथियार थमा दो. उसके अकेलेपन को बांटो, उसके मानसिक उत्पीड़न को रोको. इस तरह की भ्रामक बातों का क्या लाभ कि साड़ी पहनना नारी को बंधन में जकड़ना है या विभिन्न सुहाग चिह्न बेड़ियां हैं, इन्हें तोड़ फेंको. ये कौन-सी आज़ादी है भला? क्या लाभ होगा इससे? वैसे तुम यदि इन्हें उतारना चाहो तो मुझे कोई ऐतराज़ नहीं होगा, परंतु क्या तुम अपना मंगलसूत्र, पायल, बिछिया, चूड़ियां और नाक की लौंग उतारना चाहोगी?”
मैं अवाक-सी मुंह बाए अपने पति को देख रही थी. उनकी बातों ने मेरे विचारों को उद्वेलित कर दिया था.
“अरे, कहां खो गई तुम? अभी फ़ैसला करने को बहुत समय है, आराम से करना.” शोभित मेरी आंखों के आगे चुटकी बजा रहे थे.
“मुझे दो दिन के लिए बनारस जाना है, चलोगी?”
“हां-हां, कब जाना है?”
“बस एक घंटे में निकलेंगे.”
बनारस जाते हुए मैं रास्ते भर शोभित की बातों का मंथन करती रही. उनकी बातों में सार दिखाई दे रहा था. मन विचलित होने लगा.
समाज सेवा के क्षेत्र में अलग-अलग तरह की समस्याओं से मेरा परिचय होता रहा है. अब वही सब शोभित की बातों का समर्थन करती प्रतीत हो रही थीं. पांच पुत्रियों को जन्म देनेवाली रमिया की सास उसके नाक में दम किए रहती थी, किंतु उसकी सास को समझाना मेरे लिए टेढ़ी खीर था. ग्यारह वर्षीय संजू का विवाह इतनी कम उम्र में न करने के लिए उसके पिता को तो समझा लिया, किंतु उसकी मां और दादी कहां कुछ सुनने को तैयार थीं. काश, ये सारी महिलाएं भी कुछ पढ़ी-लिखी होतीं.
बनारस की भागमभाग में अनुश्री से मिलना हुआ. अनुश्री से मिलना उसके एकाकीपन से मिलना था. उसकी निराशाओं से साक्षात्कार था. बुरी तरह हिला कर रख दिया उसने मुझे. मेरे अंदर एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ. कहां जाना चाहते हैं हम?.. एक ओर नितांत अकेले अपना-अपना युद्ध लड़ते अनुश्री जैसे अनेक लोग हैं, तो दूसरी ओर हर गली-मोहल्ले में खुली समाज सेवा की अनगिनत दुकानें? बैनर, जुलूस, नारेबाज़ी और अख़बार में फोटो, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात. बनारस से वापसी की यात्रा मानसिक रूप से मेरे लिए एक अंधेरी सुरंग से गुज़रने का कष्टप्रद अनुभव थी. अनुश्री का अकेलापन, उसकी पीड़ा उस अकेली की पीड़ा नहीं थी. समाज का हर व्यक्ति अपने-अपने स्तर पर अपने-अपने युद्ध लड़ रहा है और दूसरे को, यहां तक कि उसके साथ रहनेवाले दूसरे व्यक्ति को भी उसकी पीड़ा का एहसास ही नहीं है. क्या हमारी संवेदना पूरी तरह मर गई है?
अपने में खोई-खोई-सी मैं अपने स्टडी के दरवाज़े तक चली आई और हवा से फड़फड़ाते काग़ज़ों की आवाज़ मुझे मेज़ के पास खींच लाई. सामने मेज़ पर नारी मुक्ति मंच की उपाध्यक्षा पद पर नियुक्ति का पत्र रखा था. जब से बनारस से लौटी हूं यह नियुक्ति पत्र और अनुश्री का चेहरा मेरी नज़रों के सामने बार-बार गड़मड़ होने लगे हैं. नियुक्ति पत्र के साथ जुड़ा रुतबा और सामाजिक प्रतिष्ठा अपनी ओर खींचती है, तो अनुश्री का चेहरा याद दिलाता है कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है, वो भी बिना किसी बंधन में बंधे हुए. यह निर्णय की घड़ी थी और मेरे अंदर समुद्र मंथन जैसी हलचल मची थी.
“कहां खोई हुई हो?” शोभित की आवाज़ से मैं चौंक उठी.
“क्या बात है, तुम कुछ परेशान लग रही हो?” कुछ पल पति की ओर देखकर मैंने अपनी उलझन को शब्दों का जामा पहना दिया.
“अनुश्री के कहे शब्दों की अनुगूंज, मेरे कानों में अब भी गूंज रही है. जब से बनारस से वापस आई हूं घर को सजाते-संवारते, कुछ भी करते अनुश्री का भोला मुखड़ा, दुर्बल काया मेरी आंखों के आगे हर पल तैरती रहती है. उसके शब्दों में छुपी निराशा मुझे विचलित कर रही है.”
“… दीदी, मेरी प्रेरणा तो महराजगंज चली गई… अब सब ख़त्म! यही कहा था ना उसने?” शोभित ने अनुश्री के शब्द दोहरा दिए थे.
“हां.”
“तो तुम इतनी विचलित क्यों हो रही हो? ये तो बहुत बड़ा कॉम्प्लीमेंट है तुम्हारे लिए.” शोभित के चेहरे पर सहज मुस्कान थी.
“कॉम्प्लीमेंट! आप इसे कॉम्प्लीमेंट कह रहे हैं? मैं तो यह सोचने पर विवश हूं कि आख़िर मैंने ऐसा क्या कर दिया उसके लिए कि वह इतना विह्वल हुई जा रही?थी. इतनी बड़ी बात कहनेवाली लड़की को आख़िर मैंने दिया ही क्या है?”
“तुमने उसके अंदर हिम्मत और विश्‍वास जगाया है.”
“वो तो उसके अंदर पहले से ही था, मैंने तो सिर्फ़ प्यार के दो मीठे बोल दिए थे. निराशा के पल में प्यार का स्नेहिल स्पर्श और ‘मैं तुम्हारे साथ हूं’ का एहसास, एक विश्‍वास, बस इतना ही न!”
“… और तुम इसे छोटी-सी साधारण बात समझती हो? हक़ीक़त यह है कि आज हमारे समाज में इसी भावनात्मक सहारे का नितांत अभाव हो गया है, जो तुमने उसे दिया. इसी कारण तुम्हारे चले आने से उसके जीवन में एक गहरी शून्यता घिर आई है, जो उसे विचलित कर रही है.” शोभित ने सरल शब्दों में स्थिति का विश्‍लेषण कर दिया.
“मैं चलता हूं. तुम भी किसी काम में मन लगाने की कोशिश करना, शाम को बात करेंगे.” मेरे विचारों से सहमति जताते हुए शोभित बाहर चल दिए.
मैं पति को गाड़ी तक छोड़ कर लौटी तो अनुश्री के जीवन में डूबने-उतराने लगी. अनुश्री एक साधन-संपन्न परिवार की तीन संतानों में सबसे बड़ी संतान है. प्रखर बुद्धि वाली इस लड़की की शिक्षा बी.ए. करते ही बंद करा दी गई और आरंभ हो गया एकसूत्री कार्यक्रम- ‘योग्य वर की तलाश’. समय बीतने के साथ-साथ योग्य शब्द लुप्त हो गया  और ‘वर की तलाश’ में परिवर्तित हो गया. सुंदर, सुशील इस कन्या हेतु वर की तलाश द्रौपदी के चीर-सी खिंचती गई. साथ ही बढ़ती गई अनुश्री की उम्र, उसकी कुंठा और परिजनों की चिंता. परिवार की लाडली बेटी से वह बेचारी बन गई. चेहरे पर पड़ती उम्र की थाप को वह कैसे रोक सकती थी? अब तो बालों में कुछ चांदी के तार भी झांकने लगे हैं. जो भी आता, कुछ उम्र को रोकने के सुझाव उसकी ओर उछाल देता. दर्द की तेज़ चुभन उसके हृदय को भेद जाती. डर जाती वह इनसे, अतः आगंतुकों से कतराना उसकी नियति बनती गई, परंतु उसके अकेलेपन का एहसास किसी को नहीं है. आज भी वर की खोज जारी है, परंतु कन्या को उसके पैरों पर खड़ा करने का किसी परिजन को स्वप्न में भी ख़याल नहीं आता. संस्कारी परिवार की नाक जो कट जाएगी.
अतीत मुझ पर हावी होता जा रहा था. मेरी आंखों के आगे वह दृश्य साकार हो उठा जब तपती दोपहरी में किसी कामवश मैं बालकनी में निकली तो अनुश्री को तेज़ी से सामने सड़क पर जाते देखा. आश्‍चर्य के वशीभूत बरबस मैंने उसे ऊपर बुला लिया. आते ही वह फूट पड़ी. उसके आंसू रुक ही नहीं रहे थे. गहरी निराशा की घड़ी में वह आत्महत्या करने जा रही थी, इस सत्य से अनजान मैं पूछ बैठी, “अरे, रो क्यों रही हो अनु? इतनी धूप में कहां जा रही थी? सब ठीक तो है?”
“मैं आत्महत्या करने जा रही थी?”
“क्या ऽ ऽ ऽ” मैं बुरी तरह चौंक गयी थी.
“विश्‍वास नहीं हो रहा न? मेरी पीड़ा कोई नहीं समझ सकता, इसीलिए मैंने निर्णय लिया है, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी.” विद्रुप हंसी के साथ वह बोली.
“तुम होश में नहीं हो अनु.”
“मुझे तो अब होश आया है दीदी.”
“पागल मत बनो. आत्महत्या तो पलायन है. जीवन में दुख-सुख तो लगा ही रहता है.”
“सब बातें किताबों में लिखी अच्छी लगती हैं, परंतु जब जीवन में भुगतना पड़ता है तो ख़ैर, मैंने पलायन का मार्ग ही चुना है.” उसने अपनी बात स्वयं ही काट कर समाप्त कर दी. शायद कोई सफ़ाई नहीं देना चाहती थी.
“नहीं अनु, तुम्हारे जैसी प्रतिभावान लड़की पलायन नहीं कर सकती.”
“कौन-सी प्रतिभा? जिसे जंग लग जाए, उसे आप प्रतिभा कहेंगी? छोड़िए दीदी, मेरी चेतना को जगाने का व्यर्थ प्रयास मत कीजिए. मैंने अपनी मंज़िल चुन ली है.”
“अरे अनु, तुम्हारे इस आत्महत्या के चक्कर में मैं तो असली बात भूल ही गई, जिसके लिए मैंने तुम्हें बुलाया था.” मैंने चौंकने का अभिनय किया.
लेकिन उसने किसी प्रकार की कोई उत्सुकता नहीं जताई.
“अनु, मेरी एक सहेली है, वह अपना बुटीक खोल रही है. उसे कुछ सहयोगी चाहिए. मुझे तुम्हारा ध्यान आया कि तुम खाली भी रहती हो. इस काम के लिए तुम्हें घर से बाहर भी नहीं निकलना पड़ेगा. इसलिए घरवालों को भी कोई ऐतराज़ नहीं होगा. सिलाई-कढ़ाई तुम्हें आती ही है. कपड़े बना-बना कर उसकी बुटीक पर रखती रहना, उसकी मदद हो जाएगी और तुम्हारी आमदनी.”
“सच दीदी, क्या यह संभव है?” उसकी आंखों में पल भर को चमक आ गई.
“हां! क्यों नहीं? बस तुम्हें थोड़ी-सी ट्रेनिंग लेनी होगी.”
“नहीं! ट्रेनिंग कैसे ले पाऊंगी? घरवालों को तो आप जानती ही हैं.” वह पुनः बुझ गई थी.
“अरे, पड़ोस की कॉलोनी की श्रीमती खन्ना को तो जानती हो न? उनके पति ने उन्हें एक-एक पैसे के लिए तरसा दिया था. उन्होंने भी तो पत्राचार के द्वारा ही सीखा है, अब पास-पड़ोस के कपड़े सिलती हैं और देखो अपनी मेहनत से कितना बढ़िया घर चला रही हैं.
“दीदी… मैं… क्या मैं यह कर सकूंगी?” उसकी उत्सुकता आंखों में छलक उठी थी.
“हां अनु, तुम ज़रूर कर लोगी. बस एक फॉर्म भर कर भेजना होगा. लेकिन तुम अब कोई ग़लत क़दम नहीं उठाओगी.”
“नहीं दीदी, अब जब आप जैसा मार्गदर्शक मिल गया है तो मैं अपनी राह स्वयं बना लूंगी.”

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एक नई आशा की डोर थामे अनुश्री मेरे घर से वापस अपने घर चली गई. परंतु मैं चिंतित थी. उसे आशा का दीप तो थमा दिया था, परंतु ऐसी सहेली कहां से लाऊंगी जो बुटीक खोल रही हो या जिसका बुटीक हो. फिर भी मैं अपने त्वरित झूठ पर प्रसन्न थी, जिसने एक कोमल कली के जीवन को मृत्यु का ग्रास बनने से बचा लिया था. यह आशा भी मन के किसी कोने में दबी बैठी थी कि ट्रेनिंग के बाद बने अच्छे वस्त्र कोई भी बुटीकवाला अपने यहां रख लेगा. अनु का हुनर तो मैंने अपनी आंखों से देखा है. बिना सीखे वो इतना अच्छा बनाती है, तो सीख कर उसकी कला और निखर जाएगी.
अतीत में मैं पूरी तरह डूब चुकी थी. अनुश्री की ट्रेनिंग अच्छी चल रही थी. श्रीमती खन्ना ने ख़ुद भुगता था, सो दूसरे का दर्द समझती थीं, वह भी मदद कर देती थीं. अनु यह जान चुकी थी कि मेरा किसी बुटीक में कोई परिचय नहीं है, फिर भी वह आशावान थी. अपनी मेहनत और हुनर पर भरोसा था उसे. उसके साथ अनेक बुटीक के चक्कर मैं भी काट चुकी थी. आशा-निराशा के झूले में हम झूल रहे थे, तभी मेरे पति का स्थानांतरण महराजगंज हो गया और हम अपना बोरिया-बिस्तर बांध कर नए परिवेश और नए लोगों के बीच आ कर बस गए. और मैं नारी मुक्ति मंच की उपाध्यक्षा का गरिमामय पद संभालने पर भी विचार करने लगी.
परंतु बनारस की इस बार की यात्रा से मेरे विचारों को गहरा झटका लगा था. अनुश्री का अकेलापन और उसके जीवन में आई शून्यता ने मेरी चेतना को हिला दिया था. हम नारी मुक्ति तक सीमित होते रहे हैं, जबकि पूरे समाज को ही अपनी बुराई से मुक्ति की आवश्यकता है. अपने एकाकीपन से निपटने की ज़रूरत है.
अतीत से बाहर आकर अब मुझे अपनी अंतरात्मा की आवाज़ स्पष्ट सुनाई दे रही थी. नारी ही क्या, हर इंसान को जीने के लिए एक सहृदय समाज की आवश्यकता होती है. जब तक पनघट पर रहकर कोई प्यासा रह जाए, पनघट का होना सार्थक नहीं. नारी को ही क्या पूरे समाज को सामाजिक चेतना की आवश्यकता है.
मैं धीमी चाल से आगे बढ़ी और मेज़ पर रखे नारी मुक्ति मंच की उपाध्यक्षा पद का नियुक्ति पत्र मैंने हाथ में उठा लिया. एक गहरी नज़र उस पर डाल कर मैं उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में बदलने लगी. नारी को वस्त्रों और अपने संस्कारों से नहीं, मानसिक दासता से मुक्ति चाहिए, अपनी बेचारगी से मुक्ति चाहिए. उसके बढ़े हुए क़दमों की सही दिशा चाहिए. हमारे आंदोलन को एक ऐसी ज्योति चाहिए, जो एक-एक कर हर घर में जल उठे, जो हमें एक-दूसरे का अकेलापन बांटना सिखाए, जो हमें दूसरे के दर्द का सहचर बनना सिखाए. मैं सधे हुए क़दमों से खिड़की तक पहुंची और उन नन्हें टुकड़ों को खिड़की के बाहर हवा में उछाल दिया. हवा में तैरते श्‍वेत पत्रों के बीच मुझे अपना लक्ष्य स्पष्ट दिख रहा था.

– नीलम राकेश

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